Saturday, April 4, 2020

लोक-संस्कृति का राम-राज्य! और एक विषाणु


मुझे याद नहीं कि दुर्गा-अष्टमी पर घर में कभी कन्या-पूजन न हुआ हो। मगर इस बार माता जी और पत्नी ने एक विषाणु के ज़रिए प्रकट हुई दैवी-इच्छा के सामने नतमस्तक हो कर काले चने और हलवा-पूरी का भोग लगा कर इक्का-दुक परिवारजन के साथ अकेले ही आरती कर-करा ली। अगले दिन रामनवमी को भी भीतर से सब के मन उदास थे। लेकिन विपत्ति के मौक़ों पर अपने मन को समझाने के हमारे पास इतने तर्क और तरीके शुरू से रहे हैं कि बुरा वक़्त है कि हर बार कट ही जाता है। इस बार भी, चौदह दिन नहीं तो चौदह हफ़्तों बाद ही सही, एक सच्चे राम-राज्य में रहने की आस लिए हम यह समय काट ही लेंगे।
जो राम-राज्य की स्थापना करना चाहते हैं, उन्हें मालूम है कि नहीं, मुझे मालूम नहीं, कि जिन श्री राम का भव्य मंदिर अयोध्या में बनाने के लिए हम कृतसंकल्पित हैं, उनकी कथा सत्ता के लिए अपने पवित्र उसूलों को पतनाले में सिरा देने की कथा नहीं है। यह राज-सिंहासन पर बैठ कर मदांध हो जाने की कथा नहीं है। राम की कथा तो अहंकार के नाश की कथा है। वह त्याग की होड़ में एक-दूसरे से आगे निकलने के मनोभाव की कथा है। जो मुकुट पहने स्वयंभू देवता बने घूम रहे हैं, कोई उन्हें समझाए कि वाल्मीकि की रामायण में 24 हज़ार श्लोक, 500 उपखंड और 7 कांड हैं और अरण्यकांड के चौदहवें सर्ग का चौदहवां श्लोक बताता है कि देवता सिर्फ़ तैंतीस हैं। तैंतीस करोड़ नहीं कि उनमें से एक आप भी बन बैठें। बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र और दो अश्विनी कुमार–बस ये ही देवता हैं। बाकी तो हम सब, थोड़े-से ऊंच-नीच के साथ, एक ही घान के हैं।
तुलसी का मानस लोक-संस्कृति की जीत का काव्य है। मानस की रचना करते समय तुलसीदास जी के मन में भक्ति और अध्यात्म की स्थापना के भाव भले ही रहे होंगे, लेकिन उससे भी ज़्यादा गहरा भाव था नागर-संस्कृति पर बुनियादी सवाल उठाने का। उस महानगरीय संस्कृति पर, जिसके अतिरेक के चलते एक दिन ऐसा भी आता है कि पूरी मानव-जाति किसी अदृश्य विषाणु तक के सामने बेबस हो जाती है। राम जैसे ही वन-गमन को निकलते हैं, गांव की देहरी पर पहुंचते ही लोक-जीवन उनके सामने यह प्रश्न ले कर खड़ा हो जाता है कि वह कौन-सी मानवी-तहज़ीब है, जो इतने सुंदर राजकुमारों से यह सलूक कर रही है? राम, लक्ष्मण और सीता को वन में भटकते देख गांव की स्त्रियां हैरत में पड़ जाती हैं। ‘‘ते पितु-मातु कहहुं सखि कैसे; जिन पठए वन बालक ऐसे?’’ सहेलियां आपस में पूछती हैं, ये कैसे माता-पिता हैं, जिन्होंने ऐसे बालकों को जंगल में भटकने छोड़ दिया है?
पूरा रामचरित मानस लोक-संस्कृति के सहज संसार के पक्ष में खड़ा हुआ है। इसी ग्राम्य-जीवन को गांधी भी भारत की सब से बड़ी शक्ति मानते थे। यही लोक हर संघर्ष में हमें सबसे आगे खड़ा मिलता है। मानस में भी राम के संघर्ष में लोक-संस्कृति ही उठ कर खड़ी होती है। वही उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बनाती है। गै़रज़रूरी तर्कों और थोथे अहंकार पर आधारित शहरी-संस्कृति के साथ तुलसी का मानस नहीं है। वह लोक-संसार की महत्ता का अभिनंदन ग्रंथ है। सुंदर राजकुमार-राजकुमारी को वनवास देने के अपने नागरी-तर्क हो सकते हैं, लेकिन लोक-संस्कृति इन तर्कों को मान्यता नहीं देती। मानस में राम के सामने ये प्रश्न एकदम अनावृत्त हो कर आते हैं। ‘‘सुनि सविषाद सकल पदिताहीं; रानी रय कीन्ह भल नाहीं।’’ इन्हें वनवास दे कर राजा-रानी ने ठीक नहीं किया। ऐसे माता-पिता का कलेजा क्या मनुष्य का है? ग्राम-वासी आगे सवाल उठाते हैं कि आखिर जिस नगर में लोगों का हृदय इतना कठोर है तो उसमें उनके ज्ञान की गहराई भी भला कैसी होगी?
तुलसी ने लोक-संस्कृति और नागर-संस्कृति के बीच का अज़ब-ग़ज़ब फ़र्क़ भी अच्छी तरह दिखाया है। राम, सीता और लक्ष्मण जब वन के लिए निकल रहे हैं तो अयोध्या नगरी तो अटारी पर चढ़ कर उन्हें देख-देख सिर्फ़ दुःखी ही हो रही है, लेकिन गांव के लोग उन्हें महज़ खड़े-खड़े देखते नहीं, मदद के लिए आगे बढ़ते हैं। ‘‘सीता लखन सहित रघुराई, गांव निकट जब निकसहि जाई; सुनि सब बाल वृद्ध; नर नारी, चलहि तुरत गृह काजु बिसारी।’’ राम लाख मना करते हैं, मगर यह लोक-मन है, जो मानता ही नहीं। ‘‘एक देखि बट छाहं भलि डासि मृदुल तृण पात; कहहिं गवांइअ छिनकु श्रम गवनब अबहिं कि प्रात।’’ ग्राम-वासी श्री राम से कहते हैं कि नरम घास और पत्ते बिछा दिए हैं। थोडा आराम करिए। फिर अभी या चाहें तो सबेरे चले जाइएगा।
आज पृथ्वी पर आई मुसीबत का भी जब कभी नागर-संस्कृति और लोक-संस्कृति के नज़रिए से तुलनात्मक अध्ययन होगा, हम पाएंगे कि हम जब-जब बचे, लोक-जीवन की शक्ति ने हमें बचाया। अपने शहरों में अगर हम सहज देहाती-मन से रहना सीख लेते तो ये दिन हमें देखने ही क्यों पड़ते? हमें समझना चाहिए कि जीवन का स्थायी भाव दुःख है। सुख नहीं। सुख तो आता-जाता है। दुःख की तलाश में कहां निकलना पड़ता है? निकलना तो सुख की खोज में पड़ता है। जीवन का स्थायी भाव अशांति है, असंतोष है, छटपटाहट है। शांति, संतोष और धैर्य नहीं। शांति की तो तलाश करनी पड़ती है। संतोष तो ओढ़ना पड़ता है। घैर्य तो साधना पड़ता है। यह आज से नहीं, आदिकाल से है। मनुष्य ऐसा ही था। संसार ऐसा ही था।
तो क्या हमें इसलिए ‘हाय कलियुग-हाय कलियुग’ का विलाप करना बंद कर देना चाहिए? क्या हम यह अपराध-बोध मन से निकाल दें कि हम उतने नैतिक नहीं हैं, हमारे मूल्यों का क्षरण हो गया है, हमारी संवेदनाएं सो गई हैं? क्या हम जैसे थे, वैसे ही हैं? क्या हम वही हैं, जो पाषाण-युग में थे, लौह-युग में थे और ताम्र-युग में थे? क्या हमारा रजत और स्वर्ण-युग कभी आया ही नहीं था? क्या हम तब जो कर रहे थे, ठीक कर रहे थे? क्या हम आज भी जो कर रहे हैं, ठीक ही कर रहे हैं।
आखेट से खेती तक हम ख़ुद के पैरों पर चल कर पहुंचे हैं। खेती से कारखानों तक हम ख़ुद दौड़ कर पहुंचे हैं। कारखानों से सेवा-उद्योग तक हम ख़ुद उछल कर पहुंचे हैं। आज की शिल्पनिर्मित-प्रज्ञा, यानी आर्टिफ़िशल इंटेलिजेंस, तक छलांग हम ने ख़ुद लगाई है। घोड़े की पीठ पर हम ख़ुद चढ़े थे और उस से उतर कर अंतरिक्ष में भी हम ने ख़ुद उड़ान भरी है। मल्ल-युद्ध से आगे चल कर तीर-कमानों से होते हुए मिसाइलों को पार कर विषाणु-हमले तक ख़ुद की तबाही के रास्ते भी हम ने ख़ुद ही अपने लिए तैयार किए हैं। इसलिए रोना किस बात का?
अपने सुखों की प्रयोगशाला में दिन-रात दिमाग़ खपाते-खपाते अगर हम भूल गए थे कि मनुष्य की ज़िंदगी का वास्तविक मनोभाव तो दुःख और उदासी ही है तो इस में दोष किस का है? सर्वदा-प्रसन्नता की स्थिति तो देवताओं के भाग्य में भी नहीं है। चिरंतन-चैन तो ऋषि-मुनियों के नसीब में भी नहीं है। इसीलिए वे भी ज़्यादा-से-ज़्यादा स्थितप्रज्ञ हो जाने में ही स्वयं को धन्य मान लेते हैं। शिव भी स्थिर और शांत हो गए तो महादेव हो गए। न कोई दुःख, न कोई सुख। सनातन सुख जैसी कोई चीज़ नहीं है। राम की कथा हमें बताती है अगर हम अब भी नहीं संभलेंगे तो महानगरों की अहंता और दिखावा हमें इसी तरह वन में भटकाता रहेगा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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