Sunday, January 27, 2019

प्रियंका, राहुल, सियासी गिल्ली-डंडा और अश्वमेध



पंकज शर्मा

    प्रियंका गांधी की बलैयां लेने को कम-से-कम डेढ़ दशक से आतुर बैठे सियासत के सेकुलर-गलियारों के लिए यह बुधवार वह बयार ले कर आया है, जिसका बहाव जैसे-जैसे तेज़ होगा, गंगा की लहरें वैसे-वैसे अपने स्वयंभू पुत्र-पुत्रियों को राजनीतिक-सामाजिक पवित्रता का आचमन कराएंगी। जो प्रियंका के बाक़ायदा सियासी-मैदान में आने को उत्तर प्रदेश, देश और कांग्रेस की राजनीति भर से जोड़ कर देख रहे हैं, मैं उनकी स्थूल-बुद्धि के प्रति पूरे आदर-भाव के साथ कहना चाहता हूं कि प्रियंका का आगमन इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में घटी, भारतीय राजनीति की ही नहीं, दक्षिण एशियाई और विश्व-राजनीति की सबसे महती घटना है। आज जिन्हें इस बात में ख़ुशामदगीरी की बू आ रही हो, वे ज़्यादा नहीं, फ़िलहाल चार महीने और फिर दो बरस इंतज़ार करें और अपनी आंखों से सियासत का पूरा नज़ारा बदलते देखें।
    मैं प्रियंका को काफी-कुछ जानता हूं। वे मुझे बिलकुल नहीं जानती हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में मैं ने कांग्रेस में उनकी नेपथ्य-भूमिका की गुनगुनाहट गहराई से महसूस की है। इस नाते बिना लाग-लपेट के मैं यह कह सकता हूं कि बीस बरस पहले रेतीले टीलों में तब्दील हो रही कांग्रेस को अगर सोनिया गांधी संभाल कर यहां तक ले आईं तो इसलिए कि प्रियंका इस मुहीम में अनवरत उनके साथ थीं। राहुल गांधी की शुरुआती डगमगाहट और हड़बड़ाहट को थामने का श्रेय मां सोनिया के अलावा बहन प्रियंका को भी देने में जिन्हें झिझक हो, होती रहे, मुझे इसमें कोई झिझक नहीं है। वे न होतीं तो राहुल अपने आरंभिक दिशा-भ्रम के जंजाल से कितनी जल्दी बाहर आ पाते, मुझे नहीं मालूम।
    राहुल की वर्तमान सोच गढ़ने में उनकी मां सोनिया का तो जो हाथ है, सो है; इसमें प्रियंका की परोक्ष-भूमिका की छांह उससे ज़्यादा गहन है। राहुल की बुनियादी दृढ़ता को ज़िद के नकारात्मक अंध-कूप से बाहर ला कर सकारात्मक-संकल्प में तब्दील करने का काम, कोई माने-न-माने, प्रियंका ने किया है। इसलिए आज के राहुल, वो राहुल नहीं हैं, जो वे ढाई साल पहले तक थे। राजनीति के संसार में प्रियंका की उपस्थिति के इस आध्यात्मिक-प्रभाव के सार्वजनिक अहसास का दौर तो दरअसल अब शुरू हुआ है। बहुतों को नहीं होगी, मगर मुझे पूरी उम्मीद है कि चौतरफ़ा सड़न की शिकार हमारी राजनीति में उनकी मौजूदगी गंगाजल और आबे-ज़मज़म की फुआर लाएगी।
    प्रियंका के आने से कांग्रेस को कितना फ़ायदा होगा, यह बहुत छोटी बात है। उनका आगमन कांग्रेस के विरोधियों की नाक में कितना दम करेगा, यह भी बहुत छोटी बात है। वे उत्तर प्रदेश के पूरब में कौन-सा सूरज उगाएंगी, यह पचड़ा भी बेमानी है। कांग्रेस को तो प्रियंका के आने से फ़ायदा होने ही वाला है। उनका आना कांग्रेस के विरोधियों की मुश्कें तो कसने ही वाला है। वे उत्तर प्रदेश के पूरब में तो छोड़िए, पूरे मुल्क़ में एक नए सूरज की रचना का माद्दा रखती हैं। यह सब देखने के लिए किसी अंतरिक्ष-भेदी दूरबीन का ज़रूरत नहीं है। प्रियंका के आने को राहुल की नाकामी का प्रतीक बताने वालों की मूर्खता पर भी तरस खाने के अलावा क्या किया जा सकता है? एक दशक से भी ज़्यादा वक़्त तक प्रियंका की मर्यादा-परिधि को खुली आंखों से देखने वाले अब अगर जानबूझ कर अपनी आंखें बंद कर फ़तवागीरी करना चाहते हैं तो करते रहें। मैं आश्वस्त हूं कि कांग्रेस के आंगन में प्रियंका की औपचारिक पदचाप राहुल की छलांग-क्षमता को उस संतुलित-चरम तक ले जाएगी, जहां से एक सचेत, सतर्क और समीचीन पार्टी-संगठन का निर्माण तो होगा ही; देश में एक नई राजनीतिक सृष्टि की रचना भी होगी। 
    राहुल और प्रियंका की पारस्परिक पूरक-शक्ति के आयाम जिनकी समझ में नहीं आ रहे हैं, ईश्वर उनका ख़्याल रखे! जो ‘प्रथमग्रासे मक्षिकापात’ की कामना लिए तामसी-पूजन में मशगूल हो गए हैं, ईश्वर उनका भी ख़्याल रखे! मैं तो इतना जानता हूं कि नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी का भारतीय राजनीतिक पटल पर फू-फॉ आगमन तो एक अल्पजीवी चमत्कार था, मगर भरत-खंड के लोकनीतिक पटल पर प्रियंका का मृदु-पदार्पण दीर्घजीवी चमत्कार साबित होगा। वंशावलियों के विशेषज्ञ राहुल-प्रियंका की सार्वजनिक जीवन में मौजूदगी को आज जो रंग देना चाहें, दें। मगर थोड़ा समय बीतने दीजिए, वे देखेंगे कि दोनों ने मिल कर हमारी सियासी-सृष्टि से लुप्त होते जा रहे सेमल और पलाश के वृक्षों को कैसे पुनर्जीवन दिया है। 
    सामाजिक-राजनीतिक बेचैनी के इस बीहड़ समय में राहुल-प्रियंका को जिन चुनौतियों का सामना करना है, वे मामूली नहीं हैं। मैं जांच एजेंसियों द्वारा गढ़े गए बहेलिया-जाल की बात नहीं कर रहा। सत्ताधीश जब तमाम आचार संहिताओं को रौंदने पर आमादा हो तो यह सब तो चलता ही रहता है। अपने को चारों तरफ़ से घिरा पाने के बाद इक्कादुक्का हुक़्मरान ही संयत रह पाता है। आमतौर पर तो ऐसे में अविवेक ऐसा हावी हो जाता है कि षड्यत्रों और दमन का चक्का तेज़ी से घूमने लगता है। राहुल-प्रियंका की कांग्रेस क्षुद्रता की इन करतूतों का जवाब तो दे ही लेगी। लेकिन असली चुनौतियां दूसरी हैं। असली चुनौती कांग्रेस को उस कायाकल्प के लिए तैयार करने की है, जिसके बिना विश्वास-बहाली का युद्ध लड़ना आसान नहीं है।
    कांग्रेस एक राजनीतिक दल से ज़्यादा एक अवधारणा है। यह अवधारणा एक दिन में नहीं बनी है। इस अवधारणा को कुछ मूलभूत तत्वों के समन्वय ने दशकों-दशक सींचा है। यह अवधारणा एक अमूर्त शक्ति की मानिंद भारतीय मानस में रच-बस गई है। जब-जब यह अवधारणा ज़ख़्मी होती है, मौन-चीखें उठने लगती हैं। राहुल-प्रियंका को यह ख़ामोश-ध्वनि सुनने की विद्या में अब और ज़्यादा पारंगत होना होगा। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि यह उनके लिए या कांग्रेस के लिए आखि़री मौक़ा है या नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि यह भारत की सर्वसमावेशी संस्कृति को बचाने का अंतिम अवसर है। महाभारत के युद्ध के लिए अग्नि देव ने अर्जुन को अपना रथ कपि-ध्वज दिया था। साढ़े चार बरस की हाहाकारी राख में दबी चिनगारी से जन्मे कपि-ध्वज पर सवारी आज राहुल-प्रियंका के ज़िम्मे आन पड़ी है। इसके लौकिक कारण होंगे, मगर इसके अलौकिक कारण भी हैं। इसलिए इस कर्तव्य-बोध का मर्म समझना भाई-बहन के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
    रोज़मर्रा के चुनावी अंकगणित के समीकरणों के हिसाब से क़दमताल ज़रूरी है। लेकिन कांग्रेस सिर्फ़ इतनी-सी मंज़िल हासिल करने के लिए बना वाहन नहीं है। चुनावी मंज़िलों तक तो कई लोग अपने-अपने छकड़े बना कर पहुंच गए। कांग्रेस भी अगर अपने को इसी दायरे में समेट लेगी तो उस अंतर्निहित दैवीय-शक्ति का क्या होगा, जो गु़लामी से आज़ादी दिलाने के लिए कांग्रेस की रगों में बहने आई थी? आज़ादी का यह सफ़र अभी ख़त्म कहां हुआ है? राष्ट्रवाद की अधकचरी सोच से आज़ाद होना अभी बाकी है। बेकाबू उदारवाद से उपजी असुरक्षा से आज़ाद होना अभी बाकी है। राज्य-व्यवस्था पर काबिज़ प्रतिगामी प्रवृत्तियों से आज़ाद होना अभी बाकी है। सो, बुनियादी बदलाव के एक लंबे युद्ध के लिए कांग्रेस को मनसा-वाचा-कर्मणा तैयार करना राहुल-प्रियंका की असली चुनौती है। भटके भारत को सही सम्यक-दिशा देने का काम अगर दोनों कर सकें, तब तो कोई बात है। वरना अगर कांग्रेस भी छोटे पड़ावों की आरामदेह रजाई में घुस जाएगी तो फिर क्या तू-तू और क्या मैं-मैं? कांग्रेस राजनीति का गिल्ली-डंडा खेलने के लिए नहीं बनी थी। इसलिए लाख कलियुग सही, प्रियंका-राहुल को तो अश्वमेध के नियमों का ही पालन करना होगा।

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