विधानसभा चुनावों के नतीजे आने से एक पखवाड़े पहले, 24 नवंबर को, अपने इस स्तंभ में मैं ने लिखा था कि मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा की 679 सीटों में से इस बार भारतीय जनता पार्टी 200 का आंकड़ा पार नहीं कर पाएगी। वही हुआ। मैं ने यह भी लिखा था कि इस हालात में जब अगले बरस आम-चुनाव होंगे तो इन पांच राज्यों में मौजूद लोकसभा की 83 सीटों में से भाजपा 20 भी हासिल करने के लिए ऐड़ियां रगड़ रही होगी। चार महीने बाद सियासी-परदे पर यह दृष्य देखने के लिए भी आप तैयार रहिए। चुनावों नतीजों का ऐरावत दिल्ली की तरफ़ चल दिया है।
पांच राज्यों की चुनाव-टोपी से बाहर निकले खरगोश का आकलन सब अपने-अपने हिसाब से कर रहे हैं। लेकिन अगर कोई यह सोच रहा हो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी और भाजपा-अध्यक्ष अमित भाई शाह ने युद्ध के नियमों का पालन करने में अपनी जी-जान झोंक रखी थी तो वह ग़लत है। भाजपा-शासित राज्यों को अपनी ही गठरी में बांधे रखने के लिए सूबेदारों ने सब-कुछ किया। ईवीएम जगह-जगह अपना खेल दिखाती रहीं। प्रशासनिक अमले ने अपने सियासी-आकाओं के इशारे पर चित-पट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चुनावी डांस-बार में बरसते भाजपा के नोटों ने नोटबंदी की धज्जियां बिखेर दीं। चुनावी भाषणों के ज़रिए मोदी-शाह की भट्टी ने आग की वे लपटें लपकाईं, जो सामाजिक सद्भाव को लील लेने और निजी दामनों को अमिट धब्बों से सान देने का माद्दा रखती हैं।
ये नतीजे इस सब के बावजूद आए हैं कि पांच में से तीन राज्यों में भाजपा की सरकारें लौट नहीं पाईं। बाकी दो राज्यों में उसकी उपस्थिति दूर-दूर तक है नहीं। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मत-कुरुक्षेत्र में भाजपा के पचासों मंत्री टपटप गिर गए। ऐसे-ऐसे दिग्गज हारे कि मोदी-शाह को बहुत दिनों तक अपनी ठोड़ी खुजानी पड़ेगी। अपने को सामाजिक ताने-बाने बुनने-बिगाड़ने में माहिर मानने वाली भाजपा की सारी अभियांत्रिकी इन चुनावों में धरी रह गई। देश की हृदयस्थली के तीन प्रदेशों के आदिवासी इलाक़ों में संघ के स्वयंसेवकों ने पिछले कई बरस तरह-तरह के पापड़ बेल कर भाजपा की जड़ें जमाई थीं। इस चुनाव के मट्ठे में वे आधी से ज्यादा साफ़ हो गईं। मध्यप्रदेश के घनघोर आदिवासी इलाक़े धार-झाबुआ-अलीराजपुर में तो मोदी-शाह-योगी की जनसभाओं के बावजूद 12 में से 10 सीटों पर भाजपा हार गई। छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों ने भी भाजपा को सिरे से नकार दिया।
देश के अलग-अलग हिस्सों में दलितों के गाल भाजपा के तमाचों से वैसे ही इतने लाल हो चुके थे कि विधानसभाओं के इस चुनाव पर उसका असर न दिखता तो ताज्जुब होता। मुस्लिम-समुदाय से संगम की भाजपा की दिखावटी ख़्वाहिश भी इतनी बदनाम हो चुकी है कि उसे तीन बार ‘नहीं, नहीं, नहीं’ का जवाब इस बार की चुनावी-राधा से मिलना ही था। छत्तीसगढ़ में भाजपा ने एक भी मुस्लिम को अपना प्रत्याशी नहीं बनाया था, लेकिन मध्यप्रदेश और राजस्थान में उसने एक-एक मुस्लिम प्रत्याशी उतारने की उदारता दिखाई थी। दोनों ही हार गए। अब तक माना जाता था कि भाजपा मुस्लिमों को उम्मीदवार बनाने से बचती है। अब हालात यह हो गए हैं कि मुस्लिम भाजपा का उम्मीदवार बनने से बचेंगे। 2019 में वे उसे ढूंढे नहीं मिलेंगे।
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के नतीजों को शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और वसुंधरा राजे से असंतोष का प्रतिफल भर मानने की चालाकी दिखा रहे भाजपाइयों को ईश्वर सद्बुद्धि दे। ये नतीजे नरेंद्र भाई और अमित भाई की दोहरी-हेकड़ी का अस्वीकार हैं। ये देश के बुनियादी संस्थानों पर कब्जे और उनके दुरुपयोग की अस्वीकृति हैं। ये नोटबंदी की तालठोकू नामंजूरी हैं। ये जीएसटी लागू करने के तरीके को ठेंगा हैं। ये राष्ट्रवाद की संघी-परिभाषा का नकार हैं। ये हिंदुत्व को अपनी सियासत का हथियार बनाने की करतूत के खि़लाफ़ फ़ैसला हैं। ये नतीजे बताते हैं कि मतदाताओं को हथेली-पर-हथेली मार कर असहमतियों की खिल्ली उड़ाने वाला प्रधानमंत्री नहीं चाहिए। ये नतीजे बताते हैं कि उन्हें जनसभाओं में ‘ओए-ओए’ चिल्ला कर अपनी फूहड़ अक्खड़ता दिखाने वाला भाजपा-अध्यक्ष नहीं चाहिए।
ये नतीजे यह भी साफ़ करते हैं कि राजस्थान के सिंहासन पर ऐंठ कर बैठने वालों-वालियों को वहां के लोग बरदाश्त नहीं करते। इन नतीजों से यह भी साफ होता है कि मामा बन कर घूमने से ही मध्यप्रदेश पर कोई राज नहीं कर सकता। ये नतीजे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ के छत्तीसों गढ़ों में राजा नहीं, प्रजा अंतिम फ़ैसला करती है। तीन प्रदेशों से आई हवा के संकेत हैं कि हद दर्ज़े के कुराज, हर हद पार कर गए भ्रष्टाचार और बुनियादी मुद्दों की अवहेलना से उपजा गुस्सा न तो किसी हेकड़ हुक्मरान के डर से दबता है और न किसी विनम्र देहभाषा-धारी के झक्कू से। यही वजह है कि वसुंधरा को भी मतदाताओं ने ठिकाने लगा दिया और षिवराज सिंह-रमन सिंह को भी नहीं बख्शा। ऐसे में जब देश की बारी आएगी तो मतदाता मोदी-शाह को कैसे छोड़ देंगे?
इसीलिए राहुल गांधी ने कहा है कि उन्होंने नरेंद्र भाई से यह सीखा है कि क्या-क्या नहीं करना चाहिए। सीख का यह ताबीज़ अपनी बांह पर बांध कर राहुल ने वह कवच धारण कर लिया है, जो उन्हें हर चक्रव्यूह-भेदन में सुरक्षित रखेगा। विधानसभाओं के चुनाव नतीजों ने राहुल की ज़िम्मेदारियां और बढ़ा दी हैं। उन्हें अपने अगलियों-बगलियों को विजयी-भंगेड़ी बनने से रोकना होगा। राहुल को अपने कनखजूरों के चंगुल से और तेज़ी से बाहर आना होगा। उन्हें अपनी व्यवस्था को कारकूनी और दरबानी प्रवृत्ति से मुक्त करना होगा। सपने बिखरने से बेतरह आहत लोगों के भाजपा-नकार को कांग्रेस की सकारात्मक शक्ति बनाने का काम शुरू करने का असली वक़्त तो राहुल के लिए अब आया है। यह चुनाव नतीजा सरकारें तो बनवा देगा, मगर पार्टी का बुनियादी संगठन तो राहुल को खुद ही बनाना होगा। यह व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के रथ पर सवार, अपने क्षुद्र स्वार्थ साधने की ताक में लगे और आसपास घेरा डाले बैठे नचनियों के भरोसे नहीं होगा। मोदी-शाह से जनतंत्र को मुक्त कराने के लिए 2019 में जो संग्राम राहुल को लड़ना है, उसके घुड़सवारों के चयन पर ही सारा दारामेदार है।
राजस्थानी झंझावात इतनी धूल न उड़ाता तो कांग्रेस की इस जीत से ज़्यादा गरिमामयी धुन बिखरती। बावजूद इसके राहुल ने तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों के चयन में अपना राजनीतिक-कौशल दिखाया। चुनाव नतीजों से उपजी तात्कालिक ऊर्जा को वे कांग्रेस के दीर्घकालीन हित में ठीक से प्रवाहित करने में क़ामयाब रहे। आने वाले दिनों में उन्हें और भी ऊबड़-खाबड़ राह पर चलना है। कांग्रेस के संगठन की राष्ट्रीय स्तर पर नए सिरे से संरचना करनी है और प्रदेशों में संगठन को नए चेहरे देने हैं। आम-चुनाव के लिए उम्मीदवारों को चुनते वक़्त नेताओं की आपसी खींचतान को संतुलित करना है। नरेंद्र भाई और अमित भाई 2019 का मैदान किसी के भी लिए ऐसे ही खाली नहीं छोड़ देंगे। इसलिए राहुल को अभी उनके गढ़े और लगातार तीखे होने वाले हर हमले का सामना भी करना है। यह काम सिर्फ़ सियासी-बिलबोर्ड के सितारे बन बैठे चेहरों के भरोसे नहीं होगा। इसके लिए तो ऐसा म्यूज़िक-बैंड बनाना होगा, जिसे भारत के असली लोकगीतों की समझ हो। मैं समझता हूं कि पिछले साढ़े चार साल ने राहुल में इतनी समझ उंड़ेल दी है कि अगले साढ़े चार महीने वे अपना हर क़दम फूंक-फूंक कर रखेंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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