अगलिए-बगलिए अगर अनुभवहीन हों तो बड़ा-से-बड़ा सफ़ीना भी कैसे डूब जाता है, नरेंद्र भाई मोदी इसकी ताज़ा मिसाल हैं। कम-से-कम दस, और वैसे, बीस-पचास साल राज करने आई भारतीय जनता पार्टी की सरकार पचास महीने पूरे होते-होते ही चीं बोल गई। तीन दशक बाद पूरा बहुमत ला कर सरकार में बैठे एक राजनीतिक दल का यह हाल इसलिए हुआ कि नरेंद्र भाई को लगा कि पांच करोड़ लोगों के प्रदेश पर तेरह बरस हुकूमत करने का उनका तजु़र्बा इतने दूर की कौड़ी है कि सवा सौ करोड़ लोगों का मुल्क़ उनका सजदा करने लगेगा।
सो, प्रधानमंत्री बनने की प्रक्रिया में नरेंद्र भाई ने अपनी सरकार और भाजपा को नादानों के हवाले कर दिया। जैसी कि सियासत और प्रतिस्पर्धा के बाकी सभी हलकों में परंपरा है, अपने कद से ज़्यादा कद्दावर नरेंद्र भाई को भी कोई पसंद नहीं था। नतीजतन, भाजपा और सरकार के कंधों पर ऐसे बौने बेताल सवार हो गए, जिन्होंने सारी ताल बिगाड़ दी। भाजपा एक ऐसे ‘चाणक्य’ की अंटी में चली गई, जिसका चाणक्य के नीति शास्त्र से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था और जिसे लगता था कि दुनिया का कोई काम ऐसा नहीं है, जो हंटर फटकारने और सिक्के बरसाने से न हो जाता हो। और, सरकार ऐसे जेटलियों, गोयलों, ईरानियों और जावड़ेकरों के इशारों पर नाचने लगी, जिन्हें सियासत की शास़्त्रीय नृत्य विधाओं की रत्ती भर भी समझ नहीं थी। अपनी घुड़चढ़ी की शुरुआत में ही नरेंद्र भाई ने सचमुच उनका मार्गदर्शन करने की असली कूवत रखने वाले सभी चेहरों की चारपाइयां ‘मार्गदर्शन-मंडल’ के मुमुक्षु-भवन में डलवा दीं। फिर वे खुद सर्वज्ञान के बोधि-वृक्ष पर विराजमान हो गए। अपनी मंत्रिपरिषद में जिन तजु़र्बेकारों को उन्हें मजबूरन शामिल करना भी पड़ा, उनके भी सारे पंख नरेंद्र भाई ने नोच डाले। उन्हें सरदार पटेल से बड़ा लौह पुरुष बनने, जवाहरलाल नेहरू से बड़ा युगदृष्टा बनने और इंदिरा गांधी की लोकप्रियता-लकीर छोटी कर देने की ऐसी हड़बड़ी थी कि हाथी-घोड़ों के बजाय खच्चर-सेना के सेनापति बन बैठे।
नौकरशाही के शिखर पर भी नरेंद्र भाई ने एक स्वयंभू सूरमा की ताजपोशी कर डाली। रही-सही कसर अफ़सरशाही की हर अहम शाख़ पर सिर्फ़ गुजराती और ओडिशाई चेहरे टांगने की उनकी धुन ने पूरी कर दी। इस छिछली गंगोत्री का पानी बीच धार तक पहुंच कर और भी मटमैला होना ही था। सो, पिछले आम-चुनाव से चल कर इस आम-चुनाव की मंज़िल तक आते-आते नरेंद्र भाई के शासन-प्रशासन की हर खूंटी पर ‘बुद्धि हीन तन’ लटक गए। अब वे सब मिल कर खींसे निपोरते हुए इस सरकार का संध्या-वंदन कर रहे हैं। पता नहीं, किस-किस ने कैसे-कैसे भाजपा का एक बेड़ा तैयार किया था। इस बेड़े के कई निर्माता अभी संसार में मौजूद हैं और उसे गर्क होता देख माथा पीट रहे हैं।
मैं तो कई बार सोचता ही हूं, आप भी सोचिए, कि अगर नरेंद्र भाई ने अपने सिंहासन की कसीदाकारी ज़्यादा परिपक्व हाथों को सौंपी होती तो क्या इतनी जल्दी उनका विदा-गान हम सुन रहे होते? जिस स्वर्ण-रथ पर सवार हो कर वे हस्तिनापुर का राज संभालने आए थे, उसका मुलम्मा क्या इतनी जल्दी उतर जाता? भारत के लोकतंत्र से भले ही यह चूक हो गई कि उसने नरेंद्र भाई को अपने सिर पर बैठा लिया, मगर सबसे बड़ी चूक तो नरेंद्र भाई से हुई है कि उन्होंने जुग-जुग के अनुभवी भारतवासियों पर अपनी वानर-सेना के सहारे राज करने की कोशिश की। यही काम अगर उन्होंने राज-ऋषियों की मदद से किया होता तो भारतमाता उनसे इतनी जल्दी नहीं रूठती।
सो, नरेंद्र भाई की ‘अमर चित्रकथा’ से किसी को अगर सीखना है तो यह सीखे कि राजनीतिक जीवन में क्या नहीं करना चाहिए। सियासत में जो भी हैं, वे अगर नरेंद्र भाई के इस प्रधानमंत्रित्व-काल की प्रतिमा के सामने एकलव्य-भाव से अपनी विलोम-साधना करेंगे तो कभी नाकाम नहीं होंगे। लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि ऐसा करने का माद्दा जुटाना सब के बस की बात नहीं है। बौनों से घिरे रह कर अपने कद पर इतराने की ललक से बचने के लिए बड़े तप की ज़रूरत होती है। ऐसे तप की, जो इंद्र के आसन को अस्थिर कर दे। ऐसे तप की, जो समुद्र मथ कर अमृत निकाल लाए। सियासती संसार में ऐसे तपस्वी अब कहां? अब तो सांसारिकता का दौर है। यह बौनों के अपने से भी छोटे बौनों की मंडली में मस्त रहने का दौर है। यह उत्थान की कंचनजंघा की तरफ़ सफ़र का नहीं, पतन के पातालपानी की तरफ़ लुढ़कने का दौर है।
बावजूद इसके जो अपने को पिद्दों से आज़ाद कर लेंगे, वे भविष्य के नायक होंगे। जो यह समझ लेंगे कि युद्ध ऊदबिलावों के भरोसे नहीं जीते जाते, वे भविष्य के नायक होंगे। जो पिद्दों और ऊदबिलावों के संग कमर मटका कर अपने को लोकनीति का मर्मज्ञ समझते रहेंगे, इतिहास के कूड़ेदान से नहीं बचेंगे। इसलिए नरेंद्र भाई और उनकी भाजपा का तो जो होना है, सो, हो; मुझे तो यह फ़िक्र सता रही है कि इस मरियल मौसम में भी उनकी ठोस तोड़ का समवेत प्रभाव कैसा होगा? नरेंद्र भाई से ज़्यादा कद्दावर रहनुमा तो हमारी सियासत में मौजूद हैं। मगर देश यह भी तो देखेगा कि उस पर अंततः कोई वानर-सेना राज करेगी या उसका भाग्य-विधाता कोई संजीदा और अर्थवान समूह होगा। सारा दारोमदार इसी धुरी पर टिका है।
राहुल गांधी के राजसूय यज्ञ को प्रियंका गांधी के आगमन से मिली अंतःशक्ति दो विचारधाराओं के संघर्ष के इस दौर को मिला अप्रतिम उपहार है। लेकिन आसपास मौजूद बहुत-से निष्ठाहीन चेहरों को लेकर क्या यह चक्रव्यूह पार हो पाएगां? मुझे नहीं मालूम कि राहुल-प्रियंका को यह मालूम है या नहीं कि आज कांग्रेस का चेहरा बने बैठे ज़्यादातर छुटकुओं की हमारे लोकजीवन में कोई विश्वसनीयता नहीं है। उनमें से किसी ने छुटपुट ज़मीनों की ख़रीदी-बिक्री का धंधा करते-करते, किसी ने फ़िल्म-नगरी में इंटरनेट-तफ़रीह करते-करते, किसी ने वक़ालती गलियारों में रूमानियत भरे शुरुआती चक्कर लगाते-लगाते और किसी ने राजनेताओं के सचिवालय का रसरंजन करते-करते रातों-रात अपने गले में कांग्रेस का झंडा डाल लिया है। अगर कोई यह समझता है कि मोदी-विचार के उलट एक चिरंतन विचार को मौजूदा मतदाता-मानस में स्थापित करने का काम यह पिकनिक-टोली कर सकती है तो, मुझे माफ़ करें, उसे गच्चा खाने से कौन बचाएगा?
इसलिए इस सफ़र के लिए पहले तो ख़ुद के पांव मजबूत करने ज़रूरी हैं। लक्ष्य की स्पष्टता के साथ अपनी तलवार मांजना भी ज़रूरी है। मुल्क़ के टूटे हौसलों को संकल्प में बदलने के काम में राहुल गांधी ने कम पसीना नहीं बहाया है। अब जब एक नई इबारत लिखने का वक़्त आया है, ज़रा-सी कोताही भी बहुत भारी साबित हो सकती है। सो, नरेंद्र भाई मोदी की डोली विदा होने की इस वेला में मैं प्रभु से सिर्फ़ इतनी प्रार्थना करता हूं कि वह भावी भारत को बौनेपन से निज़ात दिलाए, पिद्दियों के जंजाल से आज़ादी दिलाए और हमारी आने वाली पीढ़ियां केवल मूर्तियों की ऊंचाई के नहीं, मनुष्य की ऊंचाई के कीर्तिमान स्थापित होते भी अपनी आंखों से देखें। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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