Pankaj Sharma
13 July, 2019
कांग्रेस के 134 बरस के इतिहास में कोई छह दर्जन दिग्गज उसके अध्यक्ष रहे। कई, कई-कई बार रहे। मसलन, व्योमेश चंद्र बनर्जी, दादा भाई नौरोजी, सुरेंद्र नाथ बनर्जी, मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, यू. एन. ढेबर, एऩ संजीव रेड्डी, के़ कामराज, इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी। मगर राहुल गांधी ने अध्यक्ष के नाते अपना पहला कार्यकाल भी पूरी तरह पूरा नहीं किया और अपनों से तंग आ कर हट गए।
कांग्रेसी तवारीख़ की जितनी भी जानकारी मुझे है, उस हिसाब से मैं कह सकता हूं कि अपना अध्यक्ष तलाशते वक़्त कांग्रेस इतनी निराश, हताश और बदहवास सवा सौ साल में पहले कभी नहीं रही। अपने इस्तीफ़े की बेहद संजीदा पेशकश राहुल ने 49 दिन पहले की थी। चार पन्नों का उनका त्याग-पत्र पिछले दस दिनों से खुलेआम दीवार पर चिपका हुआ है। और, कांग्रेस में किसी को समझ ही नहीं आ रहा है कि करें तो क्या करें?
एक अर्थवान कांग्रेसी समूह ऐसे अंतःकालीन चेहरे की तलाश में लगा है, जिसे संगठन के पहले पायदन से ले कर शिखर तक का भरोसा हासिल हो जाए। लेकिन कांग्रेस संविधान की चीरफाड़ के विशेषज्ञ यह कोशिश करने वालों के अधिकार पर सवाल उठा रहे हैं। वे पूछ रहे हैं कि अंतरिम अध्यक्ष की खोज कर रहे लोग ऐसा करने वाले होते कौन हैं? उन्हें यह हक़ दिया किसने है?
पार्टी-संविधान की धारा 18-एच कहती है कि आपात कारणों से अध्यक्ष का पद रिक्त हो जाने पर कार्यसमिति तब तक के लिए अंतरिम अध्यक्ष की नियुक्ति कर सकती है, जब तक कि नए अध्यक्ष का चुनाव न हो जाए। अब जब राहुल मानने को तैयार ही नहीं हैं तो इसके अलावा चारा भी क्या है कि कार्यसमिति अपना यह दायित्व निभाए। मगर यह काम तो उसकी बाक़ायदा बैठक बुला कर ही हो सकता है। बैठक तो तभी हो सकती है, जब पहले-से कुछ तय हो जाए। सो, कुछ वरिष्ठ नेता अनौपचारिक तौर पर सर्वसम्मत चेहरा खोज रहे हैं। लगाने वालों को उनकी वरिष्ठता पर प्रश्नचिह्न लगाने की आज़ादी है। लेकिन सवाल उठाने वालों से कोई पूछे कि मोटे तौर पर कुछ तय किए बिना क्या कार्यसमिति की बैठक को तू-तू-मैं-मैं के हवाले कर देना बुद्धिमानी होगी?
पर, अपने पांडित्य-प्रदर्शन की हवस का सामान्य सियासी विवेक से क्या लेना-देना? भूले-बिसरों के लिए यह मौक़ा अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने का है। ‘हम भी तो हैं’ की लठिया ले कर इस समय कांग्रेस के भीतर ऐसे-ऐसे घूम रहे हैं कि कोई क्या कहे? अंतरिम अध्यक्ष की दौड़ में ख़ुद को प्रायोजित करने वालों की शक़्ल-अक़्ल देख कर हंसते-हंसते देश के पेट में बल पड़ गए हैं। हर रोज़ सूर्योदय के साथ अजब-गज़ब नामों का उदय होता है और सूर्यास्त के साथ अस्त। सात हफ़्तों में, कुछ क़ायदे के नामों के अलावा, सत्रहों ऐसे नाम भी कांग्रेस-अध्यक्ष पद के लिए सामने आ चुके हैं, जिन्होंने कांग्रेस को गांवों की चौपालों तक हंसी-ठट्ठे का विषय बना दिया है। इसलिए अब जो होना है, जितनी जल्दी हो जाए, अच्छा है। हंसते-हंसते मरने से बेहतर है, ज़मीनी कांग्रेसी रोते-रोते मर जाएं। विलाप की संजीदगी, हा-हा-ही-ही के मनोरंजन से, फिर भी ज़्यादा अर्थपूर्ण होती है।
कांग्रेस के बहुत-से अध्यक्षों ने हर तरह की चुनौतियों का सामना किया। उन सभी ने अपनी-अपनी शैली में उन चुनौतियों का निपटारा किया। राहुल गांधी को बाहर-भीतर से मिली ललकार मामूली नहीं थी। बाहरी भालों से लड़ते उनकी भुजाएं नहीं थकीं, मगर भीतरी बर्छियों से उनका मन हार गया। वे यह समझने में चूक गए कि सियासत संवेदनाओं का कम, सयानेपन का ज़्यादा खेल है। महात्मा गांधी जब देखते थे कि उनकी सही बात नहीं सुनी जा रही है तो वे ख़ुद की काया को कष्ट देने के लिए अनशन शुरू कर देते थे और उस ज़माने की पूरी कांग्रेस फल-रस के गिलास हाथ में लिए कतार में खड़ी हो जाती थी। राहुल भूल गए कि यह कांग्रेस, वह कांग्रेस नहीं है।
एक बात और। ऐसा नहीं है कि, मन मार कर ही सही, कांग्रेसियों ने राहुल को उनकी कल्पनाओं की कांग्रेस बनाने का मौक़ा नहीं दिया। युवा कांग्रेस और छात्र इकाई में आंतरिक लोकतंत्र के उनके प्रयोगों को कोई नहीं रोक पाया। संगठन में युवा चेहरों को बेहद अहम ज़िम्मेदारियां देने के उनके क़दमों को भी कोई नहीं थाम पाया। कांग्रेसी बिलबिलाते रहे, मगर बोला कोई नहीं। जो औपचारिक-अनौपचारिक मंचों पर कुनमुनाए, किनारे भी हुए। राहुल के इन प्रयोगों का नतीजा क्या निकला? उनकी छुअन के बावजूद युव-जन कद्दावर क्यों नहीं बन पाए? वे बिजूके ही क्यों बने रह गए?
ऐसा दो कारणों से हुआ। एक, खुर्रांट कांग्रेसियों की आनुवंशिकी ही ऐसी है कि नेहरू-गांधी परिवार से किसी के सीधे जुड़ते ही वे उसकी भू्रण-हत्या के औज़ार पैने करने लगते हैं और अंततः गर्भपात करा ही देते हैं। राहुल के पसंदीदा इस खाप-पंचायत से कैसे बचते? दो, अपनी कार्यस्थली के कर्मवीर चुनते वक़्त, अपने पिता राजीव गांधी की ही तरह राहुल भी, अरुण नेहरुओं और वीपी सिहों से घिर गए। सदाशयता के चलते हुई यह भूल राजीव की तरह ही उन पर भी भारी पड़ी। उनके आसपास कर्मवीरों की जगह कर्मकांडियों का घेरा बन गया। जब तक समझ में आया, राहुल को भी अपने पिता की तरह देर हो चुकी थी।
मैंने चूंकि राजीव गांधी का ज़माना पत्रकार के नाते नज़दीक से देखा है, इसलिए जानता हूं कि अगर श्रीपेरुम्बुदूर की त्रासदी ने भारतीय राजनीति से राजीव को विदा न किया होता तो कांग्रेस तो कांग्रेस, आज भारत की सूरत ही कुछ और होती। भारत के सियासी-पटल पर राजीव की अनुपस्थिति से उपजे शून्य ने कांग्रेस की इमारत कमज़ोर कर दी। आज राहुल की स्व-समाधि से इस इमारत की अंतिम ईंटें भी दरकने का ख़तरा पैदा हो गया है। राहुल साबित कर रहे हैं कि चक्रव्यूह में घुसने का पराक्रम तो उनमें गज़ब का था, मगर उसे भेद कर बाहर आने की दिमाग़ी तैयारी ज़रा कम थी। अब भी देर नहीं हुई है। पिछले सवा साल की हाड़-तोड़ मेहनत ने राहुल की सारी भूलों को पोंछ डाला है। वे अध्यक्ष रहें, न रहें, चक्रव्यूह के परखच्चे वे अब भी बिखेर सकते हैं। लेकिन इतने मायूस-मन से यह नहीं होगा। कांग्रेस के दीए में भभक उठने को बेताब तेल की बाती अब भी है, राहुल को सिर्फ़ एक चिनगारी भर कहीं से ढूंढ कर लानी है।
इसलिए मैं राहुल से कहता हूं कि उन्होंने अपनी जवाबदेही तय कर बहुत-ही अच्छा किया, मगर वे कांग्रेस को इस हंसी-घर से बाहर निकालने की अपनी जवाबदेही निभाने का भी पुण्य करें। दरकती दीवारों पर टकटकी लगाए लाखों कांग्रेस-जन इस उम्मीद में आंसू बहा रहे हैं कि कोई तो दिन आएगा, जब उनके आंसू सम्मानित होंगे। एक सार्थक विलाप की वर्षगांठ मैं भी जीवन भर मनाने को तैयार हूं। लेकिन लतीफ़ेबाज़ी की सालगिरह मुझसे तो एक दिन भी नहीं मनाई जाएगी। चीरहरण के समय मौन रहने वालों को इतिहास क्षमा नहीं करता। शक्ति होने के बावजूद अन्याय को न रोकना भी एक तरह का पाप माना गया है। जीवन में कुछ भी निरस्त नहीं होता है। इसलिए राहुल अगर आज भी तटस्थ बने रहेंगे तो बबूल का जंगल बढ़ेगा और तब कांग्रेस की शाखों पर कोई आम थोड़े ही लदेंगे! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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