विपक्ष के लिए सरकारी हिकारत का ऐसा भाव किसी सभ्य देश ने पहले कभी नहीं देखा होगा। हज़ार-पांच सौ के नोट को काग़ज़ का टुकड़ा बनाने के लिए अपनी छप्पन इंच की छाती ठोकते हुए दूरदर्शन के परदे पर खुद आने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने विपक्ष के सवालों का जवाब देने के लिए संसद में आने से ठेंगा-मुद्रा में इनकार कर दिया है। सरकार ने साफ कह दिया है कि एक तो यह फ़ैसला कतई वापस नहीं होगा और दूसरी बात यह कि जवाब प्रधानमंत्री नहीं, वित्त मंत्री देंगे।
जो ऐलान क़ायदे से रिज़र्व बैंक के गवर्नर को करना था, उसका सेहरा अपने सिर बांधने के लिए तो नरेंद्र मोदी ऐसे उचके कि पूरे मुल्क़ को ले बैठे और अब जब सवालों से सामना करने की बारी आई तो उन अरुण जेटली को आगे कर रहे हैं, जिन्हें, मालूम नहीं, यक-ब-यक किए गए इस फ़ैसले के बारे में प्रधानमंत्री ने विश्वास में लिया भी था या नहीं।
पूरे देश को रातों-रात टुकड़खोरी के लिए क़तार में खड़े कर देने का करतब दिखाने वाले नरेंद्र मोदी को शायद यह नहीं मालूम कि भारतीय रिज़र्व बैंक क़ानून जब बना था तो उसमें 59 बुनियादी धाराएं थीं और इनमें संशोधनों, अध्यादेशों, विनियमों और अनुकूलन आदेशों के ज़रिए 79 बार बदलाव किया गया है। इस क़ानून की धारा 26 में भारतीय मुद्रा की वैधता के बारे में विस्तार से बताया गया है और क़ानूनविदों का कहना है कि प्रधानमंत्री ने आठ नवंबर की रात आठ बजे देश के नाम अपने संबोधन में हज़ार-पांच सौ रुपए के सभी नोटों की क़ानूनी वैधता को ख़त्म करने का ऐलान करते वक़्त रिज़र्व बैंक के इस क़ानून की उप-धारा 2 की पूरी तरह अनदेखी की। कई विधिवेत्ताओं को उम्मीद है कि आगे चल कर सुप्रीम कोर्ट को इस मसले पर अपनी राय देनी होगी और जब ऐसा होगा तो नरेंद्र मोदी की मुसीबतें बेहद बढ़ जाएंगी।
रूंधे गले और सूजी आंखें ले कर बैंकों के सामने पिछले दस दिनों से कतार में खड़े हज़ारों-लाखों लोगों को देखने के बाद भी जिन्हें सब-कुछ सामान्य चलता लग रहा है, उन्हें नमन! कहते हैं कि प्रभु जिसे दारुण दुःख देना चाहते हैं, उसकी मति पहले ही हर लेते हैं। जब किसी शासक की बुद्धि पर राहु बैठ जाए तो उसे सच दिखाई देना बंद हो जाता है। उसे वही दिखाई देता है, जो वह देखना चाहता है और आसपास की चौकड़ी उसे वही दिखाती है, जिसे देख कर सुल्तान का रोम-रोम पुलकित हो।
भारत आज उसी दौर से गुजर रहा है। देश का जो दुर्भाग्य है, सो तो है ही, नरेंद्र भाई इतनी जल्दी इतने दुर्भाग्यशाली हो जाएंगे, यह देख कर उनके अपने भी हकबकाए हुए हैं। सुब्रह्मण्यन स्वामी कह रहे हैं कि इतना बड़ा क़दम और ऐसी अधकचरी तैयारी! गोविंदाचार्य कह रहे हैं कि इससे तीन प्रतिशत भी काला धन बाहर नहीं आएगा। भारतीय जनता पार्टी के कई विधायकों-नेताओं ने तरह-तरह के संदेह ज़ाहिर किए हैं। लेकिन नरेंद्र भाई के नक्कारखाने में एक सनकी धुन इतने ज़ोर से बज रही है कि बाकी कोई आवाज़ सुनाई ही नहीं दे रही।
आर्थिक जगत के विशेषज्ञों ने भी सरकार के मनमाने फ़रमान और ख़ासकर उसे लागू करने के तरीक़ों को संजीदा सवालों के कटघरे में खड़ा किया है। उर्जित पटेल को लाने के लिए बेआबरू कर निकाले गए रघुराम राजन ने हज़ार-पांच सौ के नोट बंद करने का विरोध किया था। अब रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव ने भी कहा है कि अगर सरकार यह सोच रही हो कि जो चार-छह लाख करोड़ रुपए बैंकों में वापस नहीं आएंगे, उन्हें वह अपना मुनाफ़ा मान सकती है तो ग़लती करेगी।
नोटबंदी के सैद्धांतिक फ़ायदों के बारे में कही गई सुब्बाराव की बातें प्रचारित करने का उतावलापन तो सरकार ने दिखाया, मगर इसे लागू करने में हुई हड़बड़ाहट पर उनकी टिप्पणियों और भविष्य के लिए उनकी चेतावनियों पर इतनी ख़ामोशी क्यों है? यह समझने के लिए किसी का आइंस्टीन होना ज़रूरी नहीं है कि नोटबंदी पर चीन से मिली शाबासी का जि़क्र जोर-शोर से करने वाली हमारी सरकार को खुद की सहयोगी शिवसेना और बाकी समूचे विपक्ष की चिंताओं की चिंता क्यों नहीं है। अपनी प्रजा की मुसीबतों का जि़क्र करते हुए जिस मुल्क़ के बादशाह की बांछें परदेस की ज़मीन पर भी खिल जाती हों, उससे अब भी आस लगाए बैठे महामनाओं को क्या कहें!
नरेंद्र भाई आज भाजपा के लोकसभा में 280 और राज्यसभा में 55 आज्ञाकारियों के अगुआ हैं। 44 और राजनीतिक दलों के 56 हमजोली लोकसभा में और 12 राज्यसभा में उनके बताए पथ पर चलने की प्रतिज्ञा ले कर ढाई बरस से उनके साथ हैं। लेकिन इन हमजोलियों पर तो छोड़िए, नरेंद्र भाई को अपने आज्ञाकारियों पर भी अब उतना भरोसा नहीं रहा है कि लोकसभा में विपक्ष के स्थगन प्रस्ताव पर बहस करा लें। ऐसी बहस के लिए तो वे तैयार हैं, जिसके बाद नोटबंदी के मुद्दे पर सदन में मतदान न हो, मगर रायशुमारी की तो कल्पना ही उन्हें कंपकंपा रही है, क्योंकि ढोल की पोल का बांध ढाई साल से उफन रहा है और अगर कहीं यह टूटा तो उसका सैलाब पता नहीं क्या-क्या बहा ले जाएगा।
भाजपा की भीतरी प्रतिक्रिया भला प्रधानमंत्री से बेहतर कौन जानता है? अपने पितृ संगठन और भ्रातृ समूहों की खदबदा रही देगचियों का अंदाज़ भी उन्हें अच्छी तरह से है। शिवसेना जैसे उनके सहयोगी दल तो ताल ठोक कर सामने ही आ गए हैं और कई औरों की कसमसाहट भी नरेंद्र भाई की खुर्दबीन में दर्ज़ है। वे जानते हैं कि उनके लवाजमे में 31 राजनीतिक दल तो ऐसे हैं, जिनका एक भी सांसद लोकसभा में नहीं है। सो, अपनी-अपनी क्षेत्रीय पकड़ बनाए रखने के लिए वे कभी भी पाला फांद सकते हैं। मोदी इतने नासमझ भी नहीं हैं कि उन्हें पोरस के हाथियों की कथा नहीं मालूम। इसलिए जनतंत्र भले ज़र्रा-ज़र्रा हो जाए, संसद में इस बहस पर मतदान का जोख़िम वे कभी नहीं उठाएंगे।
जो काम लुंजपुंज विपक्ष अगले ढाई साल भी शायद ही कर पाता, वह नरेंद्र भाई के फ़ैसले ने खुद ही कर डाला। मोदी ने भाजपा के बांस उलटे बरेली के लिए लदवा दिए हैं। एक व्यक्ति के निर्णय का प्रलय-प्रवाह भाजपा के मार्गदर्शक भीगे नयनों से देखने को अभिशप्त हैं। दूध में अब दरार पड़ गई है। अटल बिहारी वाजपेयी की कविता है: ‘‘बेनक़ाब चेहरे हैं, दाग़ बड़े गहरे हैं; टूटता तिलिस्म आज, सच से भय खाता हूं; गीत नहीं गाता हूं।’’ नया गीत गाने वाले स्वर पिछले दस दिनों में इतने बेसुरे हो जाएंगे, यह किसने सोचा था? यह ग़लतफ़हमी किसी को नहीं है कि नरेंद्र मोदी में कहीं अटल बिहारी वाजपेयी छिपे होंगे। इसलिए यह भी तय ही है कि लाख लगे कि क़दम ग़लत उठ गया है, मोदी की ज़िद उनसे अब रोज़-ब-रोज़ एक और नई ग़लती ही कराएगी। वे बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाने वालों में नहीं हैं। वे आख़िरी चाल चले बिना रह ही नहीं सकते। वे घाटे के व्यापार में हिसाब लगाए बिना अपनी पूरी पूंजी लुटाने वालों में हैं। मौजूदा दौर की बदक़िस्मती है कि आज के भारत का प्रधानमंत्री इतना उदार नहीं है कि उसके होंठ ‘आओ, मन की गांठें खोलें’ का तराना गुनगुना सकें।( लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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