सीबीआई में मची धमाचैकड़ी के बाद भी जिन्हें नरेंद्र भाई मोदी की राजकाज-क्षमता पर नाज़ है, मुझे उन सबकी बेअक्ली पर नाज़ है। सीबीआई प्रधानमंत्री का थाना है या नहीं और अब तक के प्रधानमंत्रियों में से किस ने अपने इस थाने का कैसा इस्तेमाल किया, इस पर बहस हो सकती है। मगर इस पर कोई विवाद नहीं है कि नरेंद्र भाई के साढ़े चार साल में इस थाने की थानेदारी करने में जैसा फूहड़पन देश ने देखा, उसने अब तक की सबसे गहन पतन-गाथा लिख डाली है।
जांच, प्रवर्तन और गुप्तचर संस्थाओं का बिना आगा-पीछा देखे बेजा इस्तेमाल करने की हवस ने भारत की शासन-व्यवस्था का जैसा गलीज़ रूप हमें नरेंद्र भाई के ज़माने में दिखाया है, उसने जनतांत्रिक विश्वास और मर्यादा के परखच्चे उड़ा कर रख दिए हैं। मुद्दा यह नहीं है कि सीबीआई का नंबर एक सही-ग़लत है या नंबर दो सही-ग़लत। मुद्दा यह है कि सीबीआई में यह सब होने दिया गया। हालांकि मुश्किल है, लेकिन मान लेते हैं कि यह नरेंद्र भाई की वजह से नहीं हुआ, मगर उनकी नाक के नीचे तो हुआ और इससे नरेंद्र भाई की हुई या नहीं, वे जानें, देश की नाक तो नीची ज़रूर हुई। कोई भी दलील इस नाक को अब फिर ऊंचा नहीं उठा सकती।
जब आप राजकाज का नरेंद्रीकरण और प्रशासनिक व्यवस्था का डोवालीकरण करने पर आमादा हो जाते हैं तो यही होता है। जांच-पड़ताल की सर्वोच्च संस्था की भीतरी सड़न सड़कों पर आ जाने के बाद अब कौन-सा राज्य यह हिम्मत जुटाएगा कि कोई मामला स्थानीय पुलिस से ले कर सीबीआई के हवाले करे? क्या हमारे सर्वोच्च न्यायालय में बैठे किसी न्यायाधीष का मन अब कोई जांच सीबीआई के हवाले करने को मानेगा? जिस सीबीआई के बारे में यह आम राय बन गई हो कि वह जांच के बहाने लूटखसोट करने का अड्डा बनी हुई है, उसे कौन किसी रेड-लाइट एरिया के थाने से बेहतर दर्ज़ा देगा?
स्थापित संस्थानों से खिलवाड़ के इन्हीं नतीजों से तो तमाम अर्थवान लोग नरेंद्र भाई को साढ़े चार साल से आगाह कर रहे थे। लेकिन उन्हें सुनने की आदत होती तो बात ही क्या थी? अपनी पराक्रमी भुजाओं के साथ अगर उनके पास दूसरों के मन की बात सुनने वाला विवेक, दूसरों का दर्द समझने वाला दिल और सचमुच सबको साथ ले कर चलने वाला दिमाग होता तो साढ़े चार साल में हम भी कहीं और होते और वे भी कहीं और। यह उन्हीं की मेहरबानी है कि आज देश भी कुशासन की गटर में पड़ा बिलबिला रहा है और वे भी अपने कर्मों की कड़ाही में पड़े छटपटा रहे हैं।
आते ही नरेंद्र भाई हर स्थापित प्रतिमान के पीछे अपना लट्ठ ले कर पड़ गए। उन्हें अपने नए प्रतिमान रचने थे। वे यह काम पलक झपकती तेज़ी से पूरा कर लेना चाहते थे। सो, आव देखा न ताव, बुलडोजर पर बैठ गए। सब-कुछ गिरा देने की उनकी ज़िद तो पूरी हो गई, मगर बिना किसी नक्शे के नव-निर्माण कैसे होता? इसलिए भारतीय जनतंत्र के सभी विश्वासों, परंपराओं, मान्यताओं और सिद्धांतों के खंडहर तो हमारे सामने हैं; भावी-रचना के अंकुर दूर-दूर तक कहीं नहीं। देश अपने भीगे नयनों से प्रलय-प्रवाह देख रहा है।
रातों-रात नोटबंदी कर के नरेंद्र भाई ने अर्थव्यवस्था तबाह कर दी। रात-दिन गाय-गाय जप कर नरेंद्र भाई ने सामाजिक सद्भाव तबाह कर दिया। हर हफ़्ते आंखें दिखा-दिखा कर नरेंद्र भाई ने सारे पड़ौसी मुल्क़ों को भारत से दूर कर दिया। हर महीने विश्व-भ्रमण कर नरेंद्र भाई ने राग अलापा कि उनके आने से पहले भारतीय अपने को कोसते थे कि कहां जन्म ले लिया। राज्यों में सरकारें बनाने के लिए नरेंद्र भाई ने ऐसी-ऐसी तिकड़में अपनाईं कि लोकतंत्र की घिग्घी बंध गई। साढ़े चार बरस में नरेंद्र भाई ने अपने पराक्रम का तेजाब देश की जड़ों में इतनी बेसब्री से उंडेला कि वे सूख गईं। उन्हें फिर हरा-भरा करने का पवित्र जल कौन लाएगा, कैसे लाएगा और कहां से लाएगा, कोई नहीं जानता।
लालकिले से अपने पहले भाषण में नरेंद्र भाई ने हम से कहा था कि वे राजनीति के नहीं, राष्ट्रनीति के राही हैं। हमें क्या मालूम था कि उनकी नीति एक ऐसा राष्ट्र बनाने की है, जिसमें हम खंडहरों पर बैठे अपने आंसू पोंछते रहेंगे? नरेंद्र भाई ने हम से कहा था कि वे एक लक्ष्य, एक मन, एक मति, एक दिशा का मंत्रोच्चार करेंगे। हमें क्या मालूम था कि उनका मन, मति और लक्ष्य हमें इस दिशा में ले जाने के लिए थी? लालकिले से उन्होंने तब बार-बार कहा था कि मैं कर के रहूंगा, यह हो कर रहेगा। हमें क्या मालूम था कि वे यह सब करके रहेंगे?
फिर अमेरिका में मेडिसन स्क्वायर पर नरेंद्र भाई ने वचन दिया कि मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा कि भारतवासियों को नीचा देखना पड़े। अब हम अपने प्रधानमंत्री के इन सब वादों की शिकायत करने किस विश्व-अदालत में जाएं? साढ़े चार बरस में दुनिया के सबसे भूखे देशों की कतार में हम और नीचे गिर गए। साढ़े चार बरस में देश की आधी से ज़्यादा दौलत एक प्रतिशत धन्ना-सेठों की मुट्ठी में चली गई। भारतीय अमीरों को मगरम़च्छ बताने वाले स्वामी विवेकानंद के अनुयायी हमारे नरेंद्र भाई ने अपने बचपन में पता नहीं किस मगरमच्छ को परास्त किया था!
डमरू बजा कर मजमा इकट्ठा कर लेने की महारत सबके पास नहीं होती। नरेंद्र भाई को यह हस्त-कौशल, लगता है, घुट्टी में मिला है। लेकिन मजमे की मुश्किलों को दूर करने का विज्ञान उन्होंने कभी पढ़ा ही नहीं। इसलिए साढ़े चार साल पहले इकट्ठा किए अपने मजमे की बदौलत नरेंद्र भाई रायसीना-पहाड़ी पर चढ़ तो गए, मगर अपने कामकाज की कोई गंगा देश के मैदानों में नहीं बहा पाए। डमरू बजता रहा, मगर लोग इस डमरू पर कब तक मोहित रहते? सो, आज पूरा भारत ठगा-ठगा सा, आंखों में कई सवाल लिए, नरेंद्र भाई के सामने खड़ा है। नरेंद्र भाई के पास उनके सवालों का कोई जवाब नहीं है।
सीबीअीई-हादसे ने नरेंद्र भाई के महल का तहख़ाना नंगा कर दिया। इस प्रतीक-प्रसंग ने हमारे जनतंत्र की चूलें हिला दी हैं। साढ़े चार साल में एक-एक कर हिलीं नीवों का यह चरम था। अब तक जो सपनों के सहारे ज़िंदा थे, वे धम्म से नीचे आ गिरे हैं। कोई देश अपने प्रधानमंत्री से यह उम्मीद नहीं करता कि वह अपने ही घर पर तबाही लाने वाली बमबारी करे। नरेंद्र भाई ने चूंकि अपने साढ़े चार साल में यही किया है, इसलिए उनका सूरज तेज़ी से ढल गया है। उनकी गोधूलि बेला आ गई है। अब वे आसमान पर कोई भी नकली चांद दिखा कर अपनी रात को उजाले से नहीं भर पाएंगे। जब लोगों का विश्वास हिल जाता है तो सारे डमरू, बिगुल और नगाड़े नाकारा हो जाते हैं। इसलिए 2014 में नरेंद्र भाई की ताल पर थिरक रहा देश आज उलटी क़दमताल कर रहा है। साढ़े चार बरस के तूफ़ानी क़हर में हम ने क्या-क्या नहीं सहा! अफ़सोस यह है कि नरेंद्र भाई को अब भी यह अहसास नहीं है कि उनके प्रिय देशवासियों की सहनशक्ति जवाब दे चुकी है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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