Monday, October 15, 2018

जनतंत्र के पहरुए से कर-बद्ध निवेदन


अगर अभी कोई माने तो ठीक और न माने तो ठीक, मगर मेरा मानना है कि हमारे प्रधानमंत्री अगले बरस की गर्मियां आते-आते घरेलू सियासत की लपटों से इतने झुलस चुके होंगे कि उनके बचे-खुचे आभा-मंडल की परतें पूरी तरह दरक जाएंगी। उनके आलीशान किले में दरारें पड़ने की रफ़्तार इतनी तेज़ हो गई है कि संभाले नहीं संभल रही है। ऐसा न होता तो नरेंद्र भाई को विपक्ष के महागठबंधन के पीछे परदेसी साए नज़र नहीं आ रहे होते। अब तक अपने पराक्रम से पूरी दुनिया में परचम लहराने की आत्म-मुग्धता से लबरेज़ भारत के प्रधानमंत्री को 2019 के चुनाव में देसी विपक्ष की विदेशी शक्तियों से सांठगांठ का भूत सताने लगे तो इसका साफ़ मतलब है कि उनके पैरों के नीचे की ज़मीन पोली हो गई है।
परदेसी जिन्न के सपने इन दिनों दुनिया के सिर्फ़ दो दिग्गजों को आ रहे हैं। एक हैं, जर्मन पितृ-पुरुषों के वंशज अमेरिका के ‘रंगीले रतन’ राष्ट्रपति डोनाल्ड जॉन फ्रेडरिक क्राइस्ट ट्रंप, और दूसरे हैं, गुजरात के मेहसाणा ज़िले से रायसीना पहाड़ी पहुंचे नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी। ट्रंप को अमेरिका के पिछले चुनाव में रूस के दखल का दर्द तो साल ही रहा था और अब अगले चुनाव में चीन की चिनगारी भी उन्हें अभी से चिकौटी काटने लगी है। हमारे प्रधानमंत्री और चार क़दम आगे हैं। वे राहुग्रस्त-मुद्रा में ऐलान कर रहे हैं कि भारत की विपक्षी ताक़तें उन्हें हटाने के लिए रूस, चीन, पाकिस्तान--सब से आंखें चार कर रही हैं।
अगर यह सच है तो मैं ऐसे विपक्षी-महागठबंधन को सियासी-सूली पर लटका देने का हिमायती हूं, जो भारत के प्रधानमंत्री को गद्दी से उतारने के लिए विदेशी शक्तियों का मोहरा बनने को तैयार हो जाए। और, ऐसे विपक्षी धड़े, जो अपनी मज़बूती के लिए परदेसी गांठ में बंधने को बेताब घूम रहे हों, उन्हें तो कोई एक क्षण भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। ट्रंप को आ रहे बुरे सपनों का हिसाब-क़िताब अमेरिकी करें। लेकिन नरेंद्र भाई जिन भयावह ख़्वाबों को देख कर इन दिनों पसीना पोंछते हुए बीच-बीच में उठ जाते हैं, उनकी चिंता तो हमें ही करनी है। इसलिए मैं भी आजकल नींद से कई बार यह सोच-सोच कर जाग जाता हूं कि क्या सचमुच ऐसा हो सकता है कि हमारे विपक्षी नेता सत्ता पाने के लिए इतने लार-टपकाऊ हो गए हैं कि ‘हिंदू हृदय सम्राट’ को तख़्त से उतारने के लिए चीन-पाकिस्तान तक से नैन-मटक्के पर उतर जाएं?
बावजूद इसके कि पिछले साढ़े चार साल से देश में हुए तमाम चुनावों के बारे में ईवीएम से लेकर धन-पशुओं तक के व्यवहार पर और सामाजिक संगठनों से लेकर मीडिया के एक बड़े हिस्से की भूमिका तक पर तरह-तरह के गहरे छींटे दीवारों पर दिखाई देते रहे हैं,  मुझे नरेंद्र भाई की राष्ट्र-भक्ति पर कोई संदेह नहीं है। मुझे भारतीय जनता पार्टी की भारतीयता पर भी कोई संदेह नहीं है। ऐसे में मैं राहुल गांधी की राष्ट्र-भक्ति पर और कांग्रेस की भारतीयता पर कैसे शक़ करूं? शरद पवार, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, मायावती, लालू प्रसाद, चंद्राबाबू नायडू, फ़ारूख अब्दुल्ला, सीताराम येचुरी, उद्धव ठाकरे--सबको एकाएक कैसे परदेसियों की गोद में जाने को आतुर मान लूं? ये सब इतने बच्चे तो नहीं हैं कि कोई चांद-खिलौना लेने के लिए ऐसे मचल उठेंगे कि किसी की भी गोद में जा कर बैठ जाएं! जब बरसों विपक्ष में रहने के दौरान जनसंघ-भाजपा के शिखर-पुरुष नहीं बहके, तो इक्कीसवीं सदी के बेहद पारदर्शी संसार में, आज के विपक्षी, परदेसियों की कमर में हाथ डाले नाचने को, अपनी कमर कसे बैठे होंगे, ऐसा आप मान लेंगे?
किसी भी प्रधानमंत्री के पास सूचनाओं का ढेर होता है। नरेंद्र भाई के पहले जितने प्रधानमंत्री हुए, वे भी कोई ढब्बू तो थे नहीं। उनके पास भी सूचनाएं खुद चल कर आती रही होंगी। उन्होंने भी अपने तंत्र के ज़रिए सूचनाएं हासिल करने में कोई कसर नहीं रखी होगी। इसमें कौन-सा रहस्य है कि विदेशी शक्तियां अपने-अपने मतलब के मुल्क़ों की सियासत, समाज, संस्कृति और बाज़ार को प्रभावित करने की हर-संभव कोशिशें करती हैं। लेकिन क्या किसी भी देश के लिए, किसी दूसरे देश के सियासी-रहनुमाओं को, गप्प से लील लेना इतना आसान होता होगा, जैसा हमें समझाने की कोशिश आज हो रही है?
जयप्रकाश नारायण 45 साल पहले हुए उस आंदोलन के महानायक थे, जो इंदिरा गांधी को हटाने के लिए शुरू हुआ था। जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस अंदोलन का मेरुदंड थे। तब मैं स्कूल-कॉलेज में पढ़ा करता था। आज भी मेरा मन उन दिनों ज़ोर-शोर से कही जाने वाली इन बातों को मानने को नहीं करता कि भारत से समाजवादी संस्कारों वाली सत्ता की विदाई के लिए अमेरिका ने सीआईए को मुक्त-हस्त दे दिया था और जयप्रकाश उस हाथ के इशारे पर नाच रहे थे; कि जयप्रकाश तो बीस के दशक से ही जवाहरलाल नेहरू से ख़फ़ा रहने लगे थे; कि जयप्रकाश उस ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ के भारतीय चेप्टर के अध्यक्ष रहे थे, जिसके बारे में माना जाता था कि उस पर सीआईए की छाया है; कि जयप्रकाश भले ही आठ साल अमेरिका में पढ़ाई करने के बाद मार्क्सवादी बन कर भारत लौटे थे, मगर इस बीच सीआईए ने उनके विचारों में वे बीज भी बो दिए थे, जो साढ़े चार दशक बाद जब उगे तो अमेरिकी सियासत के काम आए।
हमारे स्वाधीनता संग्राम के चुनींदा सेनानियों में से एक, महात्मा गांधी के नज़दीकियों में से एक और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दिनों में भारत रत्न से अलंकृत किए गए जयप्रकाश नारायण के बारे में कही गई इन बातों में से कितनी आपके गले उतरती हैं? प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की अमेरिका-परस्ती के बारे में, पता नहीं क्या-क्या, कहा गया। 1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी की हार के महज पांच महीने बाद अगस्त में जब इज़राइल के विदेश मंत्री मोशे दायां गुपचुप भारत आए तो मोरारजी भाई प्रधानमंत्री थे। इज़राइल को अमेरिकी सीआईए का दत्तक पुत्र-देश कहा जाता था और भारत के तो उससे राजनयिक संबंध तक नहीं थे। लेकिन क्या इतने भर से हम रोम-रोम में गांधीवाद गूंथ कर जीवन बिताने वाले मोरारजी देसाई की राष्ट्र-भक्ति पर संदेह करने लगें?
इसलिए, जो आप कहते हैं नरेंद्र भाई, वही मैं कहता हूं कि चुनाव तो आते-जाते हैं। जीत-हार भी होती रहती है। लेकिन इस होड़ में दौड़ते-दौड़ते किसी को भी इतनी रपटीली राह पर जाने से बचना चाहिए कि वह हमें प्रलय के छोर पर पहुंचा दे। भारत का प्रधानमंत्री भारत के जनतंत्र का पहरुआ है। उसे और कुछ भी अधिकार हों, जनतंत्र से खेलने का अधिकार नहीं है। चुनाव जनतंत्र का पहिया हैं। जनतंत्र की मज़बूती के लिए साधना करनी होती है। यह साधना अब तक के हर प्रधानमंत्री ने की है, हर राजनीतिक दल ने की है और उनमें काम करने वाले हर बड़े-छोटे ने की है। किसी भी तरह के विदेशी आक्रमण से देश को बचाने की ज़िम्मेदारी किसी एक की नहीं, सब की है। अगर कोई कहता है कि वह तो रक्षक है और बाक़ी सब परदेसी दुश्मनों के संगी-साथी तो इससे बड़ी गाली कोई किसी को क्या दे सकता है? ऐसी गालियों से जनतंत्र की गलियां मैली होंगी। उस मैले से लिथड़े सिंहासन पर बैठ कर भी कोई क्या लेगा? इसलिए जितनी जल्दी हम इससे बाज़ आएं, अच्छा। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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