मैं तो समझा करता था कि हमारे जमाने में बिपिन चंद्र, रामशरण शर्मा, द्विजेंद्र नारायण झा, विश्वंभरनाथ पांडे, इरफ़ान हबीब, रोमिला थापर, मुशीरुल हसन और सतीश चंद्र जैसे लोगों को भारतीय और विश्व-इतिहास की जितनी समझ है, कम को होगी। लेकिन अब एकाध दशक में जब से ऐसा दौर आया है कि चेतन भगत प्रेमचंद से बड़े उपन्यासकार माने जाते हैं और प्रसून जोशी निराला से बड़े कवि हो गए हैं तो रामचंद्र गुहा ने भी इतिहासकारों की कतार में, बाकियों को तो छोड़िए, राहुल सांकृत्यायन, बी.जी.एल. स्वामी, बरुन डे, भास्कर आनंद सल्तोरे, के़ नीलकांत शास्त्री और हजारी प्रसाद द्विवेदी तक को मीलों पीछे छोड़ दिया है।
‘इतिहासकार’ रामचंद्र गुहा की बुद्धि मौका मिलते ही छलक-छलक जाए हंै। सो, इस मंगलवार को भी दस साल पहले लिखी अपनी पुस्तक ‘गांधी के बाद का भारत’ के परिवर्द्धित संस्करण को जारी करते हुए उनके मुखारविंद से निकला कि अब नीतीश कुमार को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाए बिना सोनिया और राहुल गांधी का कोई भविष्य नहीं है। गुहा ने साफ किया कि ऐसा कहते हुए वे कल्पना की कोरी उड़ान नहीं भर रहे हैं। वे सचमुच मानते हैं कि कांग्रेस खुद को नीतीश के हवाले कर दे और यह ‘दोस्ताना-अधिग्रहण’ जितनी जल्दी हो जाए, उतना अच्छा है। इतिहास की सबसे बेहतर समझ से खुद को सराबोर समझने वाले गुहा ने कहा कि कांग्रेस बिना नेता की पार्टी रह गई है और नीतीश बिना पार्टी के नेता हैं, सो, दोनों का यह संगम कांग्रेस को पार उतार देगा।
रामचंद्र गुहा के मन में राहुल गांधी को लेकर बसे कसैलेपन की बौछार हम कोई पहली बार नहीं देख रहे हैं। पिछले कुछ समय से यह उनका प्रिय-कर्म बना हुआ है। कांग्रेस की चिंता ने गुहा को ऐसे जलते तवे पर खड़ा कर दिया है कि वे अनवरत ताताथैया कर रहे हैं। इतिहासकार गुहा को तीन बरस से एक-के-बाद-एक सीढ़ी लुढ़क रहे भारतीय जनतंत्र की कोई फ़िक्र नहीं है। मुझे लगता है कि ये गुहा, वो गुहा नहीं हैं, जिन्हें 2002 के बाद गुजरात की त्रासदी पर लिखी उनकी किताब में शामिल करने के लिए फासीवादी प्रवृत्तियों से लड़ रही पैदल-सेना के ए.जी. नूरानी, महाश्वेता देवी, शैल मायाराम, वृंदा ग्रोवर, विभूति नारायण राय, नंदिनी सुंदर, मोहनदास नैमिषराय, तीस्ता सीतलवाड़ और ज्योति पुनवानी जैसे सेनानियों ने अपने लेख दिए थे?
ऐतिहासिक परिवर्तनों का सही संदर्भों में तटस्थ नज़रिए से अवलोकन करना इतिहासकार का धर्म होता है। अपने निजी राग-द्वेषों की कूंची से पन्ने रंगने वाले भाषाई लच्छेदारी के कारीगर भले हों, सच्चे इतिहासकार नहीं हो सकते। नीतीश कुमार कितने ही साफ-सुथरे हों, उनकी वैचारिक अस्थिरता के बीसियों नमूने हिंदुस्तानी सियासत की चादर छिटके पड़े हैं। राष्ट्रपति के लिए नरेंद्र भाई मोदी के और उपराष्ट्रपति के लिए सोनिया-राहुल के उम्मीदवार के पीछे खड़े होना उनका ताजा करतब है। दो-ढाई साल पहले घटे जीतनराम मांझी प्रसंग को जिन्हें भूलना हो, भूल जाएं, मगर इस मामले में नीतीश की मतलबपरस्ती का मटमैलापन कैसे धुलेगा? जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर से ले कर सत्येंद्र नाराण सिंह के पालने में बड़े होने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेल मंत्री बन जाने वाले नीतीश की बुनियादी विचारधारा जानने का हक़ हमें है या नहीं? गैसल की रेल दुर्घटना के बाद लालबहादुर शास्त्री बनने की ललक में इस्तीफ़ा दे देने और चंद महीनों बाद फिर कृषि मंत्री बन कर लौट आने वाले नीतीश को 2004 का लोकसभा चुनाव दो स्थानों से क्यों लड़ना पड़ा था? इस चुनाव में वे अपने पारंपरिक निर्वाचन क्षेत्र से बुरी तरह क्यों हार गए थे?
2010 की बारिश में बिहार में बाढ़ से जबरदस्त तबाही हुई तो नरेंद्र मोदी की भेजी राहत-राशि लौटा देने वाले नीतीश तीन महीने बाद ही बिहार का चुनाव भारतीय जनता पार्टी के साथ मिल कर लड़ने लगे थे। फिर 2015 का चुनाव आया तो वे कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के साथ आ गए। आज जब राजनीतिक दलों के उसूलों का इम्तहान हो रहा है तो नीतीश का एक हाथ रामनाथ कोविंद की कमर में है और दूसरा हाथ गोपालकृष्ण गांधी की कमर में। और, इतिहास-नरेश रामचंद्र गुहा मानते हैं कि सोनिया और राहुल तो नीतीश के मुकाबले कहीं ठहरते ही नहीं हैं। वाह! जो सोनिया और राहुल अपने बुनियादी उसूलों से कभी इधर-उधर नहीं हुए, अब उनका तब तक कोई भविष्य नहीं है, जब तक कि वे नीतीश का साया नहीं ओढ़ते! और, 132 साल पुरानी कांग्रेस के अब ऐसे दिन आ गए हैं कि उसे नीतीश को अपने सिर पर बैठा कर नाचना चाहिए! इतिहासवेत्ता रामचंद्र गुहा की इस खोज के बाद भी जिन्हें उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भरोसा है, मैं उनका अभिनंदन करता हूं।
सोनिया-राहुल को तो दरअसल अब मालूम यह करना चाहिए कि कांग्रेस के भीतर वे कौन-से ‘बुद्धिजीवी’ हैं, जो अपनी शामें नियमित तौर पर रामचंद्र गुहा के साथ बिताने में खुद को धन्य समझते हैं? मेरे जैसे लाखों-करोड़ों अकिंचन चूंकि अपने श्रम पर जिंदा है, सो, श्रमजीवी हैं। लेकिन ये जो अपनी बुद्धि के बूते जीवित हैं और लगातार फल-फूल रहे हैं, ऐसे बुद्धिजीवियों को परकोटे से बाहर करने का वक़्त अगर अब भी नहीं आया है तो कब आएगा? कांग्रेस की नीति-निर्णायक मंडली में जिस दिन श्रमजीवियों और बुद्धिजीवियों की भागीदारी का अनुपात ठीक हो जाएगा, सोनिया-राहुल की राह के गड्ढे फटाफट भरने लगेंगे। वरना नए राजनीतिक दर्शन के पुरोधा घुमा-फिरा कर पूरे विमर्श को ऐसे ही विषयों में उलझाए रखेंगे, जिससे धुंधलापन गहराता जाए।
जब असली मुद्दों को पूरी बेशर्मी से दिग्भ्रमित किया जा रहा हो, तब भी जो नहीं बोलेंगे, वे अक्षम्य अपराध करेंगे। बीते युग ने जिन्हें आगामी युग की ज़िम्मेदारी सौंपी है, उनके कंधे इतने कमज़ोर नहीं हैं कि गुहाओं के इशारे पर थिरकने लगें। विचारधारा के अंत का मिथक गढ़ने वाली ताक़तें क्यों ऐसा कर रही हैं, जानने वाले जानते हैं। चोर-खिड़की से महलों पर कब्ज़ा करने वाले पहले भी थे, आज भी हैं और आगे भी रहेंगे। इसमें नया क्या है? मगर जिन्हें लग रहा है कि कांग्रेस के ‘दोस्ताना अधिग्रहण’ की उनकी मुहिम के पेड़ पर फल आएंगे, वे यह जानते ही नहीं हैं कि कांग्रेसी खेत की मिट्टी में क्या तासीर है!
मैं तो सोचता था कि दूर से छोटी-सी दिखने वाली एक इतिहासकार की इस सलाह को सबसे पहले दुलत्ती नीतीश और उनके साथी मारेंगे। फिर मैं ने सोचा कि कांग्रेस के बुद्धिजीवी रामचंद्र गुहा पर पिल पड़ेंगे। मुझे लगता है कि गुहा की बात ध्यान देने लायक ही नहीं है। लेकिन जब मैं ने मौन इस तरह पसरे देखा तो मेरा मन यह मानने को नहीं माना कि राजनीतिकों की दुनिया इतनी मासूम है कि गुहा की बात को ध्यान देने लायक ही नहीं मान रही है, इसलिए चुप है। इस बात को हंसी में उड़ा देने के लिए भी कोई तो ठट्ठा मारता! मगर ये सन्नाटा क्यों है भाई? इसलिए सही-गलत, मैं ने सोचा कि मैं तो रामचंद्र गुहा की अक़्ल पर पेट पकड़ कर हंसने का यह मौक़ा हाथ से न जाने दूं। गुहा को मालूम होना चाहिए कि इतिहास एक हिमनद की चाल से चुपचाप चलता जाता है। उसे विचारों की डाल पर इधर-उधर कूदते रहने वाले इतिहासकारों की ज़रूरत नहीं होती। इतिहास चंडूखाने में निर्मित नहीं होता। उसका निर्माण तपस्वी करते हैं। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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