छह महीने में हुआ राहुल गांधी का रूपांतरण कुछ लोगों के लिए कल्पनातीत है। लेकिन पिछले कम-से-कम आठ साल से, और ख़ासकर पिछले साढ़े चार साल में, मैं ने बार-बार लिखा कि एक दिन आएगा कि राहुल गांधी सब को आंखें फाड़ कर उनकी तरफ़ देखने को मज़बूर कर देंगे। आज उन्हें देख कर सब अपनी आंखें मसल रहे हैं। उनके सियासी-विरोधी हक्काबक्का हैं। हर रोज़ फ़तवा जारी करने वाले मीडिया-पंडे चारों खाने चित्त हैं। कांग्रेस का वह तबका सुट्ट बैठा है, जिसने राहुल-राज की आंगनवाड़ी शुरू होते ही लोकसभा में 44 पर पहुंच गए आंकड़े के बाद अपनी पार्टी के पिंडदान का ऐलान कर दिया था।
एक-एक डग भर कर राहुल आखिर अपनी संभावनाओं के उस मानसरोवर तक पहुंच ही गए, जिसके अभिमंत्रित जल के छिड़काव ने उनके बारे में तो देश की राय बदल ही दी है, हमारे ‘हिंदू हृदय सम्राट’ प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी की चालीसा के छंद भी नए सिरे से लिख दिए हैं। सब को च्यूंटी में मसल देने का पराक्रम दिखा रहे हाथी की सूंड में अंततः चींटी के घुस जाने का यह दृश्य भारतीय जनतंत्र के अब तक के इतिहास का सब से जीवंत नज़ारा है।
पांच प्रदेशों के लिए हो रहे विधानसभा चुनावों में दिखे राहुल के जज़्बे ने कांग्रेस की शिराओं में नई घुट्टी घोल दी है। नरेंद्र भाई की कनखियों के इशारे पर अमित भाई शाह के हस्ताक्षरों से चल रही भारतीय जनता पार्टी की नसें ढीली पड़ गई हैं। हथेली पर हथेली मार कर दूसरों की खिल्ली उड़ाने वाली जुगल-जोड़ी अपनी फ़ज़ीहत का अट्टहास दिनों-दिन नज़दीक आता देख रही है। पूरे दस दिन बाद ईवीएम से पांच राज्यों में जो घर्घर नाद सुनाई देगा, वह अगर अगले साल अप्रैल-मई का क़ौमी-तराना बन गया तो नरेंद्र भाई झोला ले कर अपने घर जा रहे होंगे।
सियासत के ये बांस उलटे लदने ऐसे ही शुरू नहीं हो गए हैं। मैं जानता हूं कि मेरा यह कहना कइयों को नागवार गुज़रेगा कि अगर राहुल गांधी न होते तो चार बरस बीतते-बीतते नरेंद्र भाई का वापसी-सफ़र शुरू नहीं हो पाता। राहुल का सब से बड़ा योगदान यह है कि वे डटे रहे। वे डिगे नहीं। न परायों के मखौल की उन्होंने परवाह की और न अपनों की अवहेलना से वे विचलित हुए। इसलिए आज कांग्रेस की प्राण-प्रतिष्ठा का श्रेय अगर सोनिया गांधी के बाद किसी को है तो राहुल गांधी को। उनकी इस कुव्वत पर ज़्यादातर को भरोसा नहीं था। मगर अपनी बेलौसी और बेबाकी से राहुल ने यह कर दिखाया।
मैं यह मान कर चल रहा हूं कि विधानसभाओं के आने वाले नतीजे कांग्रेस को पुनर्स्थापित करेंगे। मैं यह भी मान कर चल रहा हूं कि लोकसभा के चुनावों में केंद्र में कांग्रेस-समर्थित सरकार बनने जा रही है। राहुल अभी प्रधानमंत्री बनेंगे या नहीं, इससे बड़ा सवाल दूसरा है। सवाल यह है कि कांग्रेस की जड़ों को सींचने का काम वे आगे कैसे करेंगे! मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से भाजपा की विदाई हो रही है या वहां कांग्रेस की वापसी हो रही है? तैलंगाना में भाजपा के सहयोगी दल के दिन पूरे हो रहे हैं या कांग्रेस के दिन वापस आ रहे हैं? कांग्रेस आ रही है, लेकिन उससे ज़्यादा तेज़ी से भाजपा दिलों से उतरती जा रही है। आने वाले दिनों में राहुल को कांग्रेसी खेत में हल उससे भी ज़्यादा शिद्दत से चलाना होगा, जितनी निष्ठा से उन्होंने इन दिनों ‘चौकीदार’ का नक़ाब नोच कर उसे लाइन-हाज़िर करने की मुहिम चला रखी है।
सांगठनिक सियासत की शुरुआती भूलों के अहसास ने राहुल की परिपक्वता में आमूल-चूल बदलाव ला दिया है। विधानसभाओं के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार तय करने की प्रक्रिया में इस बार जिसके पास लाठी थी, भैंस उसी की नहीं हो पाई। उम्मीदवारी की एक चौथाई रेवड़ियां जिस पार्टी में आंखें बंद कर अपने-अपनों में बांट देने का बिचौलिया-दस्तूर था, उसमें अगर इस बार चंद मामलों को छोड़ कर टिकट ठीक लोगों को मिल गए तो इसका सेहरा राहुल के सिर पर बांधने में कंजूसी मत बरतिए। उन्होंने दृढ़ता से काम न लिया होता तो सेंधमार तो हमेशा की तरह अपनी बिसात बिछाने में लगे ही हुए थे।
बावजूद इसके, मैं यह कहने का जोख़िम लेने को तैयार हूं कि राहुल को अपने बगलगीरों की उठाईगीरी पर काबू पाने की ज़रूरत आने वाले दिनों में और भी ज़्यादा पड़ेगी। चुनावी कुरुक्षेत्र में तो कांग्रेस का रथ अब रफ़्तार पकड़ चुका है। मगर चुनावी कामयाबी और सांगठनिक मज़बूती दो अलग-अलग चीज़ें हैं। केंद्र में अपनी सरकार के दस बरस अगर हाथ मल-मल कर कुर्सी ताप रहे ‘साहबों’ ने कांग्रेस की जड़ें जमाने में भी लगाए होते तो मोदी-लहर के छद्म ने उनके ऐसे चिथड़े न उड़ाए होते। सो, अब, जब कांग्रेस सिंहासन पर वापसी की दिशा में चल पड़ी है, राहुल को कांग्रेसी पेड़ की फुनगियों पर बैठ कुहू-कुहू करती फ़ाख़्ताओं से ज़्यादा भरोसा उन पर करना होगा, जो ईंट-ईंट पर ईमान उकेरे बैठे हैं।
अंधियारे इसलिए टलने लगे हैं कि लोग कांग्रेस की राह में अपनी दुआओं के दीप जला रहे हैं। ये वे लोग हैं, जो जनतंत्र के प्रतिमान देखने की हसरत लिए ज़िंदा हैं। ये वे लोग हैं, जिनका तन मीरा और मन कबीर है। इसलिए उनका कभी कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाया। ये वे लोग हैं, जो क्षेत्र, जाति और मज़हब के लम्बरदारों पर बिफ़रे बिना रह ही नहीं सकते। ये वे लोग हैं, जिनका जन्म सिर्फ़ फूल बरसाने के लिए खड़े रहने को हुआ ही नहीं है। ये वे लोग हैं, जो अपने सपनों को बुनने जितनी डोर कहीं से भी ले ही आते हैं। कांग्रेस का भाग्य है कि इन लोगों का साथ उसे मिल रहा है। लेकिन कांग्रेस का सौभाग्य तब होगा, जब वह इस साथ की चिरंतनता बनाए रखने की तरीक़े पर अमल करेगी।
राजा के कर्तव्यों और अमात्यों के गुणों को महाभारत में बहुत विस्तार से समझाया गया है। रामायण में भी राज्य-व्यवस्था के लिए ज़रूरी संस्कारों की अनगिनत गठरियां हैं। हमारे पुरातन-ग्रंथों ने हमें समझाया है कि किसी भी शासन व्यवस्था का मुख्य घटक मनुष्य है। सिर्फ़ वही राजकाज का प्राणवान संसाधन है। उस पर ही बाकी सब केंद्रित है। इसलिए प्राणवान मानव संसाधन का कुशल प्रबंधन ही किसी भी शासन व्यवस्था की सफलता का मूल-मंत्र है। सरकारें हो, राजनीतिक संगठन हों, कारोबारी-समूह हों, परिवार हो--मनुष्य प्रबंधन के बिखरते ही सब बिखर जाता है।
नरेंद्र भाई ने महाभारत और रामायण पढ़ी होतीं तो उनके हाथ से साढ़े चार साल में दिल्ली नहीं फिसलती। यह सही समय है कि राहुल गांधी इन दोनों पौराणिक ग्रंथों पर निगाह डालें। उनकी सरकारें तो लोग बना ही देंगे, लेकिन अपनी पार्टी तो उन्हें ख़ुद ही बनानी होगी। वैसे ही, जैसे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने बनाई थी। अपनी पार्टी तो राहुल को ही सहेजनी होगी। वैसे ही, जैसे राजीव गांधी और सोनिया ने सहेजी। तीर खाने का वक़्त जब-जब आता है, अपने मतलब का मशवरा देते रहने वाले खंडाला चले जाते हैं। इसलिए राहुल को अपना समूचा चिंतन ख़ुद के पसीने की एक-एक पाई पर पहरा देने पर केंद्रित करना होगा। कोई बुरा न माने, अभी तक तो कांग्रेस में ‘मेहनत उनकी, मौज हमारी’ का आलम ही चलता-फिरता दिखता है। यह नहीं बदला तो सरकारें बदलने से भी क्या हो जाएगा! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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