नरेंद्र भाई के लोकसभा में दिए भाषण की सबसे बड़ी बात क्या थी, जानते हैं आप? उन्होंने मोटे तौर पर कहा: “ एक समय था, संसद या विधानसभा में निर्वाचित प्रतिनिधि का सवाल आ जाता था तो पूरी सरकारी मशीनरी कांप जाती थी। अफ़सर परेशान हो जाते थे। घबराहट फैल जाती थी कि पता नहीं क्या होगा? लेकिन हम अपनी संसदीय प्रणाली को यहां तक ले आए हैं कि अब किसी अफ़सर को सवाल आने पर पसीना नहीं आता। हम संसद को कहां ले आए कि अफ़सरों को कोई डर नहीं रहा। हर निर्वाचित प्रतिनिधि का महत्व सरकारी मशीनरी के लिए प्रधानमंत्री से कम नहीं हो सकता। लेकिन आज हम आपस में तू-तू-मैं-मैं करते हैं और अफ़सर ताली बजाते हैं। अफ़सरशाही की जवाबदेही ख़त्म हो गई है। लोकतंत्र में जन-प्रतिनिधि तो हर पांच साल में जनता को जवाब देंगे। आएंगे, नहीं आएंगे, चलता रहेगा। लेकिन अफ़सरशाही का हिसाब लेने तो संसद ही एक जगह है। जब तक हम मिल कर इस समस्या को नहीं समझेंगे, तब तक एक सरकार को गालियां पड़ेंगी, फिर दूसरी सरकार आएगी तो उसे गालियां पड़ेंगी, लेकिन अफसरों का मज़ा लेना बंद नहीं होगा। भारत जैसे लोकतंत्र में हम देश के नागरिकों को अफ़सरशाही के भरासे नहीं छोड़ सकते।” नरेंद्र भाई की बात से मैं पूरी तरह सहमत हूं। उनका दर्द पूरी राजनीतिक व्यवस्था का दर्द है। लेकिन नरेंद्र भाई, मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूं। आप प्रधानमंत्री हैं। तीस साल बाद स्पष्ट बहुमत ले कर आने वाली पार्टी की सरकार के मुखिया हैं, ऐसी-वैसी सरकार के नहीं। सहयोगी दल अलग से साथ हैं। तब भी ऐसा क्यों हो रहा है कि अपने राजनीतिक सहयोगियों को किनारे करने के बाद आप खुद अफ़सरों को सिर-माथे लगाए घूम रहे हैं? साउथ ब्लॉक के आपके में दफ़्तर उन 222 कर्मचारियों का अमला किसने बैठाया है, जो हर मंत्रालय को सीधे चला रहे हैं? आपके ज़्यादातर मंत्री सिर्फ़ रबर-स्टांप क्यों बने हुए हैं? अफ़सर अपने महकमे के मंत्री को ठेंगे पर रखते हैं और आप उनसे सीधे मिल लेते हैं, यह व्यवस्था किसने शुरू की है? ऐसा क्यों है कि आपके यशस्वी माने जाने वाले मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह, वसुंधरा राजे, देवेंद्र फडनवीस और मनोहरलाल खट्टर अपने-अपने राज्यों में चार-पांच अफ़सरों की गोद में खेल रहे हैं? निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को दुत्कारने और नौकरशाही को पुचकारने का पाप करने के बाद अब रोना किस बात का नरेंद्र भाई? पर-उपदेश कुशल बहुतेरे।
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