51 साल पहले, 1967 में एक फ़िल्म आई थी--एन ईवनिंग इन पेरिस--पेरिस में एक शाम। उसमें एक गीत था। मुहम्मद रफ़ी ने गाया था। शंकर-जयकिशन ने उसका संगीत दिया था। शम्मी कपूर पर वह फ़िल्माया गया था। गीत बहुत मशहूर हुआ। आपने भी ज़रूर सुना होगा। बोल थेः ’अकेले-अकेले कहां जा रहे हो, हमें साथ ले लो जहां जा रहे हो...’। आज पूरा भारत यह गीत गा रहा है। चार साल से हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी अकेले-अकेले देश को पता नहीं कहां ले जा रहे हैं? पूरा देश गुहार लगा रहा है कि हमें भी साथ ले लो, मगर वे सुनने को तैयार नहीं हैं और बस चले जा रहे हैं। ईश्वर करे, उन्हें यह पता हो कि, अकेले ही सही, वे जा कहां रहे हैं? मुझे लगता है कि अच्छा ही है कि वे देश की अनसुनी कर रहे हैं। अगर कहीं वे सुन लें, और देश को साथ ले जाने पर आमादा हो जाएं, तो भगवान भली करे, वे हमें पता नहीं कहां ले जा कर छोड़ेंगे!
नरेंद्र भाई को क्या? वे तो हमें तक़रीबन डेढ़ बरस पहले मुरादाबाद से ही आगाह कर चुके हैं कि कोई उनका क्या बिगाड़ लेगा, वे तो फ़कीर हैं और झोला उठा कर चल देंगे। जब मेरे प्रधानमंत्री ने यह चेतावनी दी थी तो मुझे वह कहानी याद आ गई, जिसमें एक ऐसे राज्य का किस्सा था, जिसका राजा स्वर्ग सिधार गया और उसका कोई वारिस नहीं था तो परंपरानुसार यह तय किया गया कि अगली सुबह सूरज की पहली किरण पड़ते ही जो पहला व्यक्ति राज्य के प्रवेश द्वार से भीतर आता दिखेगा, उसका राजतिलक कर दिया जाएगा। वह व्यक्ति एक साधु था। वह बहुत रोया-गिड़गिड़ाया, नहीं माना, मगर परंपरा तो परंपरा ठहरी। सो, दरबारियों ने जबरदस्ती उसका राजतिलक कर दिया।
फ़कीर राजगद्दी पर बैठ गया। उसने अपना कमंडल अपने शयनकक्ष के एक आले में सुरक्षित रखने को दे दिया। राजकाज जैसे-तैसे चलता चलता रहा। कहानी में यह ज़िक्र नहीं था कि राज चार साल चला, पांच साल या बीस साल। लेकिन यह ज़रूर बताया गया था कि एक वक़्त आया, जब दुश्मनों ने उस राज्य पर हमला कर दिया। हमले की ख़बर मिलते ही राजा को ख़बर की गई। राजा ने आशीर्वाद-मुद्रा में हाथ उठाया और सोने चला गया। सुबह तक शत्रु-सेना किले के मुख्य-द्वार तक पहुंच गई। दरबारी फिर राजा के पास पहुंचे कि अपनी सेना को मुक़ाबले का हुक़्म दें। राजा ने आशीर्वाद-मुद्रा में हाथ उठाया और बगीचे में टहलने चला गया। दरबारियों को मालूम था कि राजा, राजा ही नहीं, साधु भी है, फ़कीर भी है। वे जानते थे कि फ़कीरों के पास चमत्कारी शक्तियां होती हैं। वे राजा की आत्मविश्वासी-मुद्रा से आश्वस्त थे। उन्हें भरोसा था कि ऐन वक़्त पर फ़कीर कोई जादू दिखाएगा और सारी चुनौतियां ढह जाएंगी। सो, वे भी मलमल कर खैनी खाते रहे।
दोपहर को जब दुश्मन महल के दरवाज़े तक आ गया तो हड़बड़ाहट मची। राजा को सूचना दी गई कि अब तो पानी नाक से ऊपर निकल गया है। सेना को प्रतिकार का आदेश दें। फ़कीर ने शयनकक्ष से अपना कमंडल लाने का आदेश दिया। दरबारी दौड़े। वे जानते थे कि फ़कीरों के कमंडल में बड़ा दम होता है। उससे एक चुल्लू जल ले कर जब वे मंतर फूंकते हैं तो सल्तनतें ढेर हो जाती हैं। सो, दुश्मन सेना की क्या बिसात? कमंडल जैसे ही फ़कीर के हाथ में आया, उसने अपना झोला ले कर महल से बाहर कूच कर दिया। कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाया।
लेकिन भारतवासियों ने तो नरेंद्र भाई को जबरदस्ती राजा बनाया नहीं था। वे तो जबरदस्ती राजा बन गए। देश के दो तिहाई मतदाता ना-ना करते रहे। मगर एक तिहाई समर्थन के ऐरावत पर वे मुकुट लगा कर बैठ गए। राज-सिंहासन पर पहुंचने के लिए उन्होंने अपना-पराया जो सामने आया, उसे रौंदा। सिंहासन पर जमने के बाद उन्होंने हर व्यवस्था और परंपरा को रौंदा। इसलिए यह कैसे मान लें कि दोबारा सिंहासन हासिल करने के लिए वे सब-कुछ रौंदने से परहेज़ करेंगे? नरेंद्र भाई क्या आपको ऐसे लगते हैं कि झोला उठा कर चल दें? ऐसे भी फ़कीर वे नहीं हैं। होते तो क्या यहां होते?
झोला उठा कर वे कहीं नहीं जाने वाले। हमें-आपको ही अपनी झोली लेकर उनके पीछे घूमना है। समूह-गान गाना है--हमको भी साथ ले लो...। लेकिन क्या हमारे गाने भर से वे हमें साथ ले लेंगे? लेना होता तो चार साल से क्या वे भाड़ झौंक रहे हैं? नरेंद्र भाई ने रायसीना पहाड़ी चढ़ते ही हमें एक झुनझुना पकड़ा दिया था--’सबका साथ, सबका विकास’। हम यह मजीरा बजाते घूम रहे हैं और वे अकेले चलते चले जा रहे हैं। कहां जा रहे हैं, वे भी शायद नहीं जानते। बस, इतना जानते हैं कि चलना ही जीवन है। चरैवेति, चरैवेति। दिशा से क्या? प्रभु दसों दिशाओं में विराजमान हैं। जहां भी पहुंचेंगे, प्रभु की शरण मिलेगी।
अब वे अकेले वूहान चले गए। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिलने। एकदम अकेले। आज भी वहीं हैं। कल तक चीन को सबक सिखाने की हुंकार लगा रहे थे। डोकलाम पर लाल-पीले हो रहे थे। मगर एकाएक जिनपिंग के साथ एकांतवास का मन हो आया। इस एकांतवास के लिए नरेंद्र भाई को क्या-क्या नहीं करना पड़ा! देश के लिए सब करना ही पड़ता है। तिब्बत की तरफ़ से आंखें थोड़ी फेरनी पड़ीं। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और सरकार के अफ़सरों को ’सलाह’ देनी पड़ी कि दलाई लामा के भारत में निर्वासित जीवन के साठ साल पूरे होने पर आयोजित कार्यक्रमों से दूर रहें। दलाई लामा को ’संकेत’ देना पड़ा कि वे मणिपुर में होने वाले राष्ट्रीय विज्ञान सम्मेलन में शिरकत करने न जाएं तो मेहरबानी! तब जा कर नरेंद्र भाई का जिनपिंग से वूहान में एकांत-मिलन हुआ।
मुझे तीस साल पहले 1988 की सर्दियां याद आ गईं। तब राजीव गांधी चीन गए थे। 1960 में भारत ने दलाई लामा को शरण दे दी तो चीन के नथुने फूल गए थे। दो साल बाद उसने भारत पर हमला कर दिया। अरुणाचल प्रदेश तक घुस आया। भारत-चीन के रिश्ते बेहद तनावपूर्ण हो गए। नेहरू 1954 में चीन गए थे। ’62 के बाद की तनातनी के दौर में कोई भारतीय प्रधानमंत्री चीन नहीं गया। राजीव पहले थे, जो 34 साल बाद चीन जा रहे थे। अरुणाचल तब तक केंद्रशासित क्षेत्र था। चीन रवाना होने से चंद रोज़ पहले राजीव ने उसे भारत के पूर्ण-राज्य का दर्ज़ा दे दिया और तब जाकर देंग श्याओ पेंग से मिले। सोचिए, चीन पर क्या गुज़री होगी? मगर पेंग ने राजीव की अगवानी में सारे राजनयिक नियमों को उठा कर ताक पर रख दिया। मुझे नहीं पता कि राजीव गांधी का सीना कितने इंच का था। लेकिन मुझे इतना पता है कि आज वे होते तो चीन से संबंध सुधारने की कितनी ही ललक के बावजूद तिब्बत और दलाई लामा का दिल नहीं दुखाते। इसलिए मैं मानता हूं कि नरेंद्र भाई अकेले-अकेले कहीं भी जा रहे हों, हमें उनसे अपने को साथ लेने की चिरौरी करने के बजाय उनकी एकल-यात्रा पर रोक लगाने के लिए घर से निकलना होगा। हमारे शेर-प्रधानमंत्री पेरिस में शाम बिताएं या वूहान में, हम भेड़ बनेंगे तो गड्ढे में गिरेंगे।
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