उमर फ़ैयाज़ आज के कश्मीर का अमिट प्रतीक बन कर मुल्क की तवारीख़ में दर्ज हो गया है। आज का कश्मीर, नरेंद्र मोदी की सरपरस्ती और अमित शाह की रहनुमाई में अपने पांव पसार रही भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के इशारों पर दौड़ रहा कश्मीर है। आज का कश्मीर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भाजपा में प्रतिनियुक्ति पर आए राम माधव की निगहबानी में आगे बढ़ रहा कश्मीर है। आज का कश्मीर, उन महबूबा मुफ़्ती की अगुआई में अपनी मंज़िलें तय कर रहा कश्मीर है, जिनकी बहन रुबैया की आतंकवादियों के कब्जे से रिहाई के लिए, अब से 28 साल पहले ‘दूसरे गांधी’ विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के ज़माने में, आधा दर्जन दुर्दांत आतंकवादियों को जेल से रिहा कर दिया गया था।
आज के कश्मीर में जो हो रहा है, वैसा तो पहले कभी नहीं हुआ। कश्मीर मसलों के तमाम विशेषज्ञ इस पर एक राय हैं कि कश्मीर की धरती इतनी ऊबड़खाबड़ पहले कभी नहीं थी। मसला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसलों का हो और उस पर भी अगर वह कश्मीर का हो तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ले कर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और राम माधव से ले कर महबूबा मुफ़्ती तक की नेकनीयती पर अंगुली उठाने वालों को मैं भी तहे-दिल से कोसूंगा। मगर यह सवाल भी मेरे ज़ेहन को कुरेदता है कि आखिर ऐसा हुआ क्या है कि आज कश्मीर इस कदर खौलने लगा है? किसी उमर फ़ैयाज़ को इसलिए मार दिया जाए कि वह अपने देश की सेना में भर्ती हो गया था–इससे बड़ा तमाचा हमारे मुंह पर और क्या होगा? इसका जवाब देने के लिए हम निश्चित ही अपना दूसरा गाल आगे नहीं कर सकते। लेकिन जवाब देने के अपने ताज़ा तौर-तरीक़ों पर संजीदगी से सोच-विचार का भी यही वक़्त है।
कश्मीर के बिगड़ रहे हालात पर लीपापोती करने से कुछ नहीं होगा। वहां आतंकवादी घटनाओं में मारे जाने वाले सुरक्षाकर्मियों की तादाद पिछले तीन बरस में लगातार बढ़ी है। 2014 में 32 सुरक्षाकर्मी मारे गए थे, 2015 में 33 और 2016 में 60। इस साल पिछले सप्ताह तक कश्मीर में 12 आतंकवादी घटनाएं हो चुकी हैं और इनमें 19 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए हैं। आतंकवादी घटनाओं की संख्या भी बढ़ रही है। 2013 में आतंकवाद की 22 घटनाएं हुई थीं, 2014 में 21, 2015 में 24 और 2016 में 34। सीमा पार से आतंकवादियों की कश्मीर में घुसपैठ भी बढ़ती जा रही है। 2011 से 2014 तक हर साल सवा दो सौ से पौने तीन सौ के बीच घुसपैठिए सेंध लगाते थे। लेकिन 2016 में सीमा पार से पौने चार सौ घुसपैठिए कश्मीर आए। तीन दशक में कश्मीर में क़रीब साढ़े छह हज़ार सुरक्षाकर्मी आतंकवाद का शिकार हो चुके हैं। इस दौरान तक़रीबन 15 हज़ार नागरिक भी इन घटनाओं में अपनी जान गंवा चुके हैं।
कश्मीर के पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें जब सवा सौ प्रतिशत बढ़ गईं तो बहुतों को लगा कि अब कश्मीर के अच्छे दिन आ गए। मगर तीन बरस बीतते-बीतते कश्मीर कहां से कहां आ गया! ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ कि जश्न की ख़ुशी में यह तथ्य नज़रअंदाज़ हो गया कि भाजपा की झोली में जम्मू के इलाक़ों से सीटों की बारिश तो हुई थी, मगर कश्मीर की 46 और लद्दाख की 4 सीटों में से एक भी उसे नहीं मिली थी। घाटी में भाजपा का चेहरा रहीं हिना बट्ट समेत 35 में से 34 भाजपाई उम्मीदवारों की ज़मानत तक ज़ब्त हो गई थी। कश्मीर का भाग्य-विधाता बनने की झौंक में भाजपा के कर्णधारों ने यह बात आसानी से भुला दी कि उनकी पार्टी को मिले मतों में से 93 प्रतिशत से ज़्यादा सिर्फ़ जम्मू के इलाके़ से मिले हैं। राज्य में भाजपा के पक्ष में पड़े कुल 11 लाख मतों में से सवा दस लाख से ज़्यादा जम्मू के थे। घाटी में तो उसे महज 47 हज़ार वोट ही मिले थे और लद्दाख में सिर्फ़ 26 हज़ार। अपनी जीत को सकल-राज्य की जीत समझ लेने की ख़ुमारी में भाजपा ने महबूबा मुफ़्ती के दस्तरखान को कश्मीरियत का अंतिम सत्य मान लिया और अपनी हुकूमत को लेकर महबूबा की मुहब्बत ने बाकी सब-कुछ उठा कर ताक पर रख दिया। आज के कश्मीर का यही दुर्भाग्य है।
जवानों की जवानी बीतने के पहले भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का संकल्प साधे बैठे संघ-प्रमुख मोहन भागवत को उमर फ़ैयाज़ की जवानी पर भी कुछ तो तरस आता होगा! 23 की उम्र में उमर के साथ हुए सलूक से अगर भागवत के माथे की सलवटें ज़रा-सी भी गहरी हुई हों तो उन्हें अपने राम माधव से कहना चाहिए कि हिंदू राष्ट्र तो जब बनेगा, तब बन जाएगा; यह समय तो कश्मीर की कश्मीरियत बचाने का है। अखंड भारत का ख़्वाब देखने वाले अगर कश्मीर गंवा कर हिंदू राष्ट्र बनाने पर उतर आए हैं तो क्या हम हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहें? भागवत का तो भागवत जानें, लेकिन विपक्ष को भी कहां यह समझ में आ रहा है कि कश्मीर किसी हुकूमत का नहीं, कौ़मी-मसला है। मैं तो यह देख कर हैरत में हूं कि हालात उमर फ़ैयाज़ तक पहुंच जाने के बाद भी हमारे किसी विपक्षी राजनीतिक दल ने कश्मीर पर अपनी कार्यसमिति की बैठक करना ज़रूरी नहीं समझा। जिस देश का विपक्ष राष्ट्रीय मुद्दों पर ट्वीट-टिप्पणी कर के अपनी ज़िम्मेदारी से हाथ झाड़ लेता हो, वह देश महान है!
फ़ैयाज़ का मतलब होता है बेहद दयालु और राष्ट्रीय सुरक्षा अकादमी में उमर फ़ैयाज़ के तमाम हमजोली कह रहे हैं कि चंद महीने बाद 23 बरस की उम्र पूरी करने वाला उनका यह साथी जितना बहादुर था, उतना ही करुणामयी भी था। ..वह अपनी बहन के निक़ाह में एक भाई के नाते शरीक होने गया था। मगर आतंक का बारूद जिन दिमाग़ों में भरा होता है, उन्हें इससे क्या लेना? उमर पर हुए ज़ुल्म का घूंट पी जाना अक्षम्य होगा। ….यही वक़्त है कि हम राहे-शौक में किसी ग़लत क़दम के न उठ जाने की ऐहतियात बरतें। वरना मंजिल तमाम उम्र हमें ढूंढती रहेगी।
अमित भाई का तो मैं नहीं जानता, मगर मुझे पक्का यक़ीन है कि उमर की शहादत ने नरेंद्र भाई की आंखें ज़रूर नम की होंगी। इसलिए मैं उम्मीद करता हूं कि पाकिस्तान से निपटने की अपनी अब तक की प्रयोगधर्मिता पर वे नए सिरे से विचार करेंगे। इतना तो वे समझ ही गए होंगे कि पाकिस्तान का इलाज़ न तो शॉल-साड़ी से होगा न हाथ को एकदम हथौड़ा बना लेने से। राजनय की दुनिया में काले-सफेद पर चलने से काम नहीं चलता। इन दोनों के बीच जो भूरी राह मीलों तक जाती है, राजनय के बीज उसी के किनारे अंकुरित होते हैं। दक्षिण एशिया तो छोड़िए, भारत अब दुनिया की बहुत बड़ी ताक़त है। खुद की ताक़त दिखाने के लिए हमें बार-बार अपनी मूंछों पर ताव देने की ज़रूरत नहीं है।
इस्लाम के नाम पर कश्मीर को दोज़ख बनाने वालों को यह तो ज़रूर मालूम होगा कि लोग अपने बच्चे का नाम उमर अपने मज़हब के उस दूसरे खलीफ़ा के नाम पर रखते हैं, जो मुहम्मद साहब के साथी थे। फ़ैयाज़ का मतलब होता है बेहद दयालु और राष्ट्रीय सुरक्षा अकादमी में उमर फ़ैयाज़ के तमाम हमजोली कह रहे हैं कि चंद महीने बाद 23 बरस की उम्र पूरी करने वाला उनका यह साथी जितना बहादुर था, उतना ही करुणामयी भी था। अकादमी की हॉकी टीम उमर की कलाइयों के लोच पर क़ुर्बान थी और वहां का वॉलीबॉल मैदान उसके बदन के उछाल की बलाइयां लेता था। वह अपनी बहन के निक़ाह में एक भाई के नाते शरीक होने गया था। मगर आतंक का बारूद जिन दिमाग़ों में भरा होता है, उन्हें इससे क्या लेना? उमर पर हुए ज़ुल्म का घूंट पी जाना अक्षम्य होगा। राजकीय सम्मान के साथ निकले उसके जनाज़े पर बरसे पत्थरों से निग़ाह फेर लेना तो ऐसा पाप होगा, जिसे आबे-ज़मज़म भी नहीं धो पाएगा। मगर यही वक़्त है कि हम राहे-शौक में किसी ग़लत क़दम के न उठ जाने की ऐहतियात बरतें। वरना मंज़िल तमाम उम्र हमें ढूंढती रहेगी। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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