अपने को बड़े-बड़़े अर्थशास्त्रियों से ज़्यादा अक़्लमंद समझने के गुरूर में अगर हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने नोटबंदी की गुलाबी फसल काटने के ऐवज में हम से पचास दिन मांगे थे तो अब उन्हें अपना झोला उठा कर चुपचाप घर चले जाना चाहिए। अगर उन्होंने ऐसा साज़िशन किया था तो हमें उन्हें चौराहे पर बुला कर सचमुच उनसे जवाब तलब कर घर भेज देना चाहिए। भारत गौतम और गांधी का देश है तो क्या हुआ? उन्होंने हमें ऐसा कब सिखाया कि अन्याय और अत्याचार को अपने पीठ पर सवारी करने दें?
नोटबंदी के बाद के दो बरस ने देश की कमर तोड़ दी है। बावजूद इसके भारतवासी कभी इतने रीढ़हीन नहीं हो सकते कि आतताइयों को अपने कंधों पर बिठाए नाचते रहें। भले ही नरेंद्र भई को लगता हो कि मां गंगा ने उन्हें बुलाया है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि ईश्वर ने उन्हें किसी सकारात्मक कर्म के लिए धरती पर भेजा है। ऐसा होता तो कोलकाता के बेल्लूर मठ, अल्मोड़ा के अद्वैत आश्रम और राजकोट के रामकृष्ण मिशन में से किसी ने तो उन्हें दीक्षा देने की हामी भरी होती।
संतई के संसार में अवांछित तत्वों के प्रवेश को समय रहते रोक देने की दिव्य दृष्टि रखने वाले महापुरुष हर समय मौजूद रहे हैं। मगर राजनीति की दुनिया के संचालकों के पास भी ऐसी दूरदृष्टि होने के दिन अब लद गए। सो, साढ़े चार साल पहले मतदान केंद्रों तक पहुंचे लोगों में से दो तिहाई से ज़्यादा की ना के बावजूद नरेंद्र भाई भारत-महान के शिखर-सिंहासन पर विराजे अर्रा रहे हैं।
जिन्हें नरेंद्र भाई का घट पुण्यों से लबालब लगता है, वे भी अब इतना तो मानने ही लगे हैं कि नोटबंदी का पाप उनके सारे पुण्यों पर भारी है। बैंकों के सामने लगी कतारों में ऐड़िया रगड़ते-रगड़ते जो खुद चल बसे और जिनके परिवारजन ने इलाज़ के पैसे खाते से न निकल पाने की वजह से जान दे दी, उनकी हाय से नरेंद्र भाई कैसे बचेंगे? होते-सोते भी जो अपनी बहन-बेटियों के हाथ पीले नहीं कर पाए, उनके आसुओं का तेज़ाब नरेंद्र भाई के चेहरे पर धब्बे कैसे नहीं छोड़ेगा? जिन लाखों लोगों के हाथों से नोटबंदी के बाद काम छिन गया, उनके परिवारों के भूखे पेट नरेंद्र भाई की सलामती का कौन-सा भजन गा रहे होंगे? बोहनी के इंतज़ार में सारा-सारा दिन गुज़ार देने वाले दुकानदारों की बद्दुआओं से नरेंद्र भाई को मुंबई के बांद्रा में पाली हिल्स की पचास अरब रुपए वाली इमारत बचाएगी या अहमदाबाद के एसजी रोड का शांतिवन हाउस?
मुझे नहीं लगता, लेकिन अगर नरेंद्र भाई अपनी आत्मा को अब भी अपने हाथों से धोना चाहें तो उन्हें नोटबंदी की अपनी ग़लती मान लेनी चाहिए। उन्हें हाथ जोड़ कर देश से माफ़ी मांग लेनी चाहिए। मगर अगर उनकी जन्म-कुंडली में ऐसा कोई भाव जनम से होता तो उन्हें हमने कई बार क्षमा मांगते देखा होता। आख़िरकार उन्होंने यह कोई पहला काम तो किया नहीं है, जिसके लिए उन्हें क्षमा मांगनी चाहिए। हम ग़लतियों के लिए क्षमा मांगने का अनुरोध उनसे ही तो करते हैं, जो इतने समर्थ हैं कि उनके दोषों के लिए हम उन्हें सज़ा देने की हैसियत ही नहीं रखते हैं। वरना तो नरेंद्र भाई क्षमा के अधिकारी नहीं, दंड के भागी हैं। पर चूंकि हम बुद्ध, महावीर और गांधी का जाप करते-करते बड़े हुए हैं, इसलिए मैं तो नरेंद्र भाई से यही गुज़ारिश कर सकता हूं कि वे अपनी आत्मा को थोड़ी देर भिगो कर रखें ताकि ज़िद्दी दाग़ दूर हो जाएं। फिर वे इस देश को रगड़ने के बजाय अपनी आत्मा को रगड़ें, इस देश को निचोड़ने के बजाय अपनी आत्मा को निचोड़ें और फिर उसे सूखने के लिए कुछ देर इस देश के जन-मानस की धूप में टांग दें। ईश्वर ने चाहा तो इसके बाद नरेंद्र भाई को भी शांति मिलेगी और इस देश को भी गहरा सुकून मिलेगा।
मैं खूब जानता हूं कि मेरा यह सपना पूरा होने वाला नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है कि अभी तो भारतवासियों को और भी बहुत कुछ झेलना है। यह पहली बार है कि भारत में चील-दृष्टि वाली एक ऐसी सरकार बनी है, जिसकी निगाह से कोई नहीं बच सकता। जब करवा चौथ और होली-दीवाली की दशकों से जमा मां-बहनों की पूंजी इस निगा़ह से नहीं बच सकी तो रिज़र्व बैंक की जमा-पूंजी को ही कौन-सा नज़रबट्टू इस निग़ाह से बचा लेगा? पोटली भींच कर बगल में दबाए घूम रहे रिज़र्व बैंक के गवर्नर को या तो अपनी गठरी अंततः सेंधमारों के हवाले करनी पड़ेगी या देर-सबेर ‘चल खुसरो घर आपने’ गुनगुनाना पड़ेगा। जिन्हें देश की नहीं, अपने कबीले की अर्थव्यवस्था से लेना-देना होता है, वे ऐसे ही बेमुरव्वत होते हैं कि पसीने से अर्जित दूसरों की संदूकची ज़ोर-जबरदस्ती से हड़पने में एक क्षण भी न गंवाएं।
यह तो गनीमत है कि सभ्यताओं का इतिहास बहुत लंबा होता है। तमाम उत्थान-पतन के बावजूद उसमें अपने आधारभूत मूल्यों को सुरक्षित रखने की क्षमता होती है। एक नरेंद्र भाई के किए-धरे से यह बुनियाद बर्बाद होने वाली होती तो कभी की हो गई होती। लेकिन मुद्दे की बात यह है कि हम एक ऐसे प्रधानमंत्री के राज में, पता नहीं कितने दिन और बिताने को अभिशप्त हैं, जिसने हमारी परंपराओं की सदियों से पली-बढ़ी हर जड़ में मट्ठा डालने में कोई कसर बाकी नहीं रखने की ठान रखी है। नरेंद्र भाई आश्वस्त हैं कि वे सृजन कर रहे हैं, मगर उन्हें यह भान ही नहीं है कि विचार और संवेदना की गहराई को मापे बिना सृजन का बीड़ा उठाना मुमकिन ही नहीं है। बाकी सबको नीचा दिखाने की भावना से, बाकी सबको अपना मातहत समझने के अहंकार से और बाकी सबको अपने ठेंगे पर रखने की ऐंठ से सृजन नहीं, विनाश होता है। पिछले साढे चार साल से इसीलिए भारत विनाश-मार्ग पर लुढ़क रहा है। इस ढलान पर रपटते-रपटते हम कहां पहुंचेंगे, कौन जाने!
भारत का मुक्ति-मार्ग अब सिर्फ़ एक है। यह व्यक्ति से नहीं, प्रवृत्ति से मुक्ति का मार्ग है। भारतीय जनतंत्र में पनपी एकाधिकार की ताजा प्रवृत्ति से मुक्ति के मार्ग पर अगर हम खुद नहीं बढ़ेंगे तो कोई शक्ति हमारा उद्धार नहीं कर पाएगी। नरेंद्र भाई ने तो हमें अच्छे दिनों के आने की उम्मीद दिखा कर हमारे सुखों को वहां टांग दिया है, जहां तक हमारे हाथ पहुंचते ही नहीं हैं। इसलिए अपना उजाला तो अपने नन्हे हाथों से हमें खुद ही हासिल करना होगा। बिना आंखें खोले हम इस उजाले को कैसे देखेंगे? और, अगर इतना सब हो
जाने पर भी हमारी आंखें नहीं खुलेंगी तो फिर कब खुलेंगी?
जाने पर भी हमारी आंखें नहीं खुलेंगी तो फिर कब खुलेंगी?
तकिए के नीचे ख़्वाब सजाए रखने का वक़्त अब गया। रुक कर इंतज़ार करने का वक़्त अब गया। अब तो ऐड़ लगाने का समय है। इन सर्दियों के आते-आते शुरू हुआ यह समय अगले साल की गर्मियां आते-आते चला जाएगा। जो इस समय का सदुपयोग करेंगे, भारतीय लोकतंत्र का नया ऋग्वेद लिखेंगे। जो नहीं करेंगे, बाद में अपनी छाती पीटेंगे। सवाल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस का नहीं है। सवाल नरेंद्र भाई और राहुल गांधी का नहीं है। सवाल इस-उस की तरफ़दारी और मुख़ालिफ़त का नहीं है। सवाल तो इस बात का है कि जब लपटें धू-धू कर रही हों तो हम अपने-अपने फव्वारे ले कर बाहर निकलेंगे कि नहीं निकलेंगे!
(लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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