पंकज शर्मा — दो हज़ार सोलह आज चला जाएगा। कल सुबह का सूरज अपने साथ दो हज़ार सत्रह लेकर आएगा। राज-काज में अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी का खिलंदड़ापन हम यू तो पिछले ढाई बरस टुकुर-टुकुर देख रहे हैं, लेकिन इस साल के आख़िरी पचास दिन उन्होंने अपने मुल्क़ के बाशिंदों को एक कतार में बैठा कर, उनके साथ जो खो-खो खेली, उसे याद कर लोग आने वाले कई साल तक सिहरते रहेंगे। इसलिए विदा होते साल के फिर कभी न आने की दुआ करते हुए मैं नए साल में भगवान से सबको सन्मति देने की कामना करता हूं। सबको यानी सबको–आत्ममुग्ध राजा को, ताता थैया कर रहे दरबारियों को, जी-हुज़ूरी की नियति से बंधे कारकूनों को और हर हाल में फूल बरसाने को अभिशप्त प्रजा को।
अपनी हर अदा पर खुद ही रीझे हुए नरेंद्र भाई 2016 के ‘महानायक’ हैं। उन्हें खलनायक तो छोड़िए, प्रतिनायक कह कर अपने को देशद्रोहियों की कतार में शामिल कराने लायक़ दुस्साहस मुझमें नहीं है। अपनी ज़िंदगी अपने भरोसे या फिर रामभरोसे बिताने वाली भारत की जनता से अगर कोई प्रधानमंत्री खो-खो खेलना चाहे तो आप उसे खलनायक कैसे कह सकते हैं? जो एक कूंची से पूरे देश के आसमान को नए रंग में रंगने का बीड़ा उठाए होते हैं, क्या उन्हें अपने मनोरंजन के लिए एकाध खेल खेलने का हक़ भी नहीं है? फिर यह बीड़ा नरेंद्र भाई ने कोई खुद ही थोड़े उठा लिया था। सौ में से इकतीस मतदाताओं ने चिरौरी कर-कर के यह ज़िम्मा उन्हें सौंपा था और अब आप चाहते हैं कि वे सिर्फ़ रिबन काटते रहें! सो, इतने कृतध्न वे भला कैसे हो सकते हैं?
देश के हर सौ रुपए में दो पैसा, रुपया नहीं पैसा, नकली हो तो उस दो पैसे को बाहर लाने के लिए पूरे सौ रुपए को खूंटी पर टांग देने का साहस इससे पहले तो कभी कोई प्रधानमंत्री नहीं दिखा पाया। इस पर भी अगर आप भारत सरकार के मंत्री वैंकेया नायडू की यह बात न मानें कि ‘मोदी भारत को ईश्वर का वरदान हैं’ तो आपसे बड़ा अभागा कोई नहीं। आप ही बताइए, काला धन बाहर आना चाहिए या नहीं आना चाहिए? आतंकवाद से लड़ना चाहिए कि नहीं लड़ना चाहिए? बेइमानों को सज़ा मिलनी चाहिए या नहीं मिलनी चाहिए? जब इन सब सवालों के जवाब हां में हैं तो अब आपको ये सवाल उठाने का हक़ नहीं है कि कितना काला धन बाहर आया? आतंकवाद कितना ख़त्म हुआ? असली बेइमानों को सज़ा मिली या नोटबंदी के हंटर ग़रीब की पीठ पर ही बरसे?
मुझे बचपन से सिखाया गया है कि बड़ों से ज़ुबान लड़ाना बद्तमीज़ी है। इसलिए मैं तो अपने प्रधानमंत्री की तरफ़ नज़रें उठा कर देखने की भी हिम्मत नहीं कर सकता। वे भारत की तबाही पर ढोल-ताशे बजाएं, पर मेरा तो जन्म ही उन पर फूल बरसाने को हुआ है। पिछले ढाई बरस में नरेंद्र भाई के दूधिया बयानों ने मुझे उनका ऐसा मुरीद बना दिया है कि कोई लाख दिखाए, मुझे तो उनके राजमहल में स्याह तहखाने नज़र आने से रहे। उनके हाथों में जितने दिनों की भी रहनुमाई है, तब तक अपनी पलकों पर उन्हें बैठा कर रखना मैं अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानता हूं। राजा के कामकाज में मीनमेख निकलना प्रजा का काम नहीं है। राजा हमेशा सही होता है। तब भी, जब वह रातों-रात हर मेहनतकश देशवासी के माथे पर बेईमान का ठप्पा लगा दे।
नरेंद्र भाई के राष्ट्र के नाम संबोधन के बाद 2016 में बचे ही 53 दिन थे, सो, सबने तिल-तिल कर गुज़ार लिए। लेकिन कल सुबह से शुरू हो रहे 2017 में तो पूरे 365 दिन होंगे। उन्हें हम कैसे गुज़ार पाएंगे? हर रोज़ एक नए स्याह क़िस्से की जैसी बानगी इस साल के उत्तरार्द्ध में हमने देखी, उसकी उत्तरकथा अगर नए साल के दैनिक पन्नों पर भी लिखी मिली तो हम सबकी एक-एक नन्ही-सी जान इतना बोझ कैसे उठाएगी? लोगों की ज़िंदगी में वेसे ही कोई कम इल्लतें हैं कि वह एक सुल्तान की सनक का बोझ अलग से खुद पर लादे! लेकिन 2017 में इसके अलावा आपके पास चारा भी क्या है? स्वयं-मुंहलगे एक और मंत्री रविशंकर प्रसाद ने वर्षांत आते-आते हम सबको साफ बता दिया है कि मोदी गंगा की तरह पवित्र हैं और भारतवासी तो पिछले ढाई साल से अपने सारे विकल्प खुद ही गंगा में सिराए बैठे हैं। हमें तो अब लगता ही नहीं कि अपनी ज़ुबां अब भी अपनी है। अपने लबों की आज़ादी पर हम खुद ही भरोसा खो चुके हैं। ऐसे में सारा दोष एक राजा द्वारा दिखाए जा रहे ठेंगे पर मढ़ देने से भी क्या हो जाएगा? अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने की अक्षमता किसी और की खूंटी पर टांग देने से मेरा-आपका कर्ज़ कैसे उतर जाएगा?
सुल्तान की अक़्ल पर जाला पड़ जाए तो खतरा उतना बड़ा नहीं होता। लेकिन जब रिआया की अक़्ल घास चरने चली जाए तो तबाही कौन रोक सकता है? इसलिए 2017 में तय तो यह होने वाला है कि 2016 में आए जानलेवा मोड़ के बाद का रास्ता देश को ले जाकर मुमुक्षु-भवन की खटिया पर डाल देगा या जनतंत्र के कायाकल्प की कोई उम्मीद अब भी बाकी है? बाकी राज्यों को तो छोड़िए, लेकिन अगर उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अपना ख़्वाब पूरा कर लिया तो शारीरिक-मानसिक-वैचारिक धक्कों और मुक्कों के एक नए युग की अगवानी के लिए तैयार रहिए। आज देश एक ऐसे शासक के साए तले रास्ता तय कर रहा है, जिसे अपनी तिकड़मों पर नाज़ है। इसलिए जिन्हें अब भी यह समझ में नहीं आया है कि रू-ब-रू डटने का मौसम काफी पहले आ चुका है, वे बहुत बड़ा गच्चा खाने की कगार पर बैठे हैं।
अब भी अपना-तेरी की सियासत में उलझे क्षत्रप अगर नहीं संभलेंगे तो नए साल का मध्याह्न आते-आते उनकी चौपालें चरमरा चुकी होंगी। स्थितियां बदलने के लिए सिर्फ़ सपने देखना काफी नहीं होता है। ईश्वर ने कर्म-प्रधान संसार की रचना कुछ सोच कर ही की है। कु-शासन का विरोध हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने से नहीं होगा। सिर्फ़ हाय-हाय करना भी कोई समाधान नहीं है। जिन्हें लगता है कि मोदी के रथ का घर्घर नाद सभी सीमाएं पार कर रहा है, उन्हें प्रतिरोध की अपनी शक्ति बिखरने से बचानी होगी। जो सोच रहे हैं कि एक दिन आएगा कि एक भानुमति-कुनबा मोदी के किले को ढहा देगा, वे दया के पात्र हैं। उन्हें अगर अब तक यह अहसास नहीं हुआ है कि उनका पाला किससे पड़ा है तो यह उनका नहीं, मुल्क़ का दुर्भाग्य है।
हमारा हिंदोस्तॉं सारे जहॉं से अच्छा है, इसलिए नए साल में मेरी दुआ है कि हम जो उसकी बुलबुले हैं, वे भी हिंदोस्तॉ की बुनियाद को बचाने लायक़ बन जाएं। गाएं-गुनगुनाएं या चीखें-चिल्लाएं, कुछ भी करें, मगर बहेलियों से बची रहें। दुआ करता हूं कि नरेंद्र भाई की तमाम को़शिशों के बावजूद आर्थिक मंदी न आए, बेरोज़गारी न बढ़े, कामगारों को काम मिले, दूकानदारों को ग्राहक मिलें, सकल घरेलू उत्पाद न गिरे और अपने ही पैसे की आस में लगी कतारें जल्दी गायब हो जाएं। दुआ करता हूं कि ग़रीब सलामत रहे, कमज़ोर बचा रहे, जम्हूरियत क़ायम रहे और देश को अपने-परायों की बुरी नज़र न लगे। दुआ करता हूं कि दुआओं का मेरा यह हौसला 2017 में भी क़ायम रहे!
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