Saturday, December 8, 2018

सामाजिक बोध के सूर्योदय का समय



पंकज शर्मा

    नरेंद्र भाई मोदी ने केंद्र की सरकार संभालने के बाद अपने प्रचार पर सरकारी ख़जाने से 50 अरब रुपए खर्च कर डाले हैं। इतना पैसा हमारे देश में ग़रीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले सभी लोगों की एक हफ़्ते की ज़रूरतें पूरी करने को काफी था। भारत में 28 करोड़ लोग ग़रीबी की रेखा के नीचे अपना जीवन गुज़ार रहे हैं। 32 रुपए रोज़ पर ज़िंदगी बसर करने वालों को ग़रीबी-रेखा से भी नीचे माना गया है। कुछ को लगता होगा कि इन अति-ग़रीबों को पांच बरस में पांच-सात दिन भी चैन के मिल जाते तो उनकी आत्मा प्रसन्न होती। लेकिन फिर जंगल में नाच रहे उपलब्धियों के मोर को आप कैसे देख पाते? 
    कइयों को ऐतराज़ है कि अपने किए-कराए के महिमा-मंडन पर नरेंद्र भई ने खर्च के सभी पुराने कीर्तिमान भंग कर दिए हैं। सो भी मामूली फ़र्क़ से नहीं, पूरी दुगनी छलांग लगा कर। ऐसा प्रचार-प्रिय प्रधानमंत्री भारत की प्रजा ने पहले कभी नहीं देखा था। सरकार ने तो नरेंद्र भाई के ढोल-तमाशे पर जो खर्च किया, सो किया ही; उनकी भारतीय जनता पार्टी ने भी उनका नगाड़ा बजाने में सब को दसियों कोस पीछे छोड़ दिया। आंकड़े कहते हैं कि नवंबर के महीने में तमाम प्रचार माध्यमों पर सब से ज़्यादा विज्ञापन भाजपा के थे। इतने कि अगली दस सीढ़ियों तक कोई और राजनीतिक दल खड़ा दिखाई नहीं दिया। और-तो-और, देश-दुनिया का कोई व्यवसायिक-उत्पाद भी भाजपा से होड़ नहीं ले पाया। हिंदुस्तान लीवर, सैमसंग, अमेजन और रामदेव का पतंजलि तक विज्ञापन देने के मुकाबले में भजपा से मीलों पीछे रह गए। पांच राज्यों में हो रहे चुनावों में भाजपा ने टेलीविजन के बड़े-छोटे परदों पर, अख़बारों के पन्नों पर, राजमार्गों के होर्डिंग पर और डिजिटल-संसार की आभासी वैतरिणी पर सिक्के बरसाने में अपनी फ़राखदिली का चरम प्रदर्शन किया।
    जब ख़ुदा मेहरबान हो तो किसी को भी पहलवानी करने से कौन रोक सकता है? केंद्र की सरकार संभालने के बाद से भाजपा के ख़जाने की तरफ़ बह रही दान की रक़म ने भी बाकी सभी राजनीतिक दलों को बहुत पीछे खदेड़ रखा है। दूसरों को एक रुपए का दान मिलता है तो भाजपा को दस रुपए का। पुण्याई भले ही कमज़ोर को दान देने में मानी जाती हो, सियासत में दान उन्हें नहीं मिलता, जो कटोरा ले कर खड़े हों; ताल ठोकने वालों को मिलता है। अब आप भले ही कहते रहें कि ताल ठोक कर तो उगाही की जाती है, भिक्षा तो कटोरा ले कर ही मांगी जाती है। लेकिन जब दानवीर ऐसे हों, जिनकी अंटी दया और करुणा से भीग कर ढीली होने के बजाय लाल-लाल आंखें देख कर गांठहीन होती हो तो आप-हम कर भी क्या लेंगे?
    नोटबंदी से बिलबिला रहे देश में, गिरती जीडीपी से कराह रहे देश में, बढ़ती बेरोज़गारी से माथा पीट रहे देश में और चौपट होते उद्योग-धंधों से कंपकंपा रहे देश में एक राजनीतिक दल के गालों का गुलाबीपन देख कर मेरे तो होश उड़े हुए हैं। मेरी समझ में ही नहीं आ रहा कि आखि़र वह कौन चित्रकार है, जो अपनी रचना में ऐसा चमत्कार भर सकता है कि एक घर के बाकी कमरे तो सीलन भरे हों और उनमें पड़े लोग दम तोड़ रहे हों और एक कमरा ऐसा हो, जिसकी दीवारों से इतना ऐश्वर्य टपक रहा हो कि उसके रहवासी गले-गले तक गच्च हों! नरेंद्र भाई के भीतर मौजूद इस चित्रकार के इस चमत्कार को देखने के बाद मेरे हाथ तो अब अपने-अपनों के लिए कोई दुआ मांगने के लिए उठने से भी इनकार कर चुके हैं।
    हमारी सेना को तोपखाने के साज-सामान की ख़रीदी के लिए सौ अरब रुपए चाहिए। लेकिन सेना प्रतीक्षालय में बैठी है और नरेंद्र भाई के गुणगान पर पचास अरब रुपए खर्च हो गए। सेना को हैलीकाप्टर ख़रीदने के लिए साठ अरब रुपए चाहिए। वह प्रतीक्षालय में बैठी है और नरेंद्र भाई की जलवा-बखानी पर पचास अरब रुपए खर्च हो गए। एंटी-टैंक मिसाइलों की ख़रीद के लिए सेना तीस अरब रुपए मांगती रही और नरेंद्र भाई की मुंह-दिखाई पर पचास अरब रुपए खर्च हो गए। राइफलें ख़रीदने के लिए सेना तरस रही है और नरेंद्र भाई की रंगाई-पुताई पर पचास अरब रुपए खर्च हो गए। सरकारी प्राथमिकताओं का ऐसा नज़ारा आप ने पहले कभी देखा था?
    अपने सवा सौ करोड़ देशवासियों पर गर्व करते प्रधानमंत्री को देख कर मुझे भी गर्व होता है। वे मुझ पर गर्व करते हैं, मैं उन पर गर्व करता हूं। हम दोनों मिल कर उस भारत पर गर्व करते हैं, जो 70 बरस की भटकन के बाद अब जा कर संभला है। पांच साल में अगर नरेंद्र भाई ने इस देश के लालन-पालन में रातों की नींद न गंवाई होती तो क्या आज हम यहां होते? सो, अगर उन्होंने अपने कर्म-गृह की दीवारों पर लिखी इबारत को रोशनी से नहलाने में पचास अरब रुपए बहा दिए तो कौन-सा गुनाह कर डाला? आप तो उनकी पीठ थपथपाएंगे नहीं और उन्हें भी खुद की पीठ नहीं थपथपाने देंगे! यह क्या बात हुई? मैं तो मानता हूं कि लोकतंत्र में एक निर्वाचित प्रधानमंत्री का मूल कर्तव्य ही यह है कि जब लोगों को कुछ दिखाई न दे रहा हो तो वह उनकी आंखों में अपनी सारी उंगलियां डाल कर यह दिखाए कि उसके चलते देश चल कर कहां आ गया है।
    ‘श्रद्धा भाव लभते ज्ञानम’। गीता ने हमें बताया है कि जिसके अंतःकरण में श्रद्धा है, उसे आत्मज्ञान सहजता से हो जाता है। लेकिन कलियुग में लोग किसी के भी प्रति श्रद्धा कहां रखते हैं? फिर चाहे वह नरेंद्र भाई जैसा परोपकारी और पराक्रमी प्रधानमंत्री ही क्यों न हो! जब हमें ऐसे प्रधानमंत्री देखने की आदत ही नहीं है तो हुकूमत तो श्रद्धालुओं के निर्माण का अपना फ़र्ज़ पूरा करेगी ही। जनहित के ऐस कार्यों पर पचास अरब रुपए जैसी तुच्छ रकम खर्च करने पर जिन्हें दीदे बहाने हों, बहाएं। वैसे भी साथ तो कुछ जाता नहीं, सब यही धरा रह जाने वाला है।
    यह सियासी-हवस के अभूतपूर्व पोषण का समय है। यह भारतीय राज्य-व्यवस्था के रूपांतरण का संक्रमण-काल है। यह जनतंत्र के घंटाघर की सुइयों को अपने-अपने इशारे पर टिक-टिक करने को मजबूर करने का दौर है। इस समय-चक्र से फूटने वाला लावा क्या-क्या जलाएगा, पता नहीं। इससे उड़ने वाली राख की परतें क्या-क्या धूसर करेंगी, कौन जाने! सिर्फ़ इतना मालूम है कि हमें सपना देखते हुए नहीं मरना है। हमें नींद में नहीं मरना है। हमें डर कर नहीं मरना है। हमें रोज़-रोज़ नहीं मरना है। अगर यह समय मुनादी और नगाड़ेबाज़ी का है तो हम ही बिना मुनादी के क्यों मर जाएं? हम ही बिना अपना नगाड़ा बजाए रुख़सत क्यों हों? जन-मुक्ति के योद्धा क्या आसमान से उतरेंगे? उन्हें तो इन्हीं गली-मुहल्लों से निकलना होगा। इसलिए मैं तो मानता हूं कि यह समय जैसा भी है, सब के लिए है। सामाजिक-बोध का सूरज भी इसी दौर से निकलेगा। आपको दे रही है कि नहीं, मालूम नहीं, मुझे तो इसकी आहट सुनाई दे रही है। ( लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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