Saturday, April 4, 2020

उकता चुके देश का थका-हारा मुखिया


छह साल पहले नरेंद्र भाई मोदी ने भारतमाता की आंखों में एक ख़्वाब उंड़ेला था–अच्छे दिन आने वाले हैं। इस ख़्वाब की डोर अपनी उंगलियों की पोर से थामे देश ने नरेंद्र भाई को रायसीना-पहाड़ियों का महादेव बना दिया। मैं भी तब से, नरेंद्र भाई के जन्म के महज़ सात बरस बाद बनी फ़िल्म, ‘मदर इंडिया’ का गीत ‘दुःख भरे दिन बीते रे भैया, अब सुख आयो रे; रंग जीवन में नया लायो रे’ गुनगुनाने की कोशिश सोते-जागते करते-करते थक गया हूं; मगर ज़ुबान है कि साथ ही नहीं देती।
नरेंद्र भाई हमारे प्रधानमंत्री बने तो दो-ढाई बरस तक तो पूरे मुल्क़ ने उन्हें मुग्ध-भाव से निहारते रहने के अलावा कुछ और किया ही नहीं। उनके मुखारविंद से निकला एक-एक शब्द बहुतों के लिए ब्रह्म-वाक्य था। फिर तीन साल पहले, 2016 के 8 नवंबर को नरेंद्र भाई ने साढ़े सत्रह लाख करोड़ रुपए के नोटों को रात आठ बजे रद्दी में तब्दील कर दिया तो सहमा हुआ देश पूरे 52 दिन कतार में खड़ा हो कर उनके इस यज्ञ में अपनी आहुति देता रहा। और, जब इसके पांच दिन बाद ही गोवा में हरदिल-अजीज़ प्रधानमंत्री का गला देश की जनता से पचास दिनों की भिक्षा मांगते हुए यह कहते भर आया कि ‘अगर आपके जीवन की मुश्क़िलें 30 दिसंबर के बाद दूर न हो जाएं और नोट-बंदी में मेरी कोई ग़लती नज़र आ जाए तो मुझे चौराहे पर ज़िंदा जला देना’ तो ठुमकों की झड़ी लग गई।
उस साल 12 नवंबर को इसी पन्ने पर, इसी जगह, छपे अपने लेख में मैंने लिखा था: ‘भारत का प्रधानमंत्री पर-पीड़ा की प्रसन्नता से लबालब होने की ऐसी ललक पाले बैठा था कि पहली फुर्सत पाते ही अपने ही देश पर पिल पड़ा। मैं तो समझता था कि नाक पर बैठी मक्खी उड़ाने के लिए नाक ही काट देने के क़िस्से अब पुराने पड़ गए हैं। तलवारों से अगर मौसम बदले जा सकते तो फिर बात ही क्या थी?’ फिर 19 नवंबर को मैं ने लिखा: ‘अपनी प्रजा की मुसीबतों का ज़िक्र करते हुए जिस मुल्क़ के बादशाह की बांछें परदेस की ज़मीन पर भी खिल जाती हों, उससे अब भी आस लगाए बैठे महामनाओं को क्या कहें!…जो काम लुंजपुंज विपक्ष अगले ढाई साल में शायद ही कर पाता, वह नरेंद्र भाई के फ़ैसले ने ख़ुद ही कर डाला। मोदी ने भाजपा के बांस उलटे बरेली के लिए लदवा दिए हैं।…’
अगले ढाई साल मुझे जैसे कई लोग लिखते रहे कि सब चौपट हो रहा है। नरेंद्र भाई के ही बहुत-से लोग मुझ से निजी बातचीत में कहते रहे कि उलटी गिनती शुरू हो गई है। भाजपा के सुब्रह्मण्यम स्वामी और गोविंदाचार्य जैसे महारथी नोट-बंदी को आर्थिक तरक़्की की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बताते रहे। देशवासी अपने हाथ से फिसलते रोज़गार और तेज़ी से नीचे लुढ़कती अर्थव्यवस्था को टुकुर-टुकुर ताकते रहे। मगर 2019 में नरेंद्र भाई 303 के आंकड़ें के साथ जब दोबारा लोकसभा की छाती पर चढ़ बैठे तो सब हकबका गए। सब सकपका गए।
सकपकाहट का यह दौर हरियाणा और महाराष्ट्र की विधानसभाओं के चुनाव नतीजों के बाद थोड़ा थमा है। दोनों राज्यों में मतदाताओं के मूक-विद्रोह ने, मानें-न-मानें, नरेंद्र भाई को भीतर से झिंझोड़ दिया है। रही-सही कसर महाराष्ट्र में सरकार बनाने की उनकी निर्लज्ज तिकड़मों की सरेआम मात ने पूरी कर दी है। इन दो थपेड़ों ने नरेंद्र भाई और उनके सबसे बड़े बग़लगीर अमित भाई शाह को अपनी-अपनी ठोड़ियों पर हाथ रख कर सोचने पर मजबूर कर दिया है। राजनीति शास्त्र के पहली कक्षा के विद्यार्थी की अधकचरी समझ भी इतना तो समझ ही सकती है कि देश की सियासत अब करवट ले रही है। मुल्क़ राजनीति की ‘मोशा’ शैली को अब खुल कर नकार रहा है। आने वाले दिन भारतीय जनता पार्टी के लिए अच्छी ख़बर ले कर नहीं आ रहे हैं।
झारखंड और दिल्ली की विधानसभाओं के चुनाव नतीजों के बाद सियासी-पराली के धुएं से बदरंग आसमान और साफ़ हो जाएगा। दोनों ही प्रदेशों में, और जो हो-सो-हो, भाजपा हाशिए पर जा रही है। एक साल से भारत की गीत-माला में हर सप्ताह भाजपा-गान एक-एक पायदान नीचे खिसक रहा है। होली आते-आते हमारे राजनीतिक क्षितिज पर कई ऐसे नए रंग अपनी मौजूदगी दर्ज़ करा लेंगे, जिन्हें देख-देख कर भाजपा का रंग उड़ रहा होगा। आंधी आती देख शुतुरमुर्ग रेत में अपनी गर्दन घुसा लेता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम; मगर अर्थव्यवस्था, राज-काज और राजनय की चरमराहट को नरेंद्र भाई और उनकी सरकार ने पिछले दो-तीन बरस में सुनने से जिस तरह इनकार किया है, उसका ख़ामियाज़ा देश को जितना भुगतना था, देश ने भुगत लिया। अब तो नरेंद्र भाई की हुकूमत और अमित भाई की भाजपा को इसका हिसाब चुकाना है।
मगर उनसे हिसाब लेना आसान नहीं होगा। वे दोनों किसी को हिसाब देने के नहीं, सब का हिसाब लेने के आदी हैं। बहुमत की ‘थ्री नॉट थ्री’ उनके कंधे पर लटकी है, जिसके लाइसेंस का नवीनीकरण 2024 की गर्मियों से पहले होने वाला नहीं है। जो नरेंद्र भाई चार पल भी हाथ-पर-हाथ धरे नहीं बैठे रहते हैं, क्या वे चार साल बैठे-बैठे तंबूरा बजाएंगे? वे अंगड़ाई ले रहे विपक्ष की कमर तोड़ने के लिए नित नई जुगत क्यों नहीं भिड़ाएंगे? इसलिए जिन्हें लग रहा है कि वे देश की सियासत को इतनी आसानी से करवट ले लेने देंगे, वे अपने ख़यालों की इंद्रसभा से बाहर आएं। करवट लेने में सियासत का हाथ बंटाएं। वरना सब भूल जाएं और 2024 के बाद भी पांच साल के अरण्य-रोदन के लिए अपने को तैयार करें।
बावजूद इसके कि नरेंद्र भाई में आगा-पीछा देखे बिना पराक्रम दिखाने की असीम संभावनाएं हैं, बावजूद इसके कि अमित भाई में परंपराओं की परवाह किए बिना सियासी उठापटक करने की असीम शक्ति है, बावजूद इसके कि भाजपा के पितृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रशासन के चप्पे-चप्पे पर अपने प्रहरी तैनात कर दिए हैं और बावजूद इसके कि समूचा विपक्ष खर्रांटे लेना बंद ही नहीं कर रहा है; मैं आश्वस्त हूं कि भारत की राजनीति अगले दो साल में करवट ले कर रहेगी। इसलिए कि विपक्ष कुछ करे-न-करे, अंततः लोग जाग रहे हैं। इसलिए भी कि मुझे भारतीय राजनीति की अर्थवान जीवात्मा पर अटूट विश्वास है। पांच हज़ार साल से भी ज़्यादा का इतिहास हमारी सामाजिक-राजनीतिक संरचना में निहित इस अणु-चैतन्यता का साक्षी है। हमने बार-बार देखा है कि ‘जब-जब होय धरम की हानि’, तब-तब यह जीवात्मा कोई-न-कोई शरीर धारण कर ही लेती है।
उन्हें ख़ुद अहसास हो-न-हो, लेकिन नरेंद्र भाई ने रायसीना-पहाड़ी की सीढ़ियां उतरना शुरू कर दिया है। वे चाहें-न-चाहें, उनकी लोकप्रियता का सूचकांक तेज़ी से नीचे फिसल रहा है। घर में घुस कर मारने के उनके जुमले निस्तेज हो गए हैं। सियासी-आसमान में तरह-तरह की आतिशबाज़ियां बिखरने वाले तीर उनके तरकश से गायब होते जा रहे हैं। वे ताश के अपने सारे जादू तक़रीबन दिखा चुके हैं। अपनी टोपी से खरगोश निकाल कर सब को विस्मित करने का उनका हुनर अब फीका पड़ता जा रहा है। वे भारी पैरों से अपना रास्ता तय करने की कोशिश कर रहे हैं। वे थकी बाहों से अपने नगाड़े पर थाप दे रहे हैं। आज वे उकता चुके लोगों के देश के मुखिया हैं। ये सारे लक्षण भारत के सुखद भविष्य की तरफ़ इशारा कर रहे हैं। अच्छे दिन अब आने वाले हैं।

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