जीरम घाटी में इस शनिवार की शाम माओवादियों के हमले से छत्तीसगढ़ सरकार के मुंह पर जो कालिख पुती है, उसे सात समंदर भी शायद ही कभी धो पाएं। सुकना के जंगलों में बरसों से अपना अड्डा जमाए बैठे माओवादियों के ठिकानों का पता लगाने के लिए अब से सात साल पहले मानव-रहित विमानों का इस्तेमाल करने का ऐलान करने वाली राज्य सरकार की इससे बड़ी सुरक्षा-नाकामी और क्या हो सकती है कि कांग्रेस के प्रदेश-अध्यक्ष और सलवा-जुडूम के संस्थापक सहित इतने बड़े-बड़े नेता सरेआम मार दिए जाएं?
आखिर महेंद्र कर्मा पर माओवादियों का यह कोई पहला हमला नहीं था। छह महीने पहले ही माओवादियों ने उनकी कार को विस्फोट से उ़ड़ाने की कोशिश की थी। उससे पहले भी उनकी जान लेने के लिए तीन हमले किए जा चुके थे। माओवादियों से निपटने के लिए आदिवासी समाज को उनके खिलाफ खड़ा करने में कर्मा ने दिन-रात एक किए थे। गोंड आदिवासियों की भाषा में सलवा-जुडूम का मतलब है शांति मार्च। आतंकवाद को जवाब देने का यह तरीका सिद्धांततः ठीक था, लेकिन उसे ले कर लोगों के अलग-अलग विचार भी थे। जिस छत्तीसगढ़ के दो लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की देखभाल करने के लिए महज पच्चीस हजार पुलिसकर्मी उपलब्ध हों, वहां अगर अपने को आतंकवादियों के साये से बचाने के लिए आदिवासी-समाज सलवा-जुडूम से न जुड़ता तो और क्या करता? अगर माओवादियों का सामना करने के लिए केंद्रीय सुरक्षा बलों के करीब बारह हजार जवान अलग से तैनात नहीं किए जाते तो मालूम नहीं हालात क्या होते?
छत्तीसगढ़ के धुर दक्षिण में सुकना की जीरम घाटी प्राचीन काल के दंडकारण्य वन का हिस्सा है। बस्तर के इस इलाक़े में जितना बड़ा और घना जंगल आज भी मौजूद है, देश में कहीं नहीं है। तकरीबन चार हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में जंगल-ही-जंगल है। सुकना के जंगल एक तरफ आंध्र प्रदेश तक और दूसरी तरफ उड़ीसा तक पसरे हुए हैं। जंगलों के बीच साबरी नदी बहती है और उसमें दूर-दूर तक मशहूर झींगा मछलियों की अपार तादाद मौजूद है। माओवादियों को अपने लिए इससे अच्छा स्वर्ग और कहां मिल सकता है? छत्तीसगढ़ में चल रहे दो दर्जन से ज़्यादा माओवादी प्रशिक्षण शिविरों में से अधिकतर इसी इलाक़े में हैं।
क्या ऐसा हो सकता है कि किसी राज्य सरकार को अपने यहां चल रहे आतंकवादी शिविरों के बारे में कोई जानकारी ही न हो? छत्तीसगढ़ में नक्सली आतंक की मौजूदा शक़्ल ने पिछले एक दशक में यह आकार लिया है। इसलिए क्या वह सरकार अपनी जवाबदेही से बच सकती है, जो पिछले साढ़े नौ साल से वहां चल रही है? सही है कि आतंकवादी घटनाएं राजनीतिक कुश्तियों के आयोजन का आधार नहीं बननी चाहिए। लेकिन इस बहाने क्या बुनियादी तथ्यों पर लीपापोती होनी चाहिए? छत्तीसगढ़ में पिछले साल माओवादी हमले की 76 घटनाएं हुई थीं। यानी हर चैथे दिन एक घटना। उसके पहले वाले साल में भी माओवादी हमलों का औसत कमोबेश यही था। ऐसे में क्या राज्य सरकार को यह जवाब नहीं देना चाहिए कि नक्सली आतंक के खिलाफ मोर्चा संभालने में उसकी नाकामी के पीछे कारण क्या हैं?
पिछले नौ साल में छत्तीसगढ़ में दो हज़ार से ज़्यादा लोग नक्सली हमलों में मारे गए हैं। महेंद्र कर्मा, नंद कुमार पटेल, उनका बेटा और बाकी कांग्रेसी नेता उन सात सौ से ज़्यादा नागरिकों में हैं, जिन्हें माओवादियों ने नौ वर्ष में अपना शिकार बनाया है। इस दौरान करीब नौ सौ पुलिसकर्मियों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। लेकिन इन तथ्यों को नज़रअंदाज कर छत्तीसगढ़ की सरकार शतुरमुर्गी मुद्रा में बैठी यह सोचकर खुश होती रही कि नवम्बर 2011 में माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी के मारे जाने के बाद बाकी कुछ राज्यों में माओवादियों की जो प्रतिक्रिया सामने आई, छत्तीसगढ़ में वैसा कुछ नहीं हुआ। पिछले साल की जनवरी में राज्य के पुलिस महानिदेशक अनिल नवाने चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों की गतिविधियों पर काफी काबू पा लिया गया है। वे खुफिया तंत्र के बेहतर इस्तेमाल के जरिए यह उपलब्धि हासिल करने के लिए अपनी पीठ ठोक रहे थे। छत्तीसगढ़ सरकार को यह समझ ही नहीं आया कि माओवादी अपने को आगे के लिए संगठित और एकजुट करने काम में खामोशी से लगे हुए थे। दूसरी तरफ राज्य सरकार की हालत यह थी कि वह माओवादियों की मौजूदगी की खबर पा कर जिस-जिस गांव में छापा मार रही थी, वहां से माओवादी पहले ही गायब हो जाते थे। बस्तर, बीजापुर, दंतेवाड़ा, नारायणपुर, जशपुर, कांकेर, गरियाबंद, जहां-जहां सुरक्षा बल पहुंचते, खाली हाथ लौट आते।
माओवादियों के हमले छत्तीसगढ़ के श्हारी इलाकों में भी तेज हो गए थे। उन्होंने गीदम का दो मंजिला पुलिस थाना बम से उडा दिया, लेकिन राज्य सरकार की आंखें नहीं खुलीं। माओवादियों ने राष्ट्रीय राजमार्ग-16 पर सीमा सुरक्षा बल के वाहन-कारवां को विस्फोट से उडा दिया, लेकिन राज्य सरकार की नींद नहीं खुली। केंद्रीय खुफिया एजेंसियों ने छत्तीसगढ़-सरकार को बताया कि माओवादियों के पास ऐसे आधुनिक उपकरण आ गए है, जिनसे वे पेड़ों पर लटके विस्फोटकों को तीन सौ मीटर दूर से रिमोट के जरिए संचालित कर सकते हैं, लेकिन राज्य-सरकार खर्राटें भरती रही।
माओवादी बीजापुर से गंगलूर तक की 23 किलोमीटर लंबी पूरी मुख्य सड़क को सुरंग बिछाकर विस्फोट के जरिए तबाह कर चुकी थी, वे बीजापुर के पास सीआरपीएफ की 85वीं बटालियन के शिविर पर हमला बोल कर उसे तबाह कर चुके थे और छत्तीसगढ़ सरकार को लग रहा था कि सब-कुछ काबू में है। माओवादियों के एक नेता घस्सू उर्फ राजबेरिया ने अपनी गिरफ्तारी के बाद बताया कि किस तरह उनका संगठन समानांतर सरकार की तरह काम कर रहा है और कैसे उनका खुफिया जाल तहसील और ब्लॉक स्तर तक फैला हुआ है, इसके बाद भी छत्तीसगढ़ सरकार को यह चिंता नहीं थी कि उसकी खुफिया सूचनाओं की जानकारी माओवादियों को समय रहते कैसे मिल जाती है?
कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के दौरान जीरम घाटी में मारे गए कांग्रेसी नेताओं का खून से यही चीखता हुआ सवाल आज उठ रहा है। अगर छत्तीसगढ़ में माओवादियों पर थोड़ा भी काबू पा लिया गया होता तो क्या वे देश के एक प्रमुख राजनीतिक दल के बड़े प्रादेशिक नेताओं पर खुलेआम हमले का यह हौसला दिखाते? लेकिन असलियत यह है कि छत्तीसगढ़ में चल रही सरकार ने नौ साल में माओवादियों से प्रभावित क्षेत्रों में विकास योजनाओं को ठीक से लागू नहीं किया। ग्रामीण इलाकों में रोज़गार देने की महात्मा गांधी नरेगा योजना की अनदेखी की।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। नारायणपुर जैसे इलाकों में सरकार की विकास कार्यों में कहीं कोई भूमिका दिखाई तक नहीं देती थी। नक्सल प्रभावित इलाक़ों में सड़कें बनाने के लिए 90 प्रतिशत रकम केंद्र सरकार ने दी, लेकिन सड़कों का आज भी कहीं अता-पता नहीं है।
इसलिए जीरम घाटी की घटना खुमारी की शिकार छत्तीसगढ़-सरकार की उनींदी आंखों का नतीजा है। यह मौका शायद इस तरह के सवाल उठाने का नहीं है कि आखिर किसी भी आतंकवादी समूह का निशाना कांग्रेस ही क्यों बनती है? लेकिन यह मौका इतना पूछने का तो ज़रूर है कि क्या किसी प्रदेश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को एक ऐसी सरकार के भरोसे छोड़े रखा जा सकता है, जो माओवादियों के नगाड़ों की गूंज अनसुनी करने की आदी हो गई है? इस बार की देरी एक ऐसे अंधेरे को जन्म देगी, जिसे हमारी आकाशगंगा के सारे सूरज भी मिल कर दूर नहीं कर पाएंगे।
आखिर महेंद्र कर्मा पर माओवादियों का यह कोई पहला हमला नहीं था। छह महीने पहले ही माओवादियों ने उनकी कार को विस्फोट से उ़ड़ाने की कोशिश की थी। उससे पहले भी उनकी जान लेने के लिए तीन हमले किए जा चुके थे। माओवादियों से निपटने के लिए आदिवासी समाज को उनके खिलाफ खड़ा करने में कर्मा ने दिन-रात एक किए थे। गोंड आदिवासियों की भाषा में सलवा-जुडूम का मतलब है शांति मार्च। आतंकवाद को जवाब देने का यह तरीका सिद्धांततः ठीक था, लेकिन उसे ले कर लोगों के अलग-अलग विचार भी थे। जिस छत्तीसगढ़ के दो लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की देखभाल करने के लिए महज पच्चीस हजार पुलिसकर्मी उपलब्ध हों, वहां अगर अपने को आतंकवादियों के साये से बचाने के लिए आदिवासी-समाज सलवा-जुडूम से न जुड़ता तो और क्या करता? अगर माओवादियों का सामना करने के लिए केंद्रीय सुरक्षा बलों के करीब बारह हजार जवान अलग से तैनात नहीं किए जाते तो मालूम नहीं हालात क्या होते?
छत्तीसगढ़ के धुर दक्षिण में सुकना की जीरम घाटी प्राचीन काल के दंडकारण्य वन का हिस्सा है। बस्तर के इस इलाक़े में जितना बड़ा और घना जंगल आज भी मौजूद है, देश में कहीं नहीं है। तकरीबन चार हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में जंगल-ही-जंगल है। सुकना के जंगल एक तरफ आंध्र प्रदेश तक और दूसरी तरफ उड़ीसा तक पसरे हुए हैं। जंगलों के बीच साबरी नदी बहती है और उसमें दूर-दूर तक मशहूर झींगा मछलियों की अपार तादाद मौजूद है। माओवादियों को अपने लिए इससे अच्छा स्वर्ग और कहां मिल सकता है? छत्तीसगढ़ में चल रहे दो दर्जन से ज़्यादा माओवादी प्रशिक्षण शिविरों में से अधिकतर इसी इलाक़े में हैं।
क्या ऐसा हो सकता है कि किसी राज्य सरकार को अपने यहां चल रहे आतंकवादी शिविरों के बारे में कोई जानकारी ही न हो? छत्तीसगढ़ में नक्सली आतंक की मौजूदा शक़्ल ने पिछले एक दशक में यह आकार लिया है। इसलिए क्या वह सरकार अपनी जवाबदेही से बच सकती है, जो पिछले साढ़े नौ साल से वहां चल रही है? सही है कि आतंकवादी घटनाएं राजनीतिक कुश्तियों के आयोजन का आधार नहीं बननी चाहिए। लेकिन इस बहाने क्या बुनियादी तथ्यों पर लीपापोती होनी चाहिए? छत्तीसगढ़ में पिछले साल माओवादी हमले की 76 घटनाएं हुई थीं। यानी हर चैथे दिन एक घटना। उसके पहले वाले साल में भी माओवादी हमलों का औसत कमोबेश यही था। ऐसे में क्या राज्य सरकार को यह जवाब नहीं देना चाहिए कि नक्सली आतंक के खिलाफ मोर्चा संभालने में उसकी नाकामी के पीछे कारण क्या हैं?
पिछले नौ साल में छत्तीसगढ़ में दो हज़ार से ज़्यादा लोग नक्सली हमलों में मारे गए हैं। महेंद्र कर्मा, नंद कुमार पटेल, उनका बेटा और बाकी कांग्रेसी नेता उन सात सौ से ज़्यादा नागरिकों में हैं, जिन्हें माओवादियों ने नौ वर्ष में अपना शिकार बनाया है। इस दौरान करीब नौ सौ पुलिसकर्मियों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। लेकिन इन तथ्यों को नज़रअंदाज कर छत्तीसगढ़ की सरकार शतुरमुर्गी मुद्रा में बैठी यह सोचकर खुश होती रही कि नवम्बर 2011 में माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी के मारे जाने के बाद बाकी कुछ राज्यों में माओवादियों की जो प्रतिक्रिया सामने आई, छत्तीसगढ़ में वैसा कुछ नहीं हुआ। पिछले साल की जनवरी में राज्य के पुलिस महानिदेशक अनिल नवाने चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों की गतिविधियों पर काफी काबू पा लिया गया है। वे खुफिया तंत्र के बेहतर इस्तेमाल के जरिए यह उपलब्धि हासिल करने के लिए अपनी पीठ ठोक रहे थे। छत्तीसगढ़ सरकार को यह समझ ही नहीं आया कि माओवादी अपने को आगे के लिए संगठित और एकजुट करने काम में खामोशी से लगे हुए थे। दूसरी तरफ राज्य सरकार की हालत यह थी कि वह माओवादियों की मौजूदगी की खबर पा कर जिस-जिस गांव में छापा मार रही थी, वहां से माओवादी पहले ही गायब हो जाते थे। बस्तर, बीजापुर, दंतेवाड़ा, नारायणपुर, जशपुर, कांकेर, गरियाबंद, जहां-जहां सुरक्षा बल पहुंचते, खाली हाथ लौट आते।
माओवादियों के हमले छत्तीसगढ़ के श्हारी इलाकों में भी तेज हो गए थे। उन्होंने गीदम का दो मंजिला पुलिस थाना बम से उडा दिया, लेकिन राज्य सरकार की आंखें नहीं खुलीं। माओवादियों ने राष्ट्रीय राजमार्ग-16 पर सीमा सुरक्षा बल के वाहन-कारवां को विस्फोट से उडा दिया, लेकिन राज्य सरकार की नींद नहीं खुली। केंद्रीय खुफिया एजेंसियों ने छत्तीसगढ़-सरकार को बताया कि माओवादियों के पास ऐसे आधुनिक उपकरण आ गए है, जिनसे वे पेड़ों पर लटके विस्फोटकों को तीन सौ मीटर दूर से रिमोट के जरिए संचालित कर सकते हैं, लेकिन राज्य-सरकार खर्राटें भरती रही।
माओवादी बीजापुर से गंगलूर तक की 23 किलोमीटर लंबी पूरी मुख्य सड़क को सुरंग बिछाकर विस्फोट के जरिए तबाह कर चुकी थी, वे बीजापुर के पास सीआरपीएफ की 85वीं बटालियन के शिविर पर हमला बोल कर उसे तबाह कर चुके थे और छत्तीसगढ़ सरकार को लग रहा था कि सब-कुछ काबू में है। माओवादियों के एक नेता घस्सू उर्फ राजबेरिया ने अपनी गिरफ्तारी के बाद बताया कि किस तरह उनका संगठन समानांतर सरकार की तरह काम कर रहा है और कैसे उनका खुफिया जाल तहसील और ब्लॉक स्तर तक फैला हुआ है, इसके बाद भी छत्तीसगढ़ सरकार को यह चिंता नहीं थी कि उसकी खुफिया सूचनाओं की जानकारी माओवादियों को समय रहते कैसे मिल जाती है?
कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा के दौरान जीरम घाटी में मारे गए कांग्रेसी नेताओं का खून से यही चीखता हुआ सवाल आज उठ रहा है। अगर छत्तीसगढ़ में माओवादियों पर थोड़ा भी काबू पा लिया गया होता तो क्या वे देश के एक प्रमुख राजनीतिक दल के बड़े प्रादेशिक नेताओं पर खुलेआम हमले का यह हौसला दिखाते? लेकिन असलियत यह है कि छत्तीसगढ़ में चल रही सरकार ने नौ साल में माओवादियों से प्रभावित क्षेत्रों में विकास योजनाओं को ठीक से लागू नहीं किया। ग्रामीण इलाकों में रोज़गार देने की महात्मा गांधी नरेगा योजना की अनदेखी की।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। नारायणपुर जैसे इलाकों में सरकार की विकास कार्यों में कहीं कोई भूमिका दिखाई तक नहीं देती थी। नक्सल प्रभावित इलाक़ों में सड़कें बनाने के लिए 90 प्रतिशत रकम केंद्र सरकार ने दी, लेकिन सड़कों का आज भी कहीं अता-पता नहीं है।
इसलिए जीरम घाटी की घटना खुमारी की शिकार छत्तीसगढ़-सरकार की उनींदी आंखों का नतीजा है। यह मौका शायद इस तरह के सवाल उठाने का नहीं है कि आखिर किसी भी आतंकवादी समूह का निशाना कांग्रेस ही क्यों बनती है? लेकिन यह मौका इतना पूछने का तो ज़रूर है कि क्या किसी प्रदेश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को एक ऐसी सरकार के भरोसे छोड़े रखा जा सकता है, जो माओवादियों के नगाड़ों की गूंज अनसुनी करने की आदी हो गई है? इस बार की देरी एक ऐसे अंधेरे को जन्म देगी, जिसे हमारी आकाशगंगा के सारे सूरज भी मिल कर दूर नहीं कर पाएंगे।
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