कफ़न में जेब नहीं होती, यह नीतीश कुमार जानें। किस के कफ़न में झोला है, यह लालू प्रसाद यादव जानें। मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूं कि नीतीश ने अपनी पार्टी जेडीयू के सियासी जनाज़े में अंतिम कील खुद ही ठोक ली है। भारतीय जनता पार्टी के जीवन रक्षक उपकरणों का सहारा मिलने के बाद भी, अब साथ छोड़ता जेडीयू का शरीर, ज़्यादा-से-ज़्यादा 39 महीने का ही मेहमान तो है। मगर मौक़ापरस्ती की नीतीशीय-इंतिहा ने इतना तो अभी ही तय कर दिया है कि 2020 की सर्दियों आते-आते जेडीयू का बदन ठंडा हो कर पूरी तरह अकड़ चुका होगा और तब बिहार में और जो हो, सो हो, नीतीश और उनकी जेडीयू तो कहीं नहीं होगी।
इसका मतलब यह नहीं है कि भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद भी अपने बेटे तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनाए रखने की ज़िद पर अड़े लालू यादव बिहार के इस सियासी हवन में कोई बड़ी पवित्र आहुतियां दे रहे थे। इसका यह मतलब भी नहीं है कि मगध-वैशाली-मिथिला की धरती में अब वे अंकुर जन्मेंगे, जो लालू-वंश को भविष्य का मौर्य-वंश बना देंगे। लेकिन भ्रष्टाचार पर शून्य-सहनशीलता के वेदव्यास होने का दावा करने वाले नीतीश भी तो बताएं कि 2015 के चुनाव में जब वे लालू से गलबहियां कर रहे थे तो उन्हें चारा-कांड कौन-से मोतियाबिंद की वज़ह से नज़र नहीं आया? तेजस्वी ने कौन-सा उपमुख्यमंत्री पद पर रहते हुए कोई भ्रष्टाचार किया था कि नीतीश इतने बिलबिला गए? क्या जिस भाजपा के अंकशायी वे अब फिर हो गए हैं, उसमें बेहद संगीन आरोपों से घिरे लोग सरकारी और सांगठनिक पदों पर विराजमान नहीं हैं?
सो, जिन्हें नीतीश के कसीदे पढ़ने हों, पढ़ें। मेरा मानना है कि वे ‘गंगा गए तो गंगाराम और जमना गए तो जमनादास’ की मतलबपरस्त-दर्शन के अनुयायी हैं। भारतीय राजनीति में सियासी दगा़बाज़ी के सबसे बड़ा उस्ताद का दर्ज़ा अब तक भजनलाल को हासिल था। नीतीश कुमार ने भजनलाल को कोसों पीछे छोड़ दिया है। लालू ने कई पाप किए होंगे। अगर किए हैं तो वे अपने पापों की सज़ा भुगतेंगे। लेकिन नीतीश ने महापाप किया है। उन्होंने राजनीतिक नैतिकता के तमाम सर्वमान्य सिद्धांतों को उस हिंद महासागर में तिरोहित कर दिया है, जिसका पूरा जल भी उनके इस महापाप को धोने में कम पड़ जाएगा। मुझे लगता है कि नीतीश अब हमारे इतिहास के उन ‘थू-थू व्यक्तित्वों’ में शुमार हो गए हैं, जिन पर अपनी संतानों का नाम नहीं रखने की परंपरा है।
जिन्हें लगता है कि नीतीश को भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ महायुद्ध में शरीक होने के लिए बधाई दी जानी चाहिए, वे दें। मैं तो सियासी-टप्पेबाज़ी के लिए उन्हें शुरू से धिक्कारता आ रहा हूं। मैं हमेशा से मानता था कि वैचारिक शैया-बदली का ऐसा ढीठपन जिसमें हो, वह घर में बिठाने लायक ही नहीं है। तब जब मैं यह कहता था कि कांग्रेस ने नीतीश को अपने घर की बैठक में जगह दे कर ग़लती की है तो गुनाह करता था। लालू में लाख खोट होंगे, लेकिन उनकी वैचारिक दृढ़ता का नीतीश के सत्ताखोर-स्वभाव से कहीं कोई मुकाबला नहीं हो सकता। सबसे नाजु़क मोड़ पर खड़े लोकतंत्र का दिल नीतीश के दुराचरण से जितना टूटा होगा, उसकी मिसाल इतिहास में ढूंढे नहीं मिलेगी। कंठी-माला लेकर विचर रहे सियासी सेंधमारों से भारतीय जनतंत्र को बचाने का महायुद्ध तो संयुक्त-विपक्ष को दरअसल अब लड़ना है।
भाजपा चूंकि राजनीतिक आचरण में नैतिक-अनैतिक के सिद्धांत को मानती ही नहीं है, सो, उसे आज सबसे ज़्यादा खुश होने का हक़ है। तीन साल से राजनीतिक-दरिंदगी के ज़रिए सामा्रज्य-विस्तार करने में लगी भाजपा के जबड़े में जेडीयू खुद ही निवाला बन कर गिर गई। क्षेत्रीय दलों को निगलने की अपनी सिलसिलेवार योजना के तहत जेडीयू का शिकार भाजपा ने काफी आसानी से कर लिया। नीतीश का यह भ्रम जल्दी ही दूर हो जाएगा कि बिहार की बिसात उनके हाथ में है। लोकसभा का अगला चुनाव जिस दिन होगा, बिहार विधानसभा का चुनाव भी अब उसी दिन होगा। और, जब ऐसा होगा तो नीतीश खुद को एकांतवास में पाएंगे। भाजपा और उसके पितृ-संगठन के पैदल-सैनिक तब तक नीतीश की तमाम समर्थक टुकड़ियों को खदेड़ कर तड़ी पार कर चुके होंगे।
मैं प्रार्थना करता हूं कि नीतीश के पतन-प्रेम से भीतर तक हिल गए जेडीयू के शरद यादव, अली अनवर और वीरेंद्र कुमार जैसे सज्जनों के उसूल, विवेक और नैतिक-बल कायम रहें। शरद यादव और उनसे सहमत लोगों की सारी सार्थकता अब इसी में है कि वे जेडीयू का मोह त्याग दें। इतिहास ऐसे मौक़े एकाध बार ही देता है, जब आप सत्ता की इंद्रसभा से कोई कलंक अपने माथे पर लेकर भी बाहर आ सकते हैं और आपके मस्तक पर सुगंधित चंदन का तिलक भी हो सकता है। सत्ता के गलियारों ने अब तक जो नाच नचा लिए, सो, नचा लिए; अगर अब शरद यादव अगली नृत्य-प्रस्तुति में हिस्सा लेने से इनकार कर देंगे तो जमाना उन पर फूल बरसाएगा। विपक्षी एकजुटता के शिखर-पुरुष का मुकुट उनके सिर पर होगा। लेकिन अगर कहीं वे फिसल गए तो अनैतिक शक्तियों के अट्टहास से हमारे कान फट रहे होंगे।
अंतर्मन उनके घायल होते हैं, जिनकी अंर्तआत्मा होती है। सिर्फ़ कह देने भर से लोग नहीं मान लेते हैं कि किसी ने अंर्तआत्मा की आवाज़ पर कोई क़दम उठाया है। नीतीश की अंर्तआत्मा से निकली घ्वनियां तो देश पहले भी सुनता रहा है। काया रंगबदलू हो सकती है, लेकिन अंर्तआत्मा इतनी रंगबदलू भला कैसे हो सकती है? नीतीश जिस तरह की मटरगश्ती करते हुए राजनीति कर रहे हैं, उसे देख कर उनके गुरुवर जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर भी स्वर्ग में अपनी छाती पीट रहे होंगे। आज वे होते तो नीतीश के विश्वासघातों को देख उनकी हिचकियां नहीं रुकतीं। वे यह भरोसा ही नहीं कर पाते कि उनके शिष्य के भीतर इतना छल-कपट भरा होगा। नीतीश ने साबित कर दिया है कि वे उन राजनीतिकों में हैं, जो कभी अपने भीतर नहीं झांकते। बीच-बीच में भीतर तो वे झांकते हैं, जिन्हें यह चिंता होती है कि कहीं मैं बदल तो नहीं रहा हूं। नीतीश तो अपने भीतर के नीतीश को शुरू से अच्छी तरह जानते हैं। सो, उन्हें क्या खुद के भीतर झांकना!
लालकिले से अपने पहले भाषण में खुद को राजनीति नहीं, राष्ट्रनीति का हिस्सा बताने वाले हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने नीतीश की नटबाज़ी को महिमामंडित करने में जिस तरह ज़रा भी देर नहीं लगाई, उसने घटनाक्रम के इस हमाम में सबको निर्वस्त्र कर दिया। सहमति के मज़बूत धरातल पर देश को आगे ले जाने का वादा करने वाले नरेंद्र भाई ने दिल्ली आते ही देश के हर कोने में सत्ता हड़़पने की हड़बड़ी में जो-कुछ किया है, उसके बाद भी अगर किसी को आगत के आसार गुलाबी लगते हों तो कोई क्या करे! विपक्ष की धज्जियां बिखेरने पर तुली मौजूदा शासन-व्यवस्था से लोहा लेने का काम वे नहीं कर पाएंगे, जो कबाड़ के कारोबारी हैं। जंग के उसूल निभाने में बहुत बार हार का सामना भी करना पड़ता है। लेकिन फिर भी उन लोगों का अनवरत अभिनंदन करते रहना हमारा कर्तव्य है, जो युद्ध में सब-कुछ जायज़ नहीं मानते हैं। आख़िर ऐसी राजनीतिक क़ामयाबियों को हम कब तक चाटते रह सकते हैं, जिनकी इबारत नैतिक पतन बदबूदार के पन्नों पर लिखी होती है? लोकतंत्र की बुनियाद तो आखि़र उन्हीं के भरोसे बचेगी, जिनमें अपने भीतर झांकने की नैतिक ताक़त है। आज जो दीवार अंधेरों ने उठा रखी है, देर-सबेर उसे गिरना तो है ही। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)
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