प्रधानमंत्री ने जो किया, सो किया; लेकिन जैसे किया, ग़लत किया। 8 नवंबर की रात 8 बजे जब वे एकाएक टेलीविजन के परदे पर आए तो लोगों ने सोचा कि या तो पाकिस्तान से किसी जंग का ऐलान होने वाला है या फिर दाऊद इब्राहीम को पकड़ लाने जैसी कोई बड़ी ख़बर वे देश को देने वाले हैं। लेकिन जब उन्होंने भ्रष्टाचार का ज़िक्र शुरू किया तो सबकी समझ में आ गया कि वे गंदे पैसे के पतनाले पर काबू के लिए किसी क़दम की घोषणा करेंगे। मगर तब भी किसी ने नहीं सोचा कि चंद लमहों बाद पांच सौ और एक हज़ार के नोट चार घंटे बाद काग़ज़ के टुकड़ों में तब्दील होने की गाज गिरने वाली है। सो, पूरे मुल्क़ की आंखें प्रधानमंत्री के ऐलान से फटी रह गईं।
मैं धन को काले-सफेद से परिभाषित करने का हिमायती नहीं हूं। इसलिए कि इसमें रंग-भेद की बू है। जिस धन पर टैक्स नहीं चुकाया गया, उसे काला ही क्यों कहा जाए, नारंगी क्यों नहीं? जिस धन पर टैक्स दे दिया गया हो, वह सफेद ही क्यों है, गुलाबी क्यों नहीं? धन स्वच्छ-अस्वच्छ तो हो सकता है, सही और ग़लत तरीके से कमाया गया तो हो सकता है, लेकिन उसे काला-गोरा बताना तो काले रंग को हमेशा हिकारत से देखने और गोरे रंग पर हमेशा रीझते रहने से उपजी मानसिकता है। इसलिए मैं कहूंगा कि मोदी ने अस्वच्छ धन के बदबूदार नाले को सुखाने और स्वच्छ धन की गंगा बहाने के इरादे से इतना बड़ा ऐलान कर डाला।
तो नरेंद्र भाई की इस मंशा को तो कोई भी सही मानेगा और जब उन्होंने नोटों की क़ानूनी हैसियत चुटकी बजाते ही रद्द कर देने के अपने फ़ैसले से आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ाई को जोड़ दिया तो किसकी हिम्मत है कि सवाल खड़े करे? इसलिए मंगलवार की रात जिनके नोट रद्दी हो गए, वे भी अपने सीने पर पत्थर रख कर नरेंद्र भाई के छप्पन इंची सीने का गुणगान कर रहे हैं। हमारे प्रधानमंत्री की ‘मारे भी और रोने भी न दे’ वाली इस अदा पर फ़िदा लोगों की फ़िलहाल तो कोई कमी नहीं है। उनके कई हमसफ़र भी डबडबाए दिल से अपने नरेंद्र भाई के कसीदे गाने पर मजबूर हैं।
लेकिन प्रधानमंत्री ने यह क़दम जैसे उठाया, क्या देश वैसे ही सलूक के काबिल था? यह 38 बरस पहले का भारत तो था नहीं, जब पूरी मुद्रा-व्यवस्था में बड़े नोट सिर्फ़ दो फ़ीसदी थे और उन्हें बंद कर देने से इसलिए कोई हायतौबा मचने की गुंज़ाइश नहीं थी कि हमारी आबादी भी 65-66 करोड़ ही थी। आज इससे दुगनी तो हमारी आबादी है और हज़ार-पांच सौ के नोट पूरी मुद्रा का 87 फ़ीसदी हैं।
1978 में मोरारजी देसाई के ज़माने में जब बड़े नोटों को रद्द करने का फ़ैसला लिया जा रहा था तो रिज़र्व बैंक के गवर्नर आई़ जी़ पटेल ने विरोध किया था। उनका कहना था कि ऐसा करने से अस्वच्छ धन पर कोई काबू नहीं होगा। वही हुआ भी। इस बार नरेंद्र भाई के गवर्नर को दो हज़ार के नए नोट शुरू होने की जानकारी तो ज़रूर थी, क्योंकि देश भर में मौजूद रिज़र्व बैंक की 4132 मुद्रा-तिजोरियों में ये नोट भेजने का काम उन्हीं की देख-रेख में हुआ होगा। मुझे लगता है कि मोदी ने 1997-98 की तरह यह भूल भी नहीं की होगी कि नए नोट विदेशों में छपवाए हों और भारत में ही रिज़र्व बैंक के छापेखानों ने यह ज़िम्मेदारी निभाई होगी। लेकिन हज़ार-पांच सौ के मौजूदा नोट रातों-रात रद्द भी होने वाले हैं, इसका कोई इल्म रिज़र्व बैंक के गवर्नर को था या नहीं, कौन जाने?
ज़ुबान की हलकी-सी हरकत से निकले शब्दों ने भारत की मुद्रा-व्यवस्था से डेढ़ पद्म रुपए चंद लमहों में निर्जीव कर दिए। आजकल हिंदी गिनती दकियानूसी होने का सबूत है, इसलिए मैं इसे सरल कर देता हूं। डेढ़ पद्म यानी डेढ़ सौ खरब। डेढ़ सौ खरब यानी पंद्रह सौ अरब। यानी पंद्रह लाख करोड़ रुपए। गुज़रे मार्च में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हमारे देश का जो आम बजट संसद में पेश किया था, वह था क़रीब 20 लाख करोड़ रुपए का। जिस भारत की सरकार का सालाना खर्च 20 लाख करोड़ रुपए का है, उसके प्रधानमंत्री ने सवा सौ करोड़ लोगों की जेब में कम-ज़्यादा पड़े पंद्रह लाख करोड़ रुपए की कीमत के नोट पलक झपकते अवैध कर दिए। क्यों? इसलिए कि भारत को आतंकवाद से बचाना है। भारत को भ्रष्टाचारियों से निज़ात दिलानी है।
देश में भ्रष्ट व्यवसाइयों, अफ़सरों, राजनीतिकों, दलालों और हवालाबाज़ों की तादाद कितनी होगी? दो करोड़, पांच करोड़, दस करोड़, बीस करोड़? लेकिन नरेंद्र भाई ने बाकी के सौ करोड़ के ललाट पर भी चोर लिख दिया और बैंकों की कतार में परिचय पत्र लटकाए गंगा-स्नान के लिए छोड़ दिया। विदेशों में यहां-वहां पड़े अस्वच्छ नोट वे लाएं कैसे और उन्हें रद्द करना उनके वश में था नहीं, सो, प्रधानमंत्री ने देश के भीतर 87 प्रतिशत मुद्रा को अस्वच्छ घोषित कर उसे स्वच्छ साबित करने की ज़िम्मेदारी उस आबादी पर छोड़ दी, जिसमें से एक तिहाई को तो अक्षर-ज्ञान भी नहीं है। जिस देश की 60 करोड़ महिलाओं में से 45 करोड़ घर की दहलीज़ से बाहर क़दम नहीं रखती हैं, जिस देश की आधी से ज़्यादा आबादी का आज भी बैंक खाता नहीं है और जो खाते हैं, उनमें से 40 प्रतिशत संचालित नहीं हो रहे; उस देश के प्रधानमंत्री को अर्थ-जगत में अपने पराक्रमी प्रयोग करने से पहले सौ बार सोचना चाहिए।
2015 के स्वतंत्रता दिवस पर लालक़िले से मोदी ने कहा था कि अगर अंतिम व्यक्ति की क्रय शक्ति बढ़ेगी तो विकास तेज़ी से होगा। लेकिन उनके ताज़ा क़दम से अर्थशास्त्रियों में चिंता है कि सकल घरेलू उत्पाद की बढ़ोतरी पर आगे क्या असर पड़ेगा? इससे आर्थिक मंदी में इज़ाफ़ा तो नहीं होगा? नए रोज़गार सृजित होना तो दूर, कहीं बेरोज़गारी तो नहीं बढ़ने लगेगी? किसी नासूर की शल्य चिकित्सा के लिए लेज़र तकनीक का इस्तेमाल करने के बजाय हथोड़ा बरसा देना कहीं पूरी काया को तो नहीं ले बैठेगा?
नरेंद्र भाई अगर पश्चिमी क्षिक्षा संस्थानों की रचना होते तो मैं समझ सकता था कि वे भारत को रातों-रात अमेरिका और ब्रिटेन बनाने का सपना देखने के अलावा कुछ कर ही नहीं सकते। लेकिन वे तो देहातों और कस्बों से हो कर दिल्ली पहुंचे हैं। इसलिए मुझे ताज्जुब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में मौजूद सड़ांध भरे नालों को पाटने की हड़बड़ी में करोड़ों हमवतनों को एकबारगी संदेह के कटघरे में खड़ा कर देने का ही तरीक़ा उन्हें क्यों बेहतर लगा? छोटे दूकानदारों, मज़दूरों और किसानों को परेशानी में डालते हुए उन्हें कोई हिचक क्यों नहीं हुई? क्या सचमुच हमारे हालात जिम्बाब्वे या म्यामांर की तरह हो गए हैं कि मुद्रा इस तरह वापस लेने की ज़रूरत पड़ गई? और हां, यह मानने को तो मेरा मन कतई नहीं हो रहा कि भारत का प्रधानमंत्री पर-पीड़ा की प्रसन्नता से लबालब होने की ऐसी ललक पाले बैठा था कि पहली फु़र्सत पाते ही अपने ही देश पर पिल पड़ा। मैं तो समझता था कि नाक पर बैठी मक्खी उड़ाने के लिए नाक ही काट देने के क़िस्से अब पुराने पड़ गए हैं। तलवारों से मौसम बदले जा सकते तो फिर बात ही क्या थी? (लेखक न्यूज़-व्व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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