Saturday, May 6, 2017

रामदेव के भरोसे नरेंद्र भाई बनेंगे ऋषि!


यह धरती ही ऋषि-मुनियों की है। ऐसे में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को राष्ट्र-ऋषि कहने पर आसमान क्यों टूटना चाहिए? जब नरेंद्र भाई को ही इस बात पर एतराज़ नहीं है कि एक तो उन्हें राष्ट्र-ऋषि कहा ही क्यों गया, और कहा गया तो ऐसा कहने वाले रामदेव कौन होते हैं, तो किसी और को उचकने की क्या ज़रूरत है? अगर एक स्वयंभू बाबा से अपनी पीठ थपथपवा कर नरेंद्र भाई गौरवान्वित हैं और बदले में उनके कसीदे पढ़ रहे हैं तो इन पारस्परिक प्रशंसा प्रस्तावों को पारित होने से रोकने वाले हम-आप कौन होते हैं?
यह अलग बात है कि अगर मैं नरेंद्र भाई की जगह होता तो रामदेव की इस हरकत को अपनी घोर अवमानना मानता। इसलिए नहीं कि न तो वे राम हैं, न देव हैं और न बाबा हैं तो उन्हें किसी को राष्ट्र-ऋषि का दर्जा देने का हक़ आखिर दे किसने दिया? बल्कि इसलिए कि ऋषीत्व को सरहदों में बांध कर उन्होंने इसकी मूल अवधारणा के सीने पर ही छप्पन इंची प्रश्नचिह्न लटका दिया है। क्या अब ऋषि भी ग्राम-ऋषि, ज़िला-ऋषि, संभाग-ऋषि, प्रदेश-ऋषि, राष्ट्र-ऋषि और विश्व-ऋषि होंगे? जब बाबा अपने को गली-बाबा, मुहल्ला-बाबा या राष्ट्र-बाबा नहीं कहते तो नरेंद्र भाई को सिर्फ़ राष्ट्र-ऋषि कह कर वे उनका सम्मान बढ़ा रहे हैं या उन्हें अपनी हदों का अहसास करा कर उनका घनघोर अपमान कर रहे हैं?
रामदेव कलियुगी बोधि-वृक्ष के तले बैठ कर बाबात्व को प्राप्त हुए हैं। लेकिन तब भी उन्हें इतना तो ज़रूर मालूम होगा कि वैदिक काल में ऋषि उन्हें कहा जाता था, जिनकी अंतः-प्रेरणा और पद्य-रचनात्मकता से वैदिक ऋचाओं ने जन्म लिया। संस्कृत में ऋषि शब्द की उत्पत्ति जिस धातु से मानी गई है, उसका अर्थ है चलना, बहना, गमन करना। ऋषि का अर्थ है वह व्यक्ति, जो आध्यात्मिक ज्ञान हासिल कर सांसारिक बखेड़ों से परे हो गया हो। यानी ऋषि तो वह है, जिसे राष्ट्र तो क्या, उस संसार की सीमा भी अपनी परिधि में नहीं बांध सकती, जिसमें तीनों लोक तक शामिल हैं।
रामदेव कलियुगी बोधि-वृक्ष के तले बैठ कर बाबात्व को प्राप्त हुए हैं। लेकिन तब भी उन्हें इतना तो ज़रूर मालूम होगा कि वैदिक काल में ऋषि उन्हें कहा जाता था, जिनकी अंतः-प्रेरणा और पद्य-रचनात्मकता से वैदिक ऋचाओं ने जन्म लिया। वैदिक युग के बाद अपनी गहन तपस्या से अंतः-ज्ञान हासिल कर उसे शाब्दिक संस्कार देने वाले साधु-पैगंबर ऋषि-तुल्य माने जाने लगे। संस्कृत में ऋषि शब्द की उत्पत्ति जिस धातु से मानी गई है, उसका अर्थ है चलना, बहना, गमन करना। ऋषि का अर्थ है वह व्यक्ति, जो आध्यात्मिक ज्ञान हासिल कर सांसारिक बखेड़ों से परे हो गया हो। यानी ऋषि तो वह है, जिसे राष्ट्र तो क्या, उस संसार की सीमा भी अपनी परिधि में नहीं बांध सकती, जिसमें तीनों लोक तक शामिल हैं।
सो, रामदेव ने नरेंद्र भाई को राष्ट्र-ऋषि या तो अर्द्ध-ज्ञानवश कहा है या फिर वे इतने सचेत हैं कि भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री की लल्लो-चप्पो करते वक़्त भी उन्हें ऋषि कहने को तैयार नहीं हैं। वे जानते हैं कि ऐसा करने से ‘ऋषि’ शब्द का क्षय होगा। क्योंकि ऋषि होना तो सीमाओं से परे होना है। सो, उन्होंने नरेंद्र भाई को ‘राष्ट्र-ऋषि’ की सीमा में बांधा। उन्हें बताया कि उनका ऋषीत्व सीमित है। अगर ऐसा है तो यह उन सबके लिए राहत देने वाला है, जो प्रधानमंत्री को ऋषि-रूप में देखने का सोच भी नहीं सकते। मगर जब एक-दूसरे के भक्ति-सरोवर में गोता लगा रहे रामदेव भी अपने नरेंद्र भाई को पूर्ण ऋषि का दर्ज़ा देने को तैयार नहीं हैं तो क्षणभंगुर जीवन जीने वाले बाक़ियों की तो बिसात ही क्या?
प्राचीन वैदिक ग्रंथों में सप्तऋषियों का जिक्र है। ये ऋषि कौन-कौन थे? इस पर अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग मत हैं। कुछ ग्रंथ अगस्त्य, अत्रि, भारद्वाज, गौतम, जमदाग्नि, वशिष्ठ और विश्वामित्र को पहले सप्तर्षि मानते हैं। मगर कई ग्रंथ कश्यप और भृगु को भी पहले सप्तर्षियों में मानते हैं। जो भी हों, सप्त-ऋषि अद्भुत मेधा के स्वामी थे। अगस्त्य यज्ञ में प्रकट हुए थे। वे मानवीय माता-पिता की संतान नहीं थे। अपनी पत्नी लोपमुद्रा के साथ मिल कर उन्होंने असंख्य श्लोकों की रचना की। अत्रि का जन्म जिह्वा से माना गया है। उनका विवाह अनुसूया से हुआ था। ऋग्वेद में अत्रि का ज़िक्र आता है। भारद्वाज ने चरक संहिता की भी रचना की थी। वे बृहस्पति और उतथ्य की संतान थे। द्रोण और कात्यायनी उनकी संतानें थीं। गौतम राहुगण की संतान थे और अहिल्या से उनका विवाह हुआ। ऋग्वेद और सामवेद के कई मंत्रों की रचना उन्होंने ही की। जमदाग्नि भृगु के वंशज थे। उन्हें शिव का अवतार माना जाता है। रेणुका उनकी पत्नी थीं। वे परशुराम के पिता थे।
योग वशिष्ठ और अग्निपुराण की रचना करने वाले वशिष्ठ के पास कामधेनु गाय थी। अरुंधति उनकी पत्नी थीं। विश्वामित्र गायत्री मंत्र के रचयिता हैं। वाल्मीकि रामायण के बालकांड में भी विश्वामित्र का ज़िक्र है और महाभारत में भी मेनका से उनकी पुत्री शकुंतला के जन्म का वर्णन है। कश्यप ऋषि का ऋग्वेद में भी ज़िक्र है और अथर्ववेद में भी। हमारे कश्मीर का नाम कश्यप ऋषि पर ही पड़ा है। भृगु ऋषि फलित ज्योतिष के प्रथम संकलनकर्ता थे। वे मानस-पुत्र थे। ब्रह्मा के मस्तिष्क से जन्मे थे। ख्याति और काव्यमाता उनकी पत्नियां थीं। ख्याति प्रजापति दक्ष की पुत्री थीं। काव्यमाता से जन्मी भृगु की संतान का नाम शुक्र है, जिन्हें असुर अपना देवता मानते थे।
हो सकता है कि कुछ लोगों को नरेंद्र भाई भी ऐसे राजा लगते हों, जो ऋषि की तरह काम कर रहे हैं। मेरा मन भी नरेंद्र भाई के कुछ गुणों का कायल है। मगर मेरा मन उनके कई दुर्गुणों से बेहद घायल भी है। किसी के कीर्तन गाने का अधिकार छीनने वाला मैं कौन? लेकिन मैं यह मानता हूं कि नरेंद्र भाई को खुद रामदेव की इस बात पर आपत्ति लेनी चाहिए कि वे उन्हें ऋषियों के साथ जाज़म पर बैठा रहे हैं।
सप्त-ऋषि श्रंखला के इस बेहद संक्षिप्त उल्लेख भर से अंदाज़ हो सकता है कि आख़िर ऋषि होते क्या हैं? ऋषि-पत्नियों के बारे में भी अगर आप विस्तार से पढ़ेंगे-सुनेंगे तो ऋषि-परंपरा के प्रति आपका आदर-भाव और भी क्षितिज-विहीन हो जाएगा। अपने देश के ताज़ा इतिहास में हमने अब तक एक पुरुषोत्तम दास टंडन का नाम ही सुना था, जिन्हें लोग राजर्षि कहते थे। यानी ऐसा राजा, जो ऋषि की तरह काम करता हो। टंडन जी स्वाधीनता संग्राम में पहली क़तार के सेनानी थे। वे ऋषि की तरह काम करते भी रहे होंगे। वे समाजसेवी थे, साहित्यकार थे और बहुमुखी प्रतिभा के मालिक थे। हिंदी को राजभाषा का दर्ज़ा दिलाने के लिए उन्होंने जो कुछ किया, उससे बहुत-से लोग इतने भावुक हो गए कि उन्हें राजर्षि कहने लगे।

हो सकता है कि कुछ लोगों को नरेंद्र भाई भी ऐसे राजा लगते हों, जो ऋषि की तरह काम कर रहे हैं। मेरा मन भी नरेंद्र भाई के कुछ गुणों का कायल है। मगर मेरा मन उनके कई दुर्गुणों से बेहद घायल भी है। किसी के कीर्तन गाने का अधिकार छीनने वाला मैं कौन? लेकिन मैं यह मानता हूं कि नरेंद्र भाई को खुद रामदेव की इस बात पर आपत्ति लेनी चाहिए कि वे उन्हें ऋषियों के साथ जाज़म पर बैठा रहे हैं। यह रामदेव की नादानी हो या चालबाज़ी, मगर उनके इस हीही-कर्म को स्वीकार करने से हमारे प्रधानमंत्री के माथे पर कोई कलगी नहीं लग रही है। उलटे उनकी हाहा-हीही हो रही है। रामदेव ने कूद-फांद करके हज़ारों करोड़ का क़ारोबार भले ही जमा लिया हो, परिपक्वता और संज़ीदगी से वे कोसों दूर हैं। भारत अपने प्रधानमंत्री को ऐसी बचकानी गोद में खेलता देखेगा तो दुनिया में सिर उठा कर कैसे चलेगा? नरेंद्र भाई, रामदेव का दिखाया रास्ता ढलानों की तरफ़ जाता है। वे तो कुछ भी कह सकते हैं, लेकिन हया का इस तरह औंधा पड़ा रहना आपके लिए थोड़े ही ठीक है। बाबा को तो अपनी पड़ी है। लेकिन आपको ऐसी क्या पड़ी है कि रामदेव की धुन पर ताली पीटें? ऐसे किसी के ऋषि कह देने से कोई ऋषि हो जाता तो फिर बात ही क्या थी? गले में कंठी-माला डाल कर घूमने से ही ऋषि बनते होते तो चंद्रास्वामी और आसाराम सबसे बड़े ऋषि होते। मैं तो चाहता हूं कि आप ऋषि हो जाएं। लेकिन आप मेरे चाहने से नहीं, खुद के चाहने से ऋषि बनेंगे। रामदेव की खि़ताब-खोरी से आप और कुछ भी बन जाएं, इस जनम में ऋषि तो नहीं बन पाएंगे। जिस दिन आप दीनदार हो जाएंगे, जिस दिन आप सम्यक-दृष्टा हो जाएंगे, उस दिन आप ऋषि हो जाएंगे। मगर इस राह पर चलना तो प्रारंभ करिए। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

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