पिछले शनिवार को मैं ने लिखा था कि कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी 60 सीटों का आंकड़ा पार नहीं कर रही है, कांग्रेस स्पष्ट बहुमत की सरहद आसानी से पार कर रही है, जेडीएस पिछली बार से थोड़ी नीचे लुढ़क रही है और अन्य छुटपुट उम्मीदवारों की जीत के आसार थोड़े बढ़ गए हैं। इस मंगलवार कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो मेरी चारों बातें ग़लत साबित हुईं। भाजपा 40 से छलांग लगा कर 104 पर पहुंच गई। कांग्रेस 122 से फिसल कर 78 पर आ गई। जेडीएस सिर्फ़ तीन सीटें नीचे लुढ़क कर 37 पर थम गई। पिछली बार 23 छुटपुट उम्मीदवार जीते थे, इस बार महज तीन जीते।
सो, मैं बिना किसी लीपापोती के आपसे क्षमा मांगता हूं। कर्नाटक में विधानसभा के लिए 2013 में हुए चुनाव की तुलना में अगर भाजपा 64 सीटें ज़्यादा जीत गई हो और कांग्रेस ने 44 सीटें खो दी हों तो अपने आकलन के लिए माफ़ी भी न मांगने की धृष्टता करूं, इतना ढीठ मैं तो नहीं हो सकता। लेकिन कर्नाटक से आ रही जिस शंख-घ्वनि के भरोसे मैं ने मोदी-शाह की ढीठ जुगल-जोड़ी की सिहरन देखी थी, चुनाव नतीजों से सामने आए उसके तथ्य आपके सामने न रखू ंतो भी मैं अपने आकलन से अन्याय करूंगा। सीटों का मेरा अंकगणित भले ही ग़लत साबित हुआ, मगर भीतर के बीजगणित की धुन और बोल आज भी वही गीत गा रहे हैं, जो मुझे सुनाई दे रहा था।
इसलिए, इन तथ्यों पर गौर कीजिए।
कर्नाटक में कांग्रेस को इस चुनाव में भाजपा से क़रीब दो फ़ीसदी ज़्यादा वोट मिले हैं। भाजपा को मिले 36.2 प्रतिशत वोट और कांग्रेस को मिले 38 प्रतिशत वोट। कांग्रेस को भाजपा से कुल 6 लाख 38 हज़ार 621 वोट भी ज़्यादा मिले। कांग्रेस को 1 करोड़ 38 लाख 24 हज़ार 5 वोट मिले और भाजपा को 1 करोड़ 31 लाख 85 हज़ार 384 वोट।
हालांकि कांग्रेस और जेडीएस के बीच चुनाव-पूर्व गठबंधन नहीं था, लेकिन अगर इन दोनों को, और जेडीएस के साथ मिल कर लड़ी बहुजन समाज पार्टी के वोट प्रतिशत को जोड़ लें तो इन्हें 56.6 प्रतिशत वोट मिले। यह भाजपा को मिले वोट से 20.4 प्रतिशत ज़्यादा है। कांग्रेस, जेडीएस और बसपा को कुल 2 करोड़ 5 लाख 98 हज़ार 904 वोट मिले। यानी भाजपा से 74 लाख 13 हज़ार 520 वोट ज़्यादा पा कर भी ये पिछड़ गए।
तथ्य तो यही है कि कर्नाटक के 63.8 प्रतिशत मतदाताओं ने भाजपा को वोट नहीं दिया। प्रसंगवश यह भी बता दूं कि जेडीएस को इस चुनाव में 18.3 प्रतिशत यानी कुल 66 लाख 66 हज़ार 307 वोट मिले। अन्य उम्मीदवारों को 5.3 प्रतिशत यानी कुल 19 लाख 61 हज़ार 682 वोट मिले।
अब एक तथ्य और समझिए। भाजपा को 2013 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ़ 19.9 प्रतिशत वोट और 40 सीटें मिली थीं। मोदी-लहर की चरम उफ़ान के दिनों में जब 2014 के लोकसभा चुनाव हुए तो भाजपा 43.4 प्रतिशत मतों के साथ विधानसभा की 133 सीटों पर आगे थी। इसका मतलब है कि 2018 में उसका वोट प्रतिशत 7.2 कम हो गया और उसने 29 सीटें भी खो दीं। यानी पिछले विधानसभा चुनाव के मुक़़ाबजे भले ही उसे ज़्यादा सीटें मिली हैं, मगर 2014 की तुलना में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कर्नाटक में भी तेज़ी से नीचे आई है। 2014 में कांग्रेस कर्नाटक विधानसभा की 76 सीटों पर आगे थी। अब उसे 78 सीटें मिली हैं। सो, इस लिहाज़ से सीटों का यह गणित तो कहता है कि हारने के बावजूद कांग्रेस पिछले चार साल में ज़रा मज़बूत ही हुई है। पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में उसे डेढ़ प्रतिशत वोट भी ज़्यादा मिले हैं।
मगर इस सब के बावजूद कांग्रेस के लिए कई बातें सोचने की हैं। कर्नाटक में लिंगायत-भावना की हिलोरें थीं। किसानों के दर्द की कराह थी। कावेरी-जल का टंटा था। दलित समुदाय का दुखड़ा था। अल्पसंख्यक समुदाय की अपनी सोच थी। इन तमाम मसलों को ले कर मतदाताओं के मन में भाजपा से चिढ़-सी थी। इन तमाम मुद्दों पर कांग्रेस ने मतदाताओं के साथ खड़े रहने के लिए क़दम उठाने में कोई कसर भी नहीं रखी थी। तो भी भाजपा कांग्रेस को दहाई पर धकेल कर खुद तिहाई पर पहुंच गई। इस पहेली को बूझ कर अपने को सूझ-बूझ भरा बनाने का काम भी तो कांग्रेस को अब करना होगा।
लिंगायत समुदाय के प्रभाव वाली 120 सीटों में आधी-61-भाजपा जीत गई। 2013 में वह इनमें से सिर्फ़ 20 जीती थीं। अपनी तरफ़ लुभाने की कोशिशों के बावजूद लिंगायत-क्षेत्र में कांग्रेस नीचे आ गई। पिछली बार 120 में से 74 सीटें उसके पास थीं, इस बार 33 कम हो कर 41 रह गईं। जेडीएस फिर भी तक़रीबन जस-की-तस रही। पिछली बार उसने 15 सीटें जीती थीं और इस बार 13 जीतीं। वोक्कालिंगा समुदाय के प्रभाव वाली 66 सीटों में पिछली बार भाजपा को 13 मिली थीं। इस बार बढ़ कर 18 हो गईं। कांग्रेस 24 से घट कर 20 पर थम गईं। जेडीएस की 24 से बढ़ कर 25 हुईं।
कर्नाटक में 74 सीटें ऐसी थीं, जहां के किसान नरेंद्र मोदी की कृषि-नीति को पानी पी-पी कर कोस रहे थे। कर्नाटक की कांग्रेस-सरकार किसानों को राहत देने में कोई कोताही भी नहीं कर रही थी। कांग्रेस ने चुनाव-मैदान में इसे मुद्दा बनाने में भी कोई कसर नहीं रखी। कांग्रेस को सोचना होगा कि फिर भी बात क्यों नहीं बनी? इन 74 में से भाजपा को पिछली बार सिर्फ़ 11 सीटें मिली थीं। वे इस बार 33 कैसे हो गईं? उसका वोट प्रतिशत भी इन सीटों पर क़रीब दुगना हो गया। कांग्रेस को किसान-प्रभावित इलाक़ों में पिछली बार 40 सीटें मिली थीं। वे घट कर 25 क्यों रह गईं? यह अलग बात है कि इस बार कांग्रेस को इन 74 सीटों पर पिछली बार से पौने दो प्रतिशत ज़्यादा वोट मिले।
कावेरी जल मसले से प्रभावित क्षेत्र में विधानसभा की 49 सीटें थीं। यहां भी भाजपा की सीटें पिछली बार की तुलना में बढ़ कर 3 से 8 हो गईं और कांग्रेस की 23 से घट कर 10 रह गईं। हां, कांग्रेस का वोट ज़रूर ढाई प्रतिशत बढ़ा। कावेरी जल क्षेत्र में जेडीएस को फ़ायदा मिला। उसकी सीटें 21 से बढ़ कर 27 हो गई। वोट भी क़रीब तीन प्रतिशत बढ़ा। कर्नाटक में ऐसी 82 सीटें हैं, जिनके चुनाव नतीजे दलित वोट से तय होते हैं। 2013 में भाजपा इनमें से सिर्फ़ 9 जीती थी। इस बार 31 जीत गई। कांग्रेस पिछली बाद 49 जीती थी, मगर इस बार 34 पर ही जीती। 78 सीटें ऐसी हैं, जिनका फ़ैसला अल्पसंख्यक मतदाताओं के रुख से तय होता है। पिछली बार इनमें से भाजपा को 19 मिली थीं। इस बार 36 मिल गईं-यानी क़रीब दुगनी। कांग्रेस को पिछली बार इनमें से 45 मिली थीं। इस बार 35 ही मिली हैं। कर्नाटक के शहरी इलाकों की 71 में से 35 सीटें इस बार भाजपा ने जीती हैं। पिछली बार उसे सिर्फ़ 15 मिली थीं। कांग्रेस शहरों में 42 से घट कर 30 पर आ गई है। सो, बावजूद इसके कि कांग्रेस का बीजगणित बेहतर है, उसे 2019 का अपना अंकगणित ठीक से साधना होगा।(
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