मैं इस बीच, पूरे एक पखवाड़े, मध्यप्रदेश के घनघोर आदिवासी इलाक़ों में भी था और कारोबारी महानगरीय इलाक़ों में भी। पांच विधानसभाओं के लिए हो रहे इन चुनावों को अगले बरस के आम चुनावों की परछाईं माना जा रहा है और वे हैं भी। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी और उनके कठपुतले भाजपा-अध्यक्ष अमित भाई अनिलचंद्र शाह की नींद ग़ायब है। मैं मध्यप्रदेश के 18 विधानसभा क्षेत्रों में गांव-गांव, जंगल-जंगल और मॉल-मॉल घूमा। हवा में जो सनसनी है, वह भारतीय जनता पार्टी के परखच्चे बिखेर देने वाली है। अगर हर चुनाव का अंतिम अध्याय, सारे दंद-फंद अपना कर, अपने हिसाब से लिखने की महारत रखने वाले गुरू-चेले के हथकंडों से कांग्रेस निबट सकी तो कुम्हला गए कमल के फूलों से परेशान भोपाल के तालाब का पानी पंद्रह बरस बाद इस दिसंबर के दूसरे हफ़्ते में पूरी तरह बदल जाएगा।
मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में लोकसभा की 83 और विधानसभा की कुल 679 सीटें हैं। मेरा आकलन है कि पांचों राज्यों में इस बार भाजपा और उसके सहयोगी दलों की जीत का आंकड़ा महज़ 200 सीटों के आसपास रहने वाला है। सो, विधानसभाओं के इन चुनावों में यह संकेत गहराई से छिपा है कि अगले साल की गर्मियों में भाजपा इन पांच राज्यों में लोकसभा की 20 सीटें भी हासिल करने के लिए अपनी ऐड़ियां रगड़ रही होगी। अभी सहयोगी दलों के साथ इन प्रदेशों में वह लोकसभा की 72 सीटों पर काबिज़ है। सो, 2019 के आम चुनाव में नरेंद्र भाई के 50 सांसद तो इन पांच प्रदेशों में ही हाथ से चले जाएंगे। ज़ाहिर है कि इस अहसास ने उनके हाथ-पांव फुला दिए हैं और चुनावी जनसभाओं में उनकी ज़ुबानी भाषा और शारीरिक भंगिमा सुन-देख कर उनके अपने लोग भी ज़ोरों से माथा पीट रहे हैं।
मुझे चिंता इस बात की है कि नरेंद्र भाई की छटपटाहट का अगर अभी से ही यह आलम है कि वे पूरी तरह भूल गए हैं कि वे भारत के प्रधानमंत्री भी हैं तो जब लोकसभा चुनाव की लू चलेगी तब वे क्या करेंगे? मुट्ठी से फिसलती सियासी रेत अगर उन्हें अभी इतना बेचैन कर रही है तो चार-पांच महीने बाद तो उनका छाती पीटना देख देश अपना सिर पीटने लगेगा। सरकारें तो बहुत आई-गईं, मगर उनके आते-जाते वक़्त एक प्रधानमंत्री को पहले ऐसा मस्त-मस्त और फिर ऐसा पस्त-पस्त क्या आपने कभी देखा था? इसीलिए बुज़ुर्ग कहा करते हैं कि वे बिरले ही होते हैं, जो सत्ता के अंतःपुर में बौराते नहीं हैं और सिंहासन जाते देख पगलाते नहीं हैं।
नरेंद्र भाई और उनकी आंख के एक इशारे पर काम करने वाले अमित भाई अगर जानबूझ कर यह नहीं भूलते कि भाजपा का विस्तार किसी राजनीतिक लठैत की तुर्रेदार मूंछों की वजह से नहीं, एक कवि-हृदय की थोड़ी उदारवादी छवि के कारण हुआ था तो साढ़े चार साल के भीतर-भीतर भाजपा इतनी बेतरह तहस-नहस नहीं होती। आंखों पर पड़ा परदा उठा कर चूंकि कोई कुछ देखना नहीं चाहता, इसलिए मोदी-शाह मंडली को मध्यप्रदेश के जंगल-जंगल चल रही इस बात का पता ही नहीं है कि चड्डी पहन कर जो फूल खिला था, वह कभी का मुरझा चुका है। आदिवासियों के, किसानों के, कारोबारियों के, नौजवानों के और सरकारी कर्मचारियों के नथुने जिस तरह फड़कते मैंने मध्यप्रदेश के अपने दौरे में देखे हैं, उसके बाद मुझे तो नहीं लगता कि कोई भी जादू-टोना भोपाल को फिर ‘शव-राज’ की गोद में डाल सकता है।
राजस्थान में वसुंधरा राजे के दिन लदने के संकेत तो बहुत पहले से आने लगे थे। लेकिन जिस तरह मध्यप्रदेश ने शिवराज सिंह चौहान के और छत्तीसगढ़ ने रमन सिंह के ख़िलाफ़ करवट ली है, उससे भारतीय लोकतंत्र की अंतर्निहित सकारात्मकता पर आपका विश्वास भी और मजबूत ही हुआ होगा। रही-सही कसर तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव के उखड़ते पैरों ने पूरी कर दी है। क्या आप यह देख कर गदगद नहीं हैं कि हमारे जनतंत्र के पास उस हर टोटके की काट मौजूद है, जो उसे बांधने के लिए किया जाता है? जब-जब लगता है कि सब के हाथ बंधे हैं और अब पांवों की ज़ंजीरें कौन खोलेगा, मतदाताओं के मन से एक अदृश्य बगूला उठता है और सारी ज़ंजीरें टूट कर बिखर जाती हैं। पांच प्रदेशेम के चुनावों में जिन्हें खुली आंखों से भी यह बगूला दिखाई नहीं दे रहा है, उन्हें दिसंबर के दूसरे मंगलवार को नतीजों के पवन-सुत बंद आंखों से भी दिखाई देंगे।
उत्तर, दक्षिण और पूर्व दिशाओं से उठ रही ये चिनगारियां इसलिए सुखद हैं कि उन्होंने न्यूनतम बीस साल के लिए टस-से-मस न होने का ऐलान करने वालों के छक्के अभी से छुड़ा दिए हैं। हमारी अवामी-दिलरुबा की यही बात तो बार-बार देखने वाली है कि जिस-जिसने उसे अपनी जागीर समझने की भूल की, उस-उस को उसने ऐसी लात जमाई कि सारे जाले साफ कर डाले। लगता किसी को कुछ भी हो, मगर हमारी जम्हूरियत न जयकारों से प्रभावित होती है, न जुमलों से। वह न वंदन की मोहताज है, न अभिनंदन की। उसे नेकनीयती और फ़रेब में फ़र्क़ करना भी ख़ूब आता है। जब हम कहते हैं कि हमारा देश भगवान भरोसे चलता है तो इसीलिए कहते हैं कि जब हमारे सारे भरोसे ढहने लगते हैं तो पता नहीं कैसे ऐसा कुछ होता है कि हम अपने संकटों से बाहर की तरफ़ ख़ुद-ब-ख़ुद बहने लगते हैं। यह वही मौक़ा है।
मैं मतदाताओं की जैसी भावनात्मक जागरूकता इन चुनावों में देख रहा हूं, कम में देखी है। जिस एकाग्रता से वे अपनी खुरपी ले कर भाजपा की गाजर-घास छील रहे हैं, वैसा कम होता है। जिस तल्लीनता से वे नई फ़सल रोपने के लिए गुड़ाई कर रहे हैं, वह अद्भुत है। जितने मग्न वे इस बार हैं, उतने कभी-कभार ही होते हैं। चालाकी भरे तर्कों को मतदाता नकार रहे हैं। राजनीति के लिए धर्म को विकृत करने के प्रयासों को वे नकार रहे हैं। सच के साथ होते छल से वे नाराज़ हैं।
लोग तो मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में कांग्रेस के पीछे खड़े होने को बहुत पहले से तैयार थे, लेकिन वे इंतज़ार कर रहे थे कि कांग्रेस तो उनके आगे खड़ी हो। राहुल गांधी ने पिछले कुछ समय में कांग्रेस की मुट्ठियां जिस तरह तान दी हैं, मैं आश्वस्त हूं कि पांच प्रदेशों में हो रहा क़लम-दवात पूजन आने वाले दिनों में पूरे देश में होने वाली पट्टी-पूजा का आगाज़ है। जो इस हवा को पढ़ना चाहते हैं, पढ़ें। जिन्हें इतना अक्षर-ज्ञान नहीं है कि इस इबारत की अहमियत समझें, वे जो चाहें, करें। असलियत यही है कि तीन दिशाओं में बसे पांच राज्यों में एक नया सियासी सूरज आकार ले चुका है। लेकिन जो आंखें खोलने को ही तैयार न हों, उजाला उनका क्या करे! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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