इससे क्या कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ऐसे तमाम बुनियादी मोर्चों पर नाकाम हो गए, जिनसे किसी भी राष्ट्र का निर्माण होता है; उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा तो ‘मां नर्मदा की पावन पवित्र धरा के किनारे’ स्थापित कर के दिखा ही दी। साढ़े चार साल में कोई प्रधानमंत्री और कितना कर के दिखाए? सो, भी ऐसे देश में जहां उनके पहले किसी ने कुछ किया ही न हो! इस एक काम से, एक सपाटे में, नरेंद्र भाई ने चीन को पीछे छोड़ दिया और अमेरिका से तो दुगना आगे निकल गए। वरना अब तक चीन दुनिया के सबसे ऊंचे स्प्रिंग टेंपल पर इतरा रहा था। अमेरिका का स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी तो हमारे स्टैच्यू ऑफ यूनिटी से अब आधी ऊंचाई का ही रह गया है।
जो मूढ़ अब भी सोचते हैं कि देशों की ऊंचाई इस बात से तय होती है कि वहां का आम जन-जीवन कितना ख़ुशहाल है, कि वहां की अर्थ-क्यारियां कितनी हरी-भरी हैं, कि वहां की नारियां अपने को कितना महफूज़ महसूस करती हैं, कि वहां के किसानों के गाल कितने गुलाबी हैं, कि वहां के नौजवानों के हाथ कितने कमेरे हैं, कि वहां खुल कर सही बात कहने की कितनी आज़ादी है, कि वहां के केंद्रीय बैंक जैसी नियामक संस्थाएं अपना काम बिना दबाव के कर पाती है या नहीं, कि वहां की न्यायपालिका के खेवनहार कोई घुटन तो महसूस नहीं करते, कि कुल मिला कर वहां जनतंत्र की जड़ों को किसी कतर-ब्यौंत से तो दो-चार नहीं होना पड़ता है; वे अपने को जितनी जल्दी नई परिभाषाओं में ढाल लें, उन्हीं के लिए बेहतर है।
सरदार वल्लभ भाई पटेल का योगदान किस भारतवासी को नहीं मालूम? उनकी एक नहीं, असंख्य प्रतिमाएं लगें तो किसी को क्या एतराज़ हो सकता है? लेकिन नरेंद्र भाई को लगता है कि उनके आने के पहले देश सरदार पटेल को जानता ही नहीं था और जब तक वे आकाश में सूराख करने वाली उनकी एक प्रतिमा स्थापित नहीं करेंगे, भारत मानेगा ही नहीं कि सरदार पटेल भी कुछ थे! सो, तीन साल नौ महीने में क़रीब तीन अरब रुपए खर्च कर के उन्होंने हमें यह सौगात दे डाली। नरेंद्र भाई पिछले साढ़े चार बरस से हमारे देश को अपने मन की बातें मनवाने में ही तो लगे हुए हैं। इसलिए जब तक एक-एक देशवासी यह मान नहीं जाएगा कि नरेंद्र भाई हैं तो सब-कुछ है, वरना भारत ठन-ठन गोपाल है, तब तक नरेंद्र भाई चैन से नहीं बैठने वाले।
पटेल की मूर्ति का अनावरण करने गए अपने प्रधानमंत्री के चेहरे पर चस्पा उपलब्धि-पुंज को देख कर मेरी आत्मा गदगद थी। कहां सरदार पटेल की प्रतिमा-परिसर में नरेंद्र भाई की पराक्रमी परिक्रमा और कहां उस प्रतिमा के वहीं मौजूद शिल्पकार राम सुतार की गरिमामयी विनम्र देहभाषा? सुतार पिता-पुत्र के चेहरों पर मूर्तिकला के यज्ञ में अपनी तरफ से एक और आहुति अर्पित करने का संतोष तैर रहा था और हमारे प्रधानमंत्री के चेहरे से ‘कर के दिखा देने’ का दर्प टपक रहा था। उन्होंने कहा: ‘‘यह हमारे राष्ट्र के इतिहास में पूर्णता का अहसास कराने वाला पल है। एक विराट व्यक्तित्व को उचित स्थान देने का पल है। एक अधूरा पल ले कर आज़ादी के बाद से अब तक हम चल रहे थे।...’’ अगर आप चाहते हैं कि भारत जैसे महान देश के अधूरेपन को भर देने के बाद भी एक प्रधानमंत्री इठलाता न घूमे तो, आप भले करें, मैं तो यह ज़्यादती नरेंद्र भाई के साथ नहीं कर सकता। वे उस दौर के नहीं हैं, जब हमारे पुरखे ख़ामोशी से नेकी दरिया में डाल आते थे। वे उस दौर के हैं जब नेकी करो, मत करो, चीख-चीख कर अपनी नेकी के किस्से सुनाने का दस्तूर है।
अपने भाषण में नरेंद्र भाई ने हमें बताया कि किस तरह पूरे आठ साल पहले उन्होंने सरदार पटेल की इस विराट मूर्ति की परिकल्पना की थी। उन्होंने कहाः ‘‘लेकिन तब मुझे अहसास नहीं था कि मुख्यमंत्री के तौर पर मैं जो परिकल्पना कर रहा हूं, एक दिन मुझे ही प्रधानमंत्री के तौर पर उसका लोकार्पण करने का मौक़ा मिलेगा।’’ तो इस बुधवार जब ‘‘धरती से ले कर आसमान तक सरदार साहब का अभिषेक’’ हो रहा था तो ज़ाहिर है कि नरेंद्र भाई ‘‘खुद को धन्य’’ मान रहे थे। मुझे नहीं मालूम कि और कौन-कौन अपने को धन्य मान रहा था? मुझे तो लगता है कि पूरा भारत अपने को तब से धन्य मान रहा है, जब सरदार पटेल ने 582 रियासतों का विलय करा कर एक मजबूत गणराज्य हमारी गोद में डाला था।
उस सुबह अगर ‘‘जी भर कर बहुत कुछ कहने का मन कर रहा’’ था तो इसमें नरेंद्र भाई की क्या ग़लती? सो, उन्होंने हमें इस बात का श्रेय दिया कि ‘‘आपकी भारत-भक्ति के बल पर ही हज़ारों साल से हमारी सभ्यता फल-फूल रही है।’’ अपने प्रधानमंत्री की इस उदारता ने उन्हें मेरे रोम-रोम में बसा दिया है। वरना पिछले साढ़े चार साल में हम सब के कान तो नरेंद्र भाई ने यह कह-कह कर पका रखे थे कि उनके आगमन से पहले तो सब अंधी गुफा में छाल लपेटे पड़े थे।
अपने भाषण में प्रधानमंत्री बोले कि देश का विश्वास और सामर्थ्य आज शिखर पर पहुंच गया है, कि दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा हमारे साहस और संकल्प की याद दिलाती रहेगी, कि यह प्रतिमा नए भारत के नए आत्मविश्वास का प्रतीक है। प्रधानमंत्री ने बताया कि किस तरह पिछले चार साल से उन्होंने देश के नायकों को याद करने का ‘एक नया अभियान’ शुरू कर रखा है। उन्होंने चेतावनी-मुद्रा में कहा कि लेकिन देश में ही कुछ लोग हमारी इस मुहीम को राजनीतिक चश्मे से देखने का ‘दुस्साहस’ करते हैं। उन्होंने अपने जाने-पहचाने अंदाज़ में लोगों से पूछा भी कि ‘‘क्या सरदार पटेल की प्रतिमा स्थापित कर मैं ने कोई अपराध किया है क्या?’’
नरेंद्र भाई ने एक अद्भुत बात और कही। अपनी रियासतों का विलय कर देने वाले राजे-रजवाड़ों का महिमा-गान करते हुए उन्होंने हमें बताया कि आज जब लोकतंत्र में निर्वाचित एक सरपंच तक अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं होता है, ऐसे में बरसों-बरस का अपना राजपाट छोड़ देना कितना बड़ा त्याग रहा होगा! राजा-महाराजाओं के इस फ़कीराना मिजाज़ पर तो सचमुच अब तक हम में से किसी का भी ध्यान नहीं गया था। वे अगर अपनी रियासतों के विलय को तैयार नहीं होते तो सरदार पटेल भी उनका क्या कर लेते? फिर हम कच्छ से कोहिमा तक और करगिल से कन्याकुमारी तक बिना वीज़ा कैसे घूमते?
प्रधानमंत्री निराशावादियों पर अपने प्रहारों का पसंदीदा हथौड़ा चलाने से भी नहीं चूके। भला आशाओं से भरे-पूरे देश में निराशा का क्या काम? इन्हीं आशाओं को जगा कर तो नरेंद्र भाई साढ़े चार साल पहले लालकिला पहुंचे हैं। 2014 में उनके दिखाए चने के झाड़ पर अगर हम सब न चढ़ गए होते तो कमल कहां से लहलहाता? अब लोकसभा चुनावों के छह महीने पहले अगर आप आशाओं की चीर-फाड़ का निराशावादी काम करेंगे तो क्या नरेंद्र भाई करने देंगे? तबाही कर के भी अपने ढोल-ताशे बजाते रहने की ढीठता बिरलों में ही होती है। इसलिए भले ही राजा अपनी प्रजा से खो-खो खेलता रहे, प्रजा का कर्तव्य है कि राजा के बिरलेपन को अपना धन्य-भाग्य समझे। जो न समझे, वह निराशावादी! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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