Saturday, December 17, 2016

सत्ता ख़ुमारी से उपजा राज-हठ


parliamentपंकज शर्मा — यह पहला मौक़ा है, जब किसी प्रधानमंत्री की ज़िद ने संसद के एक पूरे सत्र को इस तरह गर्द-टोकरी के हवाले किया हो। यह पहला मौक़ा है, जब किसी प्रधानमंत्री ने समूचे विपक्ष को इस तरह ठेंगे पर रखा हो। यह पहला मौक़ा है, जब पूरा मुल्क़ अपने प्रधानमंत्री को घर के बुजु़र्ग के बजाय एक लठैत की भूमिका में देख रहा हो। यह पहला मौक़ा है, जब किसी प्रधानमंत्री ने खुद की नाक ऊंची रखने के लिए दुनिया भर में अपने देश की नाक नीची होने की परवाह न पाली हो। और, यह पहला मौक़ा है, जब भारत के प्रधानमंत्री के चेहरे से सार्थक सुर-लहरियों का तेज झलकने के बजाय एक आसुरी क़दम की अनुगूंज से उपजी तमतमाहट टपक रही हो।
जिन तीन हठों को हमारी पुरातन मान्यताओं में सबसे ऊपर जगह मिली है, उनमें सबसे ज़्यादा स्व-विनाशक है राज-हठ। बाकी दो–बाल हठ और तिरिया हठ–अपनी पर आते हैं तो खुद का कम, दूसरों का ज़्यादा नुक़्सान करते हैं। लेकिन राज-हठ के जितने क़िस्से हमने प्राचीन इतिहास से लेकर आधुनिक इतिहास के पन्नों में पढ़े हैं, अब तक तो यही पाया है कि वह अंततः राजा के लिए ही विनाशकारी साबित होता है। ढाई बरस पहले भारत के महज एक तिहाई मतदाताओं की पलकों पर बैठ कर दिल्ली पहुंचने के बाद हम सबके प्रधानमंत्री बन गए नरेंद्र भाई मोदी इतिहास के इन पन्नों से वाकिफ़ हैं या नहीं, मैं नहीं जानता। लेकिन इतना मैं जानता हूं कि आठ नवंबर की रात आठ बजे से राज-हठ की जिस चरम-यात्रा पर वे निकले हैं, वह उनके सिंहासन को निगल कर ही संपन्न होगी।
अब से पहले आमतौर पर विपक्ष की मर्यादाहीन भूमिका की वजह से संसद की कार्यवाही ठप हुआ करती थी और सरकार संसद-सत्र को चलाने की हर-मुमक़िन कोशिश में लगी रहती थी। तनाव के लमहों में भी संसदीय कार्य मंत्री विपक्ष के नेताओं से मिल-जुल कर समाधान निकालने की क़दमताल करते थे। ज़रूरी होने पर प्रधानमंत्री भी औपचारिक-अनौपचारिक तरीक़ों से तालमेल कर के दिक्क़्तें दूर करने से हिचकते नहीं थे। संसद में हंगामे का चरम पंद्रहवीं लोकसभा के दौरान तब आया था, जब केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार थी और भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में थी। भाजपा ने संसद ऐसी ठप की थी कि महिला आरक्षण, न्यायिक जवाबदेही और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) जैसे अहम विधेयको को पारित कराने की समय-सीमा ही ख़त्म हो गई थी। लेकिन तब के सरकारी पक्ष ने तत्कालीन विपक्ष की चिरौरी करते रहने में अपनी हेठी कतई महसूस नहीं की।
मगर मौजूदा हुकूमत के तेवर दूसरे हैं। संसद के शीत सत्र में विपक्ष तो नोट-बंदी पर बहस कराने की मांग करता रहा और सरकार पहले दिन से ही इस मुद्दे पर कोई भी बात न करने की ज़िद पर अड़ी रही। पहले तो सरकार बहाना करती रही कि वह फलां नहीं, फलां नियम के तहत बहस की इजाज़त देने को तैयार हंै और जब विपक्ष ने बिना शर्त किसी भी नियम के तहत बहस करने की हामी भरी तो सरकार पूरी तरह मुकर ही गई। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी संयुक्त विपक्ष की तरफ से रोज़-ब-रोज़ कहते रहे कि उनके पास प्रधानमंत्री के बारे में ऐसी जानकारी है कि भूचाल आ जाएगा और इसे वे संसद में रखना चाहते हैं, लेकिन उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी गई। इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि सीधे प्रधानमंत्री पर लगाए जा रहे आरोपों का संसद में ज़िक्र करने से विपक्ष को रोकने के लिए किसी सरकार ने तिकड़मों का ऐसा ताना-बाना बुना हो।
जिस देश के अस्सी फ़ीसदी रहवासी अपने राष्ट्र-राज्य पर परोक्ष-अपरोक्ष तौर पर निर्भर रहने का सोच भी नहीं सकते हों, उनके जीवन में वैसे ही मुसीबतों की क्या कमी होगी कि उनके पल्लू की गांठ में बंधे चंद रुपयों पर लिखे वचन से भी हम रातों-रात मुकर जाएं! जिस देश में करोड़ों लोगों के पास इस बात की कोई गारंटी न हो कि उनका बच्चा चिकित्सकीय देखभाल में जन्म लेगा और जच्चा उसे जन्म देने के बाद ज़िदा रहेगी; इस बच्चे को बिना कुछ दिए-लिए एक ऐसे स्कूल में प्रवेश मिल जाएगा कि वह पढ़ ले; इस बच्चे को बड़े होने पर बिना रिश्वत दिए कोई रोज़गार मिल जाएगा कि वह अपना पेट पाल ले; इस बच्चे की शादी बिना दान-दहेज के हो पाएगी; बूढ़ा होने पर इस बच्चे का इलाज़ बिना लुटे-पिटे किसी अस्पताल में हो ही जाएगा; उस देश में अगर किसी प्रधानमंत्री की प्राथमिकता, सब-कुछ छोड़ कर, नकदी-रहित अर्थव्यवस्था लागू करने की है तो उसे आप क्या कहेंगे?
स्वीडन, सिंगापुर और शिकागो के सपने देखने वालों को क्या यह मालूम है कि वहां हत्या-बलात्कार तो छोड़िए, चोरी-जेबकटी भी अगर हो जाए तो रपट दर्ज़ कराने के लिए दरोगा जी की मिजाज़पुर्सी नहीं करनी पड़ती है; अपने प्रियजन की हादसे में हुई मौत के बाद पोस्टमार्टम जल्दी कराने के लिए किसी की हथेलियां ग़र्म नहीं करनी पड़ती हैं; बिजली आने के इंतज़ार में घटों बैठ कर अपना काम पूरा करने की बाह नहीं जोटनी पड़ती है; पानी-माफ़िया से ले कर रेत-माफ़िया तक की दादागीरी नहीं झेलनी पड़ती है; और, अपनी बुनियादी ज़रूरतों तक के अलग से कोई सुविधा-शुल्क नहीं चुकाना पड़ता है? वहां की राज्य-व्यवस्थाओं ने पहले वे इंतजाम किए कि किसी नागरिक को ऐंड़ियां रगड़ कर न मरना पड़े। उनकी बाक़ी ज़िंदगी को अपने हाल पर छोड़ कर आर्थिक-अनुशासन की ऐसी सख्त घेराबंदी करने का काम दुनिया में कहीं किसी ने नहीं किया। यह नीयत तो सामंती ज़माने में भी इक्का-दुक्का आतताइयों की ही रही होगी कि जीवन-यापन के साधन आप कैसे जुटाएंगे, आप जानें, मैं तो अपना लगान वसूलूंगा ही।
किसी भी राष्ट्र-राज्य और उसके नागरिकों के बीच एक किस्म का सामाजिक अनुबंध होता है। इसी अनुबंध के आधार पर समाज चलता है, व्यवस्था चलती है। यही अनुबंध एक-दूसरे के पारस्परिक हितों की रक्षा करता है। राजा और प्रजा के बीच का यह अनुबंध कितना मज़बूत या कमज़ोर है, उसका पैमाना क्या है? उसका पैमाना है शासन व्यवस्था द्वारा ज़ारी की गई मुद्रा पर समाज का विश्वास। मुद्रा पर भरोसे का यह पैमाना ही राष्ट्र-राज्य और उसके नागरिकों के बीच परस्पर यक़ीन का सबसे सीधा संकेत है। इसलिए मैं मानता हूं कि नरेंद्र भाई ने समूचे भारत को शासन पर अविश्वास की ऐसी अंधेरी खाई में धकेल दिया है, जिससे बाहर आने में उसका पूरा ज़िस्म छिल जाएगा।

सत्ता के चंडूखाने की ख़ुमारी से आंखों में ऐसा भारीपन आ जाना कोई नई बात नहीं है कि असली चीजें दिखाई देनी बंद हो जाएं और कान सिर्फ़ घुघरुओं की आवाज़ ही सुनना चाहें। इसलिए अगर आज नरेंद्र भाई और उनकी मंडली को, विपक्ष तो दूर, लालकृष्ण आडवाणी से लेकर मुरली मनोहर जोशी तक की आहें सुनाई नहीं दे रही हैं और घटक दलों के अपने हमसफ़रों की कसमसाहट भी दिखाई नहीं दे रही है तो किसी को क्या दोष देना! मदमाती सत्ता के पछीटते प्रवाह को संभालने के लिए जिन जटाओं की ज़रूरत होती है, वे एक दिन में नहीं, बरसों की तपस्या के बाद आकार लेती हैं। छिछली भूमि पर बरगद नहीं उगते और बेर की झाड़ियां साया देने के लिए थोड़े ही उगा करती हैं। इसलिए भारत की आज की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक हालत पर क्या हैरत करनी? करना ही है तो गुस्सा करें।

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