मैं व्यक्तिगत तौर से जानता हूं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया का मन कांग्रेस में तीन-चार महीने से नहीं, तीन-चार साल से नहीं लग रहा था। सो, वे कांग्रेस छोड़ कर चले गए। और, चूंकि वे सिर्फ़ जाना ही नहीं चाहते थे, थप्पड़ मार कर जाना चाहते थे, सो, भारतीय जनता पार्टी में चले गए। उस भाजपा में, जो ‘मोशा’-भाजपा है और जिसमें, सिंधिया भी जानते हैं कि, नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह के अलावा किसी और की कोई हैसियत नहीं है।
इसलिए मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि सिंधिया ने यह थप्पड़ कांग्रेस के नहीं, खुद के गाल पर मारा है। अपने गाल का गुलाबीपन अगर ढलता भी दिखने लगे तो भला उसे खुद थप्पड़ मार कर कौन लाल करता है? मगर सिंधिया ने यही करतब दिखाया है। मैं इसे मूर्खता इसलिए नहीं कहूंगा कि इस शब्द का इस्तेमाल करना अशिष्टता होगी, मगर मैं इतना ज़रूर कहूंगा कि किसी के दिमाग़ी-स्खलन की ऐसी मिसाल ताज़ा राजनीतिक इतिहास में आपको दूसरी नहीं मिलेगी।
कांग्रेस में सिंधिया का जो स्थान था, वह भाजपा के सामाजिक-मंत्रों का सात जनम पाठ करने के बाद भी वहां कभी नहीं बनेगा। कांग्रेस में तो उनके लड़कपन को सोनिया गांधी के मातृ-भाव की छाया मिल जाती थी। उनकी तुनकमिजाजी को राहुल गांधी की दोस्ताना-बांह का सहारा मिल जाता था। दाएं-बाएं से उनकी तरफ़ आती बर्छियों को थामने के लिए उनके पिता माधवराव के ज़माने की छतरियां तन जाती थीं। कांग्रेस ने तो ज्योतिरादित्य को जन्म दिया था। उसकी गोद में तो खेल कर वे बड़े हुए थे। नरेंद्र भाई ने तो उन्हें गोद लिया है।
सो, भाजपा में सिंधिया सौतेले हैं और ज़िंदगी भर सौतेले ही रहेंगे। बावजूद इसके कि चुनावों की तिकड़मी राजनीति को ले कर मध्यप्रदेश की सियासत में ग्वालियर के महल की गड्डमड्ड भूमिका के क़िस्से हमेशा से मशहूर रहे हैं, सिंधिया के वैचारिक-गढ़न में संघ-कुनबे का रक्त-बीज अनुपस्थित है। कम-ज़्यादा, जितना भी, मैं सिंधिया को जानता हूं, कह सकता हूं कि आगे-पीछे यही भाजपा में उनके गहरे अवसाद की वज़ह बनेगा। कांग्रेस में तो सब उनकी सुनते थे, भाजपा में उनका ‘मैया, मैं तो चंद्र खिलौना लैहों’ राग सुनने की फ़ुरसत किसी के पास नहीं है। इसलिए कांग्रेस से हताश होने में जिस सिंधिया को 18 बरस लग गए, उन सिंधिया को भाजपा में कुंठा के रसातल तक पहुंचने में 18 महीने भी नहीं लगेंगे।
2001 की कड़कड़ाती सर्दियों में दिसंबर के तीसरे मंगलवार को जब ज्योतिरादित्य को सोनिया गांधी ने बड़े दुलार के साथ कांग्रेस की सदस्यता दी थी तो मुझे याद है कि बहुआयामी पारस्परिक-समीकरणों के बावजूद कैसे उन्हें अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा, श्यामाचरण शुक्ल, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, भानुप्रकाश सिंह और राधाकिशन मालवीय दस-जनपथ ले कर गए थे। ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव की अलविदाई की त्रासदी को तब ढाई महीने ही हुए थे और सब के दिलों में नमी थी। तब ज्योतिरादित्य 30 साल के थे और अर्जुन सिंह 71 के। श्यामाचरण शुक्ल 76 के। 54-55 बरस की उम्र के कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को तो ज्योतिरादित्य जब ‘‘कैसे हैं, कमलनाथ जी? कैसे हैं, दिग्विजय जी?’’ कह कर पुकारते थे तो मुझ जैसों को ज़्यादा हैरत नहीं होती थी; मगर जब ‘‘कैसे हैं, अर्जुन सिंह जी? कैसे हैं, श्यामाचरण जी?’’ का संबोधन सुन कर भी मैं दोनों बुज़ुर्गों के चेहरों पर ज्योतिरादित्य के लिए पुत्र-स्नेह के भाव की मुस्कान देखता था तो संस्कार-शास्त्र के पन्नों में खो जाता था। भाजपा के दंडकारण्य में सिंधिया स्नेह की इन बूंदों के लिए तरस जाएंगे।
मैं इस पचड़े में नहीं जाना चाहता कि कैसे आधी सदी के भीतर तीन सिंधियाओं ने कांग्रेस के साथ कब-कब क्या-क्या किया। विजयाराजे सिंधिया ने जो किया, जब किया, क्यों किया और माधवराव सिंधिया ने जो किया, जब किया, क्यों किया–उन कथानकों की परतों में कई पेचीदगियां हैं। लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जो किया, जब किया, बहुत ग़लत किया। मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि उन्होंने कांग्रेस के साथ भी ग़लत किया और ख़ुद के साथ भी। थोड़ा-सा और धैर्य उन्हें दो-चार बरस में कांग्रेस की अखिल भारतीय सियासत का इतना कद्दावर चेहरा बना देता, जिसका बित्ता भर भी वे भाजपा का दुपट्टा गले में डाल कर नहीं बन पाएंगे। एक लमहे की इस ख़ता का ख़ामियाज़ा अब वे सदियों तक भुगतेंगे। राज्यसभा सदस्यता की एक पिद्दी-सी मेनका के लिए जीवन भर की अपनी विश्वामित्र-तपस्या को भंग करने लेने के पश्चात्ताप-भाव के साथ सिंधिया ने नरेंद्र भाई के दालान में प्रवेश किया है। प्रभु उनके दिल को यह बोझ सहने की शक्ति दे!
सिंधिया ने अपना नुक़सान कर लिया। लेकिन क्या इससे कांग्रेस को फ़ायदा हो गया? उनके ‘ख़ानदानी गद्दार’ होने की तोता-रटंत करने वालों को देख कर भी मुझे हंसी छूट रही है। वे भी सिंधिया से कम बचकाने नहीं हैं। सिंधिया क्या सांगठनिक सुशासन की आदर्श मिसाल से बग़ावत कर के भाजपा में गए हैं? ठीक है कि सिंधिया अपने इलाक़े में तक़रीबन हर मामले में अपनी मर्ज़ी चलाते थे। तो बाक़ी क्षत्रप कौन-सा अपने-अपने हलकों में अपनी-अपनी मर्ज़ी चलाने को प्राण नहीं देते-लेते हैं? राम-नाम सत्य की खोज में सिंधिया तो जहां जाना था, चले गए; मगर कांग्रेस के सियासी-पुनरुत्थान के कर्तव्य का निर्वाह भी तो समय रहते हो। पुनर्रचना के संस्कारों का भी तो यही अंतिम दौर है। सिंधिया तो जाते-आते रहेंगे। मगर जो यहीं जीने-मरने की कसम खाए बैठे हैं, उन्हें भी तो असमय अंतिम-संस्कार से कोई बचाए।
विचारधाराओं के संघर्ष में सच्चे विचार तब जीतते हैं, जब एक विश्वसनीय व्यक्तित्व पूरे जज़्बे के साथ उनका प्रतिनिधित्व करता है। घनघोर पसोपेश के युग में विचारधाराओं का युद्ध जीतने के लिए अनुशासित और धैर्यवान संगठन की ज़रूरत होती है। ऐसे संगठन का निर्माण अनमने मन से, तात्कालिकता-आधारित फ़ैसलों से और ठेंगेबाज़ी से नहीं होता। उसके लिए तो संजीदा चेतना, प्रखर विवेक और उदार समावेशिता के साथ कठोर संव्यूहन की ज़रूरत होती है। इच्छा-शक्ति के साथ परिपालन-शक्ति भी ज़रूरी होती है। आसपास के परिवेश को अमरबेलों से मुक्त करने की हिम्मत भी ज़रूरी होती है। कांग्रेस के लिए अगर अब भी यह सोचने का वक़्त नहीं आया है कि गुलाटियां उन्होंने ही क्यों खाईं, जिन्हें सब से ज़्यादा सिर पर चढ़ाया, तो कब आएगा?
पुनर्निर्माण का एक तय व्याकरण होता है। पुनर्निर्माण अनायास होने वाली घटना नहीं है। वह सायास और समयबद्ध प्रयासों का परिणाम होता है। पुनर्निर्माण चलते-फिरते नहीं होता। उसके लिए स्थापित विधि और नियम हैं। वह उनका पालन करने से होता है। कांग्रेस जितनी जल्दी यह राह अपना ले, उतना ही अच्छा है। इसके लिए उसे सब से पहले अपने शीर्ष पर मंडरा रहे शून्य को भरना होगा। तमाम ऊहापोह छोड़ कर राहुल गांधी को अगुआई फिर से संभाल लेनी चाहिए। अगर वे अब भी सोच रहे हैं कि उनके सक्रिय सहयोग से यह ज़िम्मेदारी कोई भी और निभा सकता है तो, माफ़ करिए, उनकी सोच कांग्रेस के हित में नहीं है। बावजूद इसके कि मैं जानता हूं कि वे अपने सहयोगियों के चयन में आगे चल कर भी कई ग़लतियां करने से शायद न बच पाएं, मैं मानता हूं कि आज की कांग्रेस को उनके अलावा कोई और फिर खड़ा नहीं कर सकता है। इसलिए कि वैचारिक प्रतिबद्धता की कसौटी पर जितने खरे वे उतरे हैं, वह बेमिसाल है। जिन्हें जितना मखौल बनाना हो, बनाएं, मगर राहुल ही नरेंद्र भाई का असली जवाब हैं। सो, वे ही कांग्रेस की आख़िरी उम्मीद हैं।