कर्नाटक की शंख-ध्वनि से 2019 की गूंज न आ रही होती तो हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी वहां 17 रैलियां करने की ज़हमत नहीं उठाते, भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित भाई अनिल चंद्र शाह टेलीविजन के परदों और अख़बारों के पन्नों को अपने इंटरव्यू से पाटने में दिन-रात एक नहीं करते, सोनिया गांधी चुनावी सभाओं से दूरी का दो साल पहले लिया गया अपना व्रत न तोड़तीं और कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी खेत की गुड़ाई में अपना सर्वस्व न लगा देते। यह सब कर्नाटक के लिए नहीं हुआ। यह 2019 के लिए हुआ। कर्नाटक के अंकगणित में अगले लोकसभा चुनाव का बीजगणित छिपा है। इसलिए वहां के विधानसभा चुनाव के अंतिम दौर में नरेंद्र भाई और अमित भाई की देह-भाषा अजीबोगरीब होती हमने देखी। उनकी ज़ुबानें आग उगल रही थीं, मगर चेहरों पर चिंता और तनाव था। उनके हाथ हमलावरी-मुद्रा में उठरहे थे, मगर माथे पर सलवटें थीं। उनका आत्मविश्वास आसमान छूता लगता था, मगर वे अपने दांत पीस रहे थे।
शरीर-मुद्रा शास्त्र के सिद्धांत अगर सही हैं तो कर्नाटक में भाजपा 60 सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर रही है। कांग्रेस स्पष्ट बहुमत की सरहद आसानी से पार कर रही है। जेडीएस पिछली बार से नीचे लुढ़क रही है। अन्य छुटपुट उम्मीदवारों की जीत के आसार थोड़े बढ़ गए हैं। अधर में लटकी विधानसभा की आस लगाए बैठी भाजपा और जेडीएस का छींका, लगता है कि, लटका ही रहेगा, टूटेगा नहीं। पांच साल पहले कांग्रेस को 122 सीटें मिली थीं, भाजपा और जेडीएस को चालीस-चालीस और 23 अन्य उम्मीदवार जीत कर आए थे। सच है कि 2018 और 2013 में फ़र्क़ है। लेकिन यह फ़र्क़ ऐसा नहीं है कि भाजपा दनदनाती हुई बंगलूर को अपनी बगल में दबा ले।
नरेंद्र भाई का जज़्बा मानना पड़ेगा। कर्नाटक में उन्होंने अपने को इतना दांव पर लगा दिया कि चुनाव राज्य का रहा ही नहीं। चुनाव कांग्रेस-भाजपा के बीच भी नहीं रहा। वह नरेंद्र मोदी-राहुल गांधी के बीच का हो गया। नरेंद्र भाई ने बहुत बड़ा जोखिम लिया है। तमाम उठापटक, हथकंडों और जोड़-तोड़ के बावजूद अगर कर्नाटक से कांग्रेस को वे विदा न कर पाए तो 2019 में केंद्र से उनकी खुद विदाई के बादल और गहरे हो जाएंगे। नवंबर-दिसंबर में मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के चुनाव जब होंगे तो देश के हृदय-प्रदेशों में भी भाजपा को अपनी सरकारें बचाना भारी पड़ जाएगा। भारी क्या पड़ जाएगा, उसका बोरिया-बिस्तर छह महीने पहले अभी ही सिमट जाएगा। सर्दियों में तो विदाई समारोह की सिर्फ़ औपचारिकता पूरी होगी।
मध्यप्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 230 में से 165 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को सिर्फ़ 58। भाजपा को क़रीब 45 प्रतिशत वोट मिले थे और कांग्रेस को 36 प्रतिशत से कुछ ज्यादा। लेकिन पिछले पांच साल में मध्यप्रदेश की ज़मीन भाजपा के लिए लगातार बंजर हुई है और कांग्रेस के लिए उर्वर। इस बीच हुए स्थानीय निकायों और लोकसभा-विधानसभा के उपचुनाव नतीजे बता रहे हैं कि इस साल के आख़ीर में होने वाले चुनाव भाजपा की सीटें 90 के पार नहीं जाने देंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भीतरी आकलन तो इस आंकड़े को 75 के आसपास मान रहा है।
राजस्थान में तो भाजपा की हालत और भी खराब है। पिछले चुनाव में वहां भाजपा को 200 में से 163 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को महज 21। भाजपा का वोट प्रतिशत 45 था और कांग्रेस का 33। पांच साल में राजस्थान की रेत भी इतनी गर्म हो गई है कि भाजपा के तलुवे उस पर टिक नहीं पा रहे हैं। राजस्थान में भी स्थानीय इकाइयों और बाकी उपचुनावों के नतीजों से यह साफ हो गया है कि वहां भाजपा के लौटने के कोई आसार नहीं हैं। कोई भी लठैती इस बार राजस्थान में भाजपा को सिरमौर नहीं बना सकती। 50 का आंकड़ा पर करने के लिए भी उसे मालूम नहीं कैसे-कैसे पापड़ बेलने पड़ेंगे।
छत्तीसगढ़ में भले ही अजीत जोगी कांग्रेस से अलग हो कर इधर-उधर का खेल जमाने में लगे हों, मगर भाजपा की हालत इस बार विधानसभा में 25 सीटों तक पहुंचने लायक भी नहीं है। पांच साल पहले भी उसकी सीटें कांग्रेस से महज 10 ही ज़्यादा थीं और दोनों के बीच वोट प्रतिशत में तो एक प्रतिशत से भी कम का फ़र्क़ था। भाजपा को 90 में से 49 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 39। भाजपा की बिछाई तमाम सुरंगें इन सर्दियों में वहां नाकारा साबित होने वाली हैं।
मिजोरम का ज़िक्र करूं तो ठीक, न करूं तो भी ठीक। इसलिए कर्नाटक से शुरू हो कर छत्तीसगढ़ तक पसरे राजनीतिक कैनवस पर मुझे तो इस साल का अंत आते-आते भाजपा पूरी तरह हाशिए पर जाती दिखाई दे रही है। 2019 की गर्मियों के आरंभ में जब हम लोकसभा के चुनाव की कतार में अपना वोट डालने खडंे होंगे तो आप पाएंगे कि आसपास खडंे लोगों में ज़्यादातर वे हैं, जिन्होंने 2014 में नरेंद्र भाई को हुलस कर अपना वोट दिया था और अब झुलस कर उनके खिलाफ़ वोट देने आए हैं। भाजपा को पिछली बार मिले 31 प्रतिशत वोट में कम-से-कम दस प्रतिशत की गिरावट आने वाली है।
दीवार पर लिखी यह इबारत संघ-कुनबे ने पढ़ ली है। नरेंद्र भाई और अमित भाई अभी यह सच स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। लेकिन बाकी भाजपा को इसका अहसास हो गया है। अधिकारिक तौर वह भले ही इस इबारत की अनदेखी कर रही हो, मगर भीतर-ही-भीतर चिंता की लपटें बढ़ती जा रही हैं। विपक्ष की एकजुटता पर सब की निगाहें हैं। सबसे ज़्यादा नरेंद्र भाई की। इसीलिए कर्नाटक के चुनाव में उन्होंने राहुल गांधी को पानी पी-पी कर गांव का दबंग बताया। लेकिन सबसे आगे अपनी बाल्टी रख देने का ज़ुमला बूमरेंग कर गया। लोगों को वे दिन याद आ गए, जब नरेंद्र भाई अपने तमाम राजनीतिक गुरुजन को लात मार कर परे ठेल रहे थे और प्रधानमंत्री बनने की ललक में पूरी भाजपा को लील गए थे। छाती फुला कर जिस तरह उन्होंने अपनी बाल्टी सबसे आगे रख दी थी, वह किसने नहीं देखा था?
कहने वालों को कहने का हक़ है कि इसमें कांग्रेस का क्या? इसमें राहुल गांधी का क्या? यह सब तो अपने आप हो रहा है। यह तो भाजपा की ग़लतियों से दूसरों को मिलने वाला स्वचलित-लाभ है। मैं नहीं मानता कि ऐसा है। चार साल में कांग्रेस ने परत-दर-परत अपने को खड़ा कर लिया है। चार साल में राहुल ने अपने को एक-एक सीढ़ी आगे बढ़ाया है। चार साल में कांग्रेस ने खोया विश्वास फिर अर्जित किया है। चार साल में राहुल ने अपने बारे में देश की धारणा पूरी तरह बदल डाली है। 2014 के चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेसी होना गाली बन गया था। कांग्रेस के बहुत-से सिपाहसालार सुबक रहे थे। अगर चार साल के भीतर-भीतर आज कांग्रेस के कार्यकर्ता फिर ताल ठोक कर घूम रहे हैं, और सो भी मोदी और अमित शाह के सामने, तो यह इसलिए हुआ है कि सोनिया गांधी और राहुल ने इस बीच संघ और भाजपा को ललकारने में एक दिन भी हिचक नहीं दिखाई। अगर विपक्षी घर की दरारों ने नरेंद्र भाई के बारूद को जगह नहीं दी तो तय मानिए कि एक साल बाद लोकसभा में भाजपा पौने दो सौ की गिनती पार नहीं कर पाएगी।
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