Wednesday, May 9, 2018

लंतरानी पर लोकाचार की जीत और ताताथैया



पंकज शर्मा

    अब से चार साल पहले कांग्रेस की फांस समझे जा रहे राहुल गांधी आज देश की आस बन गए हैं और चार साल पहले मुल्क़ की सांस समझे जा रहे नरेंद्र मोदी अब, देश तो छोड़िए, भारतीय जनता पार्टी की भी फांस बन गए हैं। ऐसी उलटबांसी भारत की राजनीति ने पहले कभी नहीं देखी। जिन्हें लगता है कि मोदी 2019 का चुनाव इसलिए जीत जाएंगे कि उनका कोई विकल्प नहीं हैं, वे अगर अपनी आंखें ठीक से मसल कर देखें तो पाएंगे कि 2014 में 44 लोकसभा सीटों के छाती-पीट आंकड़े पर पहुंच गई कांग्रेस के बावजूद, चार बरस के भीतर-भीतर, राहुल किस तरह मोदी का विकल्प बन कर उभर गए हैं और तीन दशक बाद स्पष्ट बहुमत ले कर लोकसभा में पहुंचा एक प्रधानमंत्री आज किस तरह हांफ रहा है।
    नरेंद्र मोदी के वादों के लहरिएदार पल्लू को देख-देख ठुमक रहे लोगों का मानना है कि राहुल गांधी की मोदी से कोई तुलना नहीं है। मैं भी यह बात मानता हूं कि राहुल की मोदी से कोई तुलना नहीं है। राहुल गांधी 14 साल पहले जब राजनीति में आए तब तक नरेंद्र मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बने 3 साल हो चुके थे। राहुल का जब जन्म हुआ, तब तक तो मोदी उस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में काम शुरू कर चुके थे, जो अपने अनुगामियों की रग-रग को एक अलग राजनीतिक दर्शन से प्रशिक्षित करने का महारथी है। राहुल के राजनीति में पहला क़दम रखते समय मोदी को संघ का पूर्ण स्वयंसेवक बने 33 बरस बीत चुके थे और संघ का खांटी प्रचारक बने उन्हें 26 साल हो गए थे। लालकृष्ण आडवाणी के भाजपा अध्यक्ष बनने के चंद महीने बाद मोदी संघ से भाजपा में आ गए और गुजरात के संगठन मंत्री हो गए। राहुल के राजनीति में प्रवेश के समय मोदी के भाजपा-प्रवेश को 17 वर्ष हो गए थे और राहुल की तो तब कुल उम्र ही 17 वर्ष की थी।
    सो, राहुल जब सियासत का ककहरा सीख रहे थे, तब तक मोदी तो आडवाणी की रथ यात्रा करा चुके थे, गुजरात के दंगों से फ़ारिग हो चुके थे और भाजपा की प्रादेशिक राजनीति में अपने कई शिल्पियों को ठिकाने लगा चुके थे। उठापटक, फ़रेब और गच्चेबाज़ी की यह सिफ़त तो राहुल में आज तक नहीं आई है। ऐसे में नरेंद्र मोदी से राहुल गांधी का सचमुच कैसे कोई मुक़ाबला हो सकता था? मगर फिर भी अगर राहुल के पंद्रह मिनट आज मोदी को ताताथैया करा रहे हैं तो क्या आप इसे तिकड़मों पर तन्मयता और लंतरानी पर लोकाचार की जीत नहीं मानेंगे? भारतीय राजनीति का इससे सुखद दौर क्या हो सकता है कि नरेंद्र मोदी के लटकों-झटकों को देख कर मजनूं के टीले पर जा बैठे लोग चार साल बीतते-बीतते राहुल गांधी की अ-राजनीतिक शैली के पथ-गामी हो गए!
    मैं इसे भारत की बेहद परिपक्व बुनियादी लोक-चेतना का नतीजा मानता हूं। भारतवासी भावनामयी हैं। वे भावुक हैं। वे सजह-विश्वासी हैं। वे जब बहते हैं तो किसी के भी पीछे चल पड़ते हैं। लेकिन बावजूद इस सब के हमारी लोक-चेतना में समझदारी के ऐसे बीज हैं कि ज़रा-सा खटका होते ही हमारी आंख फड़कने लगती है। पांच इंद्रियां कुछ भी कहें, भारतवासियों की छटी इंद्री सही वक़्त पर सक्रिय होने में एक क्षण की भी देर नहीं लगाती है। सियासत के स्थूल संसार की सैर कर रहे सियासतदानों को भले ही इसका अहसास न हो रहा हो, मगर जो देख सकते हैं, वे देख रहे हैं कि मुल्क़ का अंदाज़ पिछले छह महीनों में बदल गया है। देश अब राजनीतिक लीपापोती से परे चला गया है। इसलिए मैं मानता हूं कि मोदी-मंडली राहुल को उनसे तुलना लायक़ माने-न-माने, भारतवासी अब मोदी की राहुल से तुलना करने लगे हैं।
    ऐसा न होता तो खुद का गुजरात मोदी पर इतना भारी न पड़ता। ऐसा न होता तो कर्नाटक में मोदी को इतने पापड़ बेलने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ऐसा न होता तो मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ का मौसम इस साल की सर्दियां आने के पहले ही मोदी के लिए बर्फ़ीला न हो रहा होता। इसलिए 2019 में अब कोई जुगत काम आती नहीं दीखती--न राम मंदिर का निर्माण, न सरहदी तनाव, न किसी नए ख़्वाब की ताबीर। समय की रेत मोदी की मुट्ठी से बहुत तेज़ी से फिसल रही है। इस रेत पर नए क़दमों के निशान बनने लगे हैं।
    मुझे लगता है कि कांग्रेस इतना कु़दरती क़िस्म का संगठन रहा कि कभी किसी ने यह सोचा ही नहीं कि कभी ऐसा समय भी आएगा कि बंजर हो रही ज़मीन को सींचने की ज़रूरत पड़ेगी। सो, न तो कांग्रेसी राजनीति की नदी पर कभी कोई बांध बने और न उनसे कोई नहरें निकलीं। संघ-कुनबे की तरह काग़ज़ पर नक्शा बना कर समाज, समुदायों और जातियों की सड़क-पुल बनाने-बिगाड़ने का सिलसिलेवार काम करने की बात कांग्रेस के दिमाग़ में कभी आई ही नहीं। जो हुआ, बस, होता गया। एक नदी के पास उसका वेग था, वह बहती रही, अपनी राह बनाती रही और लोग उसके किनारे आ-आ कर बसते रहे। राहुल ने भी यही देखा-सुना-गुना था। लेकिन इतना वे समझ गए थे कि सियासी यांत्रिकता के इस युग में प्राकृतिक बहाव के भरोसे कांग्रेसी-नदी की रक्षा करना मुमक़िन नहीं होगा।
    इसलिए राहुल ने कांग्रेस-संगठन को मज़बूत बनाने के इरादे से प्रयोग शुरू किए। एक जोखि़म उठाया। उनके मार्गदर्शन के लिए लिखा-लिखाया पाठ्यक्रम नहीं था। कोई प्रशिक्षण अकादमी नहीं थी। सिर्फ़ कांग्रेसी इतिहास के बुनियादी उसूलों की विरासत थी; खुद के ही नहीं, पूरी कांग्रेस के पूर्वजों की उतार-चढ़ाव भरी ज़िदगियों का सुना-पढ़ा अनुभव था; और, खुद की नेकनीयती, जज़्बा और प्रयोगधर्मिता थी। राहुल को गिरते-उठते खुद चलना सीखना था। ऐसे में उनके नसीब में सफलता-असफलता की मिश्रित झोली होना स्वाभाविक था। 
    जो सोचते हैं कि राहुल तो मुंह में चांदी का चम्मच ले कर जन्मे और वे खुद चाय की केतली ले कर घूमे, उन्हें बताना ज़रूरी है कि राहुल की जद्दोज़हद किसी भी और के संघर्ष से गहन है। एक तरफ़ वे नरेंद्र मोदी हैं, जिन्होंने 31 साल पहले भाजपा में घुसपैठ करने के बाद से हर दिन अपना क़दम आसमान की तरफ़ बढ़ाया और ”हटो-बचो” चिल्लाते हुए ”भारत भाग्य-विधाता” बन बैठे। दूसरी तरफ़ वे राहुल गांधी हैं, जिनके राजनीति-प्रवेश के बाद 14 बरस का एक-एक दिन वनवासी मशक़्कत में गुज़रा। इस पर भी अगर आज राहुल ने मोदी के इंद्रासन को डोलने पर मजबूर कर दिया है तो ऐसे राहुल गांधी की नरेंद्र मोदी से क्या कहीं कोई तुलना है? मुझे तो लगता है कि रात के एकांत में आजकल जब मोदी भी राहुल से अपनी तुलना करते होंगे तो अपने पांव देख कर रुआंसे हो जाते होंगे।

    No comments: