कांग्रेस-मुक्त भारत का सपना देख रहे नरेंद्र मोदी अकेले यह भाड़ फोड़ पाएंगे या नहीं, इस पर तो ज़्यादा सोच-विचार की ज़रूरत ही नहीं है, मगर उन्होंने फि़लहाल एनडीए तो एनडीए, भारतीय जनता पार्टी के तालाब को भी बुरी तरह गंदा कर दिया है। भारतीय राजनीति की पतन-गाथाओं के किस्से कई पन्नों में पसरे पड़े होंगे, लेकिन किसी आत्म-मुग्ध सियासतदां का ऐसा नंगा नाच पहले किसी ने नहीं देखा होगा। सबसे अलग होने का दावा करने वाले राजनीतिक दल की इस दुर्दशा पर इसलिए खुश भी नहीं हुआ जा सकता है कि आखि़रकार इस पूरी प्रक्रिया में लोकतंत्र के माथे पर जो कालिख पुत रही है, लाख पोंछने पर भी उसके दाग़ दषकों तक नहीं मिट पाएंगे।
भाजपा में जो हो रहा है, वह उसका भीतरी मामला भले ही हो, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी राजनीतिक दल के बरामदे और शयन-कक्ष के बीच इतनी मोटी कोई दीवार बनाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है कि उस पार घट रही घटनाओं की पूरी अनदेखी ही हो जाए। लोकतंत्र की काया राजनीतिक दलों के भीतरी-बाहरी आचरण और व्यवहार से शक़्ल लेती है। क्या किसी को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने स्व-केंद्रित मक़सदों को पूरा करने के लिए लोकतंत्र के षरीर को अष्टावक्र में तब्दील कर दे? इसलिए भाजपा की भीतरी सत्ता जबर्दस्ती हथियाने के जिस खेल की बिसात नरेंद्र मोदी महीनों से बिछा रहे थे और जिसका पटाक्षेप उनके हिसाब से गोवा में हो गया है, उसे सिर्फ़ भाजपा का मसला मान लेना ग़लती होगी। उनके इस खेल ने भले ही एनडीए की जड़ों में मट्ठा डाल दिया है, लेकिन इसे सिर्फ़ एक राजनीतिक समूह का अंतःपुरी मामला मान लेना भी ग़लत होगा। यह दरअसल सियासत में मोदी-प्रवृत्ति को पनाह देने-न-देने का सैद्धांतिक फ़ैसला लेने से जुड़ा बुनियादी मामला है और इसे इसी निग़ाह से देखना होगा।
भाजपा में चल रही उठापटक के इस दौर में जिनके मन में लालकृष्ण आडवाणी से सहानुभूति के भाव हिलोरें ले रहे हैं, उन्हें भी यह याद रखना चाहिए कि आखिर ये वही आडवाणी हैं, जो 21 साल पहले छह दिसम्बर को अयोध्या में कारसेवकों की कुदालों की धुन पर थिरक रहे थे। ये वही आडवाणी हैं, जिन्होंने सोमनाथ से शुरू हुई अपनी रथ-यात्रा की डोर मोदी को थमाई थी। और, ये वही आडवाणी हैं, जिन्होंने राजधर्म की याद दिला रहे अटल बिहारी वाजपेयी को बवाल का डर दिखा कर मुख्यमंत्री की कुर्सी से मोदी की विदाई को रुकवाया था। आज आडवाणी को भले ही भाजपा श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देखमुख के रास्ते से अलग जाती दिखाई दे रही हो, लेकिन क्या असलियत यह नहीं है कि नरेंद्र मोदी अपने पुरखों की बताई नफ़रत भरी राह पर इतने तेज़-तर्रार तरीक़े से चल कर एक ऐसी जगह पहुंच गए हैं कि आज उन्हें अपनी पार्टी तक में किसी की भी परवाह नहीं है। इसलिए आडवाणी की बुजु़र्गियत के प्रति पूरे सम्मान और अपने बड़े-बूढ़ों के लिए मोदी के घनघोर तिरस्कार-भाव के प्रति पूरे नकार के बावजूद मैं कहना चाहता हूं कि जो हो रहा है, प्राकृतिक-न्याय व्यवस्था का हिस्सा है। मोदी की बुआई के बाद अरसे तक उन पर अपने आशीर्वाद की बारिश करते रहे आडवाणी को क्या मालूम नहीं था कि वे किस बीज की सिंचाई कर रहे हैं? गड़बड़ तो तब शुरू हुई, जब प्रधानमंत्री की कुर्सी की ललक के चलते आडवाणी संशोधनवादी बनने लगे और मोदी बाग़ी हो गए। राजनीति के इस बीहड़ में भाजपा के दम-घोंटू संघर्ष की यह इबारत तो तभी लिखी जा चुकी थी। गोवा में तो इस कथा का एक अध्याय भर पूरा हुआ है। अभी तो आप-हम कई अध्याय और देखेंगे।
मोदी में अगर थोड़ी भी राजनीतिक परिपक्वता होती तो वे किसी भी राजनीतिक विचार या दल से मुक्त भारत की स्थापना का नारा बुलंद नहीं करते। वे भूल गए कि जब कांग्रेस देश की स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रही थी, तब आज की भाजपा के पूर्वज क्या भूमिका अदा कर रहे थे? मोदी यह भी भूल गए कि स्वतंत्र भारत के निर्माण में जब कांग्रेस अपने दिन-रात एक कर रही थी तो भाजपा की पितृ-संस्था जनसंघ समाज को बांटने में लगी हुई थी। मोदी को यह भी याद नहीं रहा कि कांग्रेस को देश-निकाला देने का बीड़ा उठा कर वे उस विचार को हिंद महासागर में फेंकने की वक़ालत कर रहे हैं, जिसने इस देश को छुआछूत से मुक्ति दिलाई, दलितों और वंचितों को जलालत से मुक्ति दिलाई, किसानों को उनके हक़ दिलाए और सामाजिक भाई-चारे को हर हाल में बनाए रखने का काम किया। मोदी जानते हैं कि कांग्रेस रहेगी तो गरीबी से मुक्ति की बात करेगी, नफ़रत से मुक्ति की बात करेगी, असुरक्षा से मुक्ति की बात करेगी। इसलिए मोदी को कांग्रेस से मुक्ति की आवाज़ उठाना ज़रूरी लगता है।
मोदी नहीं चाहते कि राष्ट्रीय नीतियां बनाने वाली संस्थाओं में आदिवासियों के हितों की बात करने वाला कोई हो। वे मुद्दों पर बात करने के बजाय प्रधानमंत्री की चाल-ढाल पर टिप्पणियां करने में रस लेते हैं। उन्हें लगता है कि अगर कोई सरकार, प्रधानमंत्री या राजनीतिक दल किसी असहमत समूह को संविधान के दायरे में अपनी बात कहने का हक़ दे रहा है तो यह देश-द्रोह है। उनके विधान में बहुलतावाद के लिए कोई जगह नहीं है और अपने से अलग मजहबों के लिए कोई आदर नहीं है। मोदी चाहते हैं कि देश उनकी सनक के हिसाब से चले। वे छलांग लगा कर प्रधानमंत्री के सिंहासन पर कब्जा कर लेना चाहते हैं। लेकिन क्या इस तरह की एकतरफ़ा मानसिकता से भारत जैसे मुल्क़ को कोई चला सकता है? ज़रा सोचिए कि अगर आज़ादी के बाद बनी कांग्रेसी सरकारों ने इसी मानसिकता से काम लिया होता तो संघ-गिरोह की उस विचारधारा पर चलने वालों का क्या हाल हुआ होता, जो हमारे संविधान की मूल भावना के एकदम उलट है? अगर असहमतियों को कुचल देने की नीति पर कांग्रेस चली होती तो आज मोदी कांग्रेस-मुक्त देश बनाने की हास्यास्पद बात सोच भी पाते?
फासीवाद क्या है? किसी भी तरह की असहमति का असहनीय होना फासीवाद का पहला सामान्य लक्षण है। इसी मानसिकता के चलते गांधी से असहमत गोडसे को गोली ही एकमात्र समाधान दिखती है। खुद के संघ-कुनबे में संजय जोशी और प्रवीण तोगडि़या को और अपनी ही पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज को दुश्मन मानने वाले मोदी क्या किसी और की असहमति को कभी बर्दाश्त कर पाएंगे? इसलिए आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति को एक ऐसे व्यक्ति से निपटना है, जिसे असहमति सहन नहीं है। प्रधानमंत्री तो वे भला क्या बनेंगे, लेकिन देश को दरअसल तय तो यह करना होगा कि लोकतंत्र में ऐसे किसी व्यक्ति की क्या जगह होनी चाहिए, जो हिटलर की तरह उस विचार या नस्ल का जड़ से नाश कर देने के इरादे से घर से निकला हो, जो उसे पसंद नहीं है? मोदी एनडीए या भाजपा का संकट नहीं हैं। वे भारत की मूल-अवधारणा का संकट हैं।
भाजपा में जो हो रहा है, वह उसका भीतरी मामला भले ही हो, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी राजनीतिक दल के बरामदे और शयन-कक्ष के बीच इतनी मोटी कोई दीवार बनाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है कि उस पार घट रही घटनाओं की पूरी अनदेखी ही हो जाए। लोकतंत्र की काया राजनीतिक दलों के भीतरी-बाहरी आचरण और व्यवहार से शक़्ल लेती है। क्या किसी को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने स्व-केंद्रित मक़सदों को पूरा करने के लिए लोकतंत्र के षरीर को अष्टावक्र में तब्दील कर दे? इसलिए भाजपा की भीतरी सत्ता जबर्दस्ती हथियाने के जिस खेल की बिसात नरेंद्र मोदी महीनों से बिछा रहे थे और जिसका पटाक्षेप उनके हिसाब से गोवा में हो गया है, उसे सिर्फ़ भाजपा का मसला मान लेना ग़लती होगी। उनके इस खेल ने भले ही एनडीए की जड़ों में मट्ठा डाल दिया है, लेकिन इसे सिर्फ़ एक राजनीतिक समूह का अंतःपुरी मामला मान लेना भी ग़लत होगा। यह दरअसल सियासत में मोदी-प्रवृत्ति को पनाह देने-न-देने का सैद्धांतिक फ़ैसला लेने से जुड़ा बुनियादी मामला है और इसे इसी निग़ाह से देखना होगा।
भाजपा में चल रही उठापटक के इस दौर में जिनके मन में लालकृष्ण आडवाणी से सहानुभूति के भाव हिलोरें ले रहे हैं, उन्हें भी यह याद रखना चाहिए कि आखिर ये वही आडवाणी हैं, जो 21 साल पहले छह दिसम्बर को अयोध्या में कारसेवकों की कुदालों की धुन पर थिरक रहे थे। ये वही आडवाणी हैं, जिन्होंने सोमनाथ से शुरू हुई अपनी रथ-यात्रा की डोर मोदी को थमाई थी। और, ये वही आडवाणी हैं, जिन्होंने राजधर्म की याद दिला रहे अटल बिहारी वाजपेयी को बवाल का डर दिखा कर मुख्यमंत्री की कुर्सी से मोदी की विदाई को रुकवाया था। आज आडवाणी को भले ही भाजपा श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देखमुख के रास्ते से अलग जाती दिखाई दे रही हो, लेकिन क्या असलियत यह नहीं है कि नरेंद्र मोदी अपने पुरखों की बताई नफ़रत भरी राह पर इतने तेज़-तर्रार तरीक़े से चल कर एक ऐसी जगह पहुंच गए हैं कि आज उन्हें अपनी पार्टी तक में किसी की भी परवाह नहीं है। इसलिए आडवाणी की बुजु़र्गियत के प्रति पूरे सम्मान और अपने बड़े-बूढ़ों के लिए मोदी के घनघोर तिरस्कार-भाव के प्रति पूरे नकार के बावजूद मैं कहना चाहता हूं कि जो हो रहा है, प्राकृतिक-न्याय व्यवस्था का हिस्सा है। मोदी की बुआई के बाद अरसे तक उन पर अपने आशीर्वाद की बारिश करते रहे आडवाणी को क्या मालूम नहीं था कि वे किस बीज की सिंचाई कर रहे हैं? गड़बड़ तो तब शुरू हुई, जब प्रधानमंत्री की कुर्सी की ललक के चलते आडवाणी संशोधनवादी बनने लगे और मोदी बाग़ी हो गए। राजनीति के इस बीहड़ में भाजपा के दम-घोंटू संघर्ष की यह इबारत तो तभी लिखी जा चुकी थी। गोवा में तो इस कथा का एक अध्याय भर पूरा हुआ है। अभी तो आप-हम कई अध्याय और देखेंगे।
मोदी में अगर थोड़ी भी राजनीतिक परिपक्वता होती तो वे किसी भी राजनीतिक विचार या दल से मुक्त भारत की स्थापना का नारा बुलंद नहीं करते। वे भूल गए कि जब कांग्रेस देश की स्वाधीनता की लड़ाई लड़ रही थी, तब आज की भाजपा के पूर्वज क्या भूमिका अदा कर रहे थे? मोदी यह भी भूल गए कि स्वतंत्र भारत के निर्माण में जब कांग्रेस अपने दिन-रात एक कर रही थी तो भाजपा की पितृ-संस्था जनसंघ समाज को बांटने में लगी हुई थी। मोदी को यह भी याद नहीं रहा कि कांग्रेस को देश-निकाला देने का बीड़ा उठा कर वे उस विचार को हिंद महासागर में फेंकने की वक़ालत कर रहे हैं, जिसने इस देश को छुआछूत से मुक्ति दिलाई, दलितों और वंचितों को जलालत से मुक्ति दिलाई, किसानों को उनके हक़ दिलाए और सामाजिक भाई-चारे को हर हाल में बनाए रखने का काम किया। मोदी जानते हैं कि कांग्रेस रहेगी तो गरीबी से मुक्ति की बात करेगी, नफ़रत से मुक्ति की बात करेगी, असुरक्षा से मुक्ति की बात करेगी। इसलिए मोदी को कांग्रेस से मुक्ति की आवाज़ उठाना ज़रूरी लगता है।
मोदी नहीं चाहते कि राष्ट्रीय नीतियां बनाने वाली संस्थाओं में आदिवासियों के हितों की बात करने वाला कोई हो। वे मुद्दों पर बात करने के बजाय प्रधानमंत्री की चाल-ढाल पर टिप्पणियां करने में रस लेते हैं। उन्हें लगता है कि अगर कोई सरकार, प्रधानमंत्री या राजनीतिक दल किसी असहमत समूह को संविधान के दायरे में अपनी बात कहने का हक़ दे रहा है तो यह देश-द्रोह है। उनके विधान में बहुलतावाद के लिए कोई जगह नहीं है और अपने से अलग मजहबों के लिए कोई आदर नहीं है। मोदी चाहते हैं कि देश उनकी सनक के हिसाब से चले। वे छलांग लगा कर प्रधानमंत्री के सिंहासन पर कब्जा कर लेना चाहते हैं। लेकिन क्या इस तरह की एकतरफ़ा मानसिकता से भारत जैसे मुल्क़ को कोई चला सकता है? ज़रा सोचिए कि अगर आज़ादी के बाद बनी कांग्रेसी सरकारों ने इसी मानसिकता से काम लिया होता तो संघ-गिरोह की उस विचारधारा पर चलने वालों का क्या हाल हुआ होता, जो हमारे संविधान की मूल भावना के एकदम उलट है? अगर असहमतियों को कुचल देने की नीति पर कांग्रेस चली होती तो आज मोदी कांग्रेस-मुक्त देश बनाने की हास्यास्पद बात सोच भी पाते?
फासीवाद क्या है? किसी भी तरह की असहमति का असहनीय होना फासीवाद का पहला सामान्य लक्षण है। इसी मानसिकता के चलते गांधी से असहमत गोडसे को गोली ही एकमात्र समाधान दिखती है। खुद के संघ-कुनबे में संजय जोशी और प्रवीण तोगडि़या को और अपनी ही पार्टी में लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज को दुश्मन मानने वाले मोदी क्या किसी और की असहमति को कभी बर्दाश्त कर पाएंगे? इसलिए आने वाले दिनों में भारतीय राजनीति को एक ऐसे व्यक्ति से निपटना है, जिसे असहमति सहन नहीं है। प्रधानमंत्री तो वे भला क्या बनेंगे, लेकिन देश को दरअसल तय तो यह करना होगा कि लोकतंत्र में ऐसे किसी व्यक्ति की क्या जगह होनी चाहिए, जो हिटलर की तरह उस विचार या नस्ल का जड़ से नाश कर देने के इरादे से घर से निकला हो, जो उसे पसंद नहीं है? मोदी एनडीए या भाजपा का संकट नहीं हैं। वे भारत की मूल-अवधारणा का संकट हैं।
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