कल, रविवार को, राजीव गांधी को हमारे बीच से विदा हुए 26 साल हो जाएंगे। वे होते तो ढाई महीने बाद अपनी ज़िंदगी के 73 बरस पूरे कर रहे होते। अब से 35 साल पहले, 1982 में, जब राजीव गांधी कांग्रेस पार्टी के महासचिव बने थे, मुझे दिल्ली में पत्रकारिता करते महज तीन साल हुए थे। ताज़ा-ताज़ा निबटे एशियाई खेलों के आयोजन में राजीव की प्रबंधन क्षमता पर पूरा देश रीझा हुआ था। मैं कोई वरिष्ठ और बड़ा पत्रकार नहीं था और नवभारत टाइम्स में मेरी पत्रकारी जिम्मेदारी भी तब मुझे ऐसा कोई अधिकार नहीं देती थी कि मैं राजीव गांधी से मिलने के लिए वक़्त मांगूं, मगर अपनी युवा-चपलता के चलते मैं ने यह सोच कर कोशिश कर डाली कि वे कौन-सा मुझे मिलने बुला ही लेंगे!
बुलावा आया तो धुकधुकी बढ़ गई। सिवाय मिलने के, बातचीत का कोई और प्रयोजन तो था नहीं। सो, सोचता रहा कि बात कैसे शुरू करनी है? दिसंबर के मध्य में सर्दियों के उन दिनों एक सुबह राजीव गांधी से पहली बार हुई यह मुलाक़ात अब भी कल की बात लगती है। ऐसे अनौपचारिक व्यवहार और अपनेपन की छुअन हमारे आज के राजनीतिकों के तो आचरण-कोष में ही नहीं है। मुझे थोड़े दिनों ही बाद विशेष अध्ययन के लिए छह महीने पूर्वी यूरोप में रहना था। बातचीत ज़्यादातर उसी पर केंद्रित रही, लेकिन मुझे अब भी याद है कि जब मैं ने राजीव जी से बहुत कम समय होते हुए भी एशियाई खेलों की इस क़दर क़ामयाब मेज़बानी कर पाने का रहस्य जानना चाहा तो उन्होंने किसी ली लकोका का ज़िक्र करते हुए त्वरित निर्णय लेने की अहमियत पर ज़ोर दिया और बताया कि पायलट होने ने किस तरह उनमें तत्काल फै़सला लेने की क्षमता विकसित की। मैं तब नहीं जानता था कि लकोका कौन थे? राजीव बता रहे थे कि लकोका कहते थे कि बॉस की स्पीड ही टीम की स्पीड होती है और सही वक़्त पर सही फ़ैसले ही सबकी क़ामयाबी का एकमात्र रहस्य होते हैं।
ली लकोका अस्सी के दशक में इसलिए मशहूर थे कि उन्होंने एक डूबती अमेरिकी कंपनी क्रिस्लर की काया पलट दी थी और उसके प्रजिडेंट-सीईओ के तौर पर ऐसे फ़ैसले लिए, जिन्हें मिसाल माना जाता था। लकोका के माता-पिता अमेरिका के इस्पात निर्माण इलाक़े पैन्सिनवेलिया में इटली से आकर बसे थे। राजीव जी ने मुझसे कहा कि मैं लकोका की लिखी पुस्तक ‘व्हेयर हेव ऑल द लीडर्स गॉन’ कभी ज़रूर पढ़ूं। बाद में मैं ने यह क़िताब पढ़ी। लकोका ने इसमें क़ामयाबी हासिल करने के लिए कुछ मंत्र दिए हैं। पहला है, अपने काम की शुरुआत भले लोगों के साथ करो। दूसरा, अपने काम के नियम-क़ायदे तय करो। तीसरा, अपने सहयोगियों से हमेशा मिलते-जुलते रहो और उनसे खुल कर विचार-विमर्श करो। और चौथा, हमजोलियों को प्रेरित और पुरस्कृत करने में कभी कंजूसी मत बरतो। लकोका का मानना था कि जो ये चार मंत्र गांठ बांध लेगा, कभी नाकाम हो ही नहीं सकता। जब मैं राजीव जी से विदा लेने लगा तो उन्होंने दिखावे का नहीं, सचमुच का, इसरार किया कि लौटने के बाद मैं उनसे ज़रूर मिलूं। मैं लौट कर मिला। अपने अनुभव बताए, जिनमें से कुछ उन्हें बचकाने भी लगे होंगे। और, फिर जब तक वे रहे, मिलता ही रहा। वे प्रधानमंत्री रहे तब भी। वे विपक्ष में डगर-डगर डोले, तब भी।
38 की उम्र में आज की कांग्रेस का, महासचिव तो छोड़िए, सचिव बन जाने पर ही जिनकी मुद्रा ‘टेढ़ो-टेढ़ो जाए’ हो जाती है, उन्हें इस बात का अंदाज़ा ही नहीं है कि राजीव गांधी, तब की कांग्रेस के, महासचिव होते हुए भी कितने सरल-सहज थे। 40 की उम्र में 400 सीटों के साथ राजीव जी भारत के प्रधानमंत्री बन गए थे, मगर उनकी देह-भाषा में कहीं कोई ऐंठन नहीं आई। आज 45 सीटों वाली कांग्रेस के छुटुर-पुटुर पद पाते ही जो अपने को वातानुकूलित कमरों और वाहनों में बंद कर बाहर ताला डाल देते हैं, वे तो यह कल्पना करने की लियाक़त भी नहीं रखते हैं कि प्रधानमंत्री के लिए ज़रूरी तमाम सुरक्षा इंतज़ामों के बावजूद राजीव गांधी से मिलना किसी के भी लिए कितना आसान हुआ करता था। तब राजीव के जनता-दरबार को संवाददाता के नाते मैं ने बरसो कवर किया। अब तो जो जितना ज़्यादा अनुपलब्ध है, वह उतना बड़ा नेता है।
राजीव जी की अलविदाई के 26 बरस बाद भी विश्व-व्यवस्था पर उनकी इतनी गहरी छाप देख कर कौन यह सोच सकता है कि सियासी-संसार में काम करने के लिए उन्हें दस साल भी पूरी तरह नहीं मिले थे। वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी की तरह न तो सत्रह साल प्रधानमंत्री रहे और न कई दशकों के राजनीतिक संघर्ष का तजु़र्बा उनके पास था। लेकिन अपने सियासी-दौर में उन्होंने जो किया, कितने कर पाते हैं? इंदिरा जी की हत्या से सुलग रही राजधानी में सिख-विरोधी दंगों को रोकने के लिए इधर राजीव जी ने सेना बुलाई और उधर मां की चिता को अग्नि देने के फ़ौरन बाद दंगा-पीड़ितों के घरों की तरफ़ दौड़ पड़े। जिसे अपने भाई की विमान दुर्घटना में मौत के बाद संसद में आना पड़ा हो और अपनी मां को उन्हीं के सुरक्षाकर्मियों की गोलियों का शिकार होने के बाद प्रधानमंत्री बनना पड़ा हो, उसके लिए राजनीति कौन-सी इंद्रसभा है? जिसकी आस्तीन में अरुण नेहरू, अरुण सिंह और अमिताभ बच्चन जैसे उसके बचपन के दोस्तों और विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसे राजनीतिक सहयोगियों ने सूराख़ किए हों, उसके लिए सत्ता का अंतःपुर कितना बियाबान रहा होगा? मगर इस सबके बावजूद नरम-दिल राजीव जी की सियासत का एक दशक उनके कर्तव्यबोध की दृढ़ता का शिला-लेख है।
1987 आते-आते जे. आर. जयवर्धने का श्रीलंका भारत के लिए चिंताएं पैदा करने लगा था। हज़ारों तमिल शरणार्थी भारत आ चुके थे। अंतरराष्ट्रीय ताक़तें हिंद महासागर में खो-खो खेल रही थीं। अमेरिका के कारण भारत की सैन्य संचार प्रणाली की मुश्किलें बढ़ रही थीं। अमेरिकी रक्षा मंत्री कैस्पर वैनबर्गर और लेफ़्टिनेंट जनरल वर्मन बॉल्टर्स की लगातार हो रही श्रीलंका यात्राओं ने राजनयिक हलकों में खलबली मचा रखी थी। श्रीलंका की सेना यूरोप और चीन से युद्ध उपकरण खरीद रही थी। ख़बरें गर्म थीं कि जयवर्धने के बेटे रवि की देखरेख में चैनल द्वीप समूह की एक आक्रमण-विशेषज्ञ कंपनी को सैनिक टोलियों के प्रशिक्षण का ज़िम्मा दिया गया है। इजराइली शिन-बेट, पाकिस्तानी ब्रिगेडियर तारिक मुहम्मद और दक्षिण अफ्रंीकी छापामारों द्वारा श्रीलंकाई कमांडो को दिए जा रहे प्रशिक्षण की ख़बरें भी छन कर बाहर आ रही थीं। ऐसे में राजीव गांधी ने भारतीय शांति सेना को कोलंबो रवाना करने का फ़ैसला लेने में ज़रा-सी भी देर नहीं की। 1988 में जब मैं जाफना गया तो शांति सेना के मुखिया मेजर जनरल ए. एस. कालकट ने इंटरव्यू में मुझे विस्तार से बताया था कि अगर निर्णय में थोड़ी भी देर होती तो कितना नुकसान होता। इसी तरह 1988 के नवंबर में तमिल ईलम के सैकड़ों लिबरेशन टाइगर्स मालदीव पहुंच गए और हुकूमत पर कब्ज़ा करने लगे तो कुछ ही घंटों के भीतर राजीव जी ने वहां की गय्यूम सरकार की मदद के लिए क़दम उठाए। विपक्ष में रहते हुए भी राजीव जी ने खाड़ी युद्ध को शांत करने के लिए दुनिया के देशों में जाकर अपनी भूमिका अदा करने में देर नहीं की।
त्वरित-निर्णय, कर्तव्य-बोध, मेल-जोल और संप्रेषण के इसी पितृ-ऋण का चुकारा आज की कांग्रेस के पुनर्जीवन का बीज-मंत्र है। जितनी जल्दी यह मंत्र कंठस्थ हो जाएगा, आगत के आसार उतनी ही रफ़्तार से चमकीले होते जाएंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)