Saturday, August 21, 2021

आपातकाल की भूल और ‘यूरेका-यूरेका’ टोली

 



राहुल गांधी ने आपातकाल को भूल बताने की अपनी बात दोहराई तो कई अर्द्धशिक्षित क़लमकार और टीवी सूत्रधार ‘यूरेका-यूरेका’ चिल्लाने लगे। वे बेचारे जानते ही नहीं थे कि आपातकाल की ग़लती तो ख़ुद इंदिरा गांधी ने मान ली थी। उनके बाद राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी कई बार कह चुके थे कि आपातकाल लगाना भूल थी। कांग्रेस पार्टी भी अपने अधिकृत दस्तावेज़ों में आपातकाल की ग़लती मान चुकी है। मगर राहुल के कहे का पल्लू पकड़ कर मौजूदा सत्तासीनों के आरती-कर्मियों ने दो-चार दिन ऐसा हल्ला मचाया, गोया इंदिरा गांधी का जनतंत्र से कोई लेना-देना ही नहीं था।

1975 के बाद जन्म लेने वाली पीढ़ी को यह सिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई है कि इंदिरा जी लोकतंत्र-विरोधी थीं और एक तरह से तानाशाह ही थीं। इंदिरा जी ने आपातकाल क्यों लगाया था, इस पर लंबी चर्चा हो सकती है। उन्होंने विपक्षी नेताओं को क्यों जेल भेजा था, इस पर भी काफी बहस की गुंज़ाइष है। और, आपातकाल में सचमुच कितनी ज़्यादती हुई या नहीं हुई और की तो किसने की, किसके इशारे पर की, इस पर तो पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है। बावजूद इन तमाम पहलुओं के, मैं भी मानता हूं कि इंदिरा जी ने आपातकाल की घोषणा कर के अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती की थी। लेकिन यह भी तो एक तथ्य है कि उन्होंने अपनी ग़लती मान ली थी।

25 जून 1975 की आधी रात आपाातकाल लगा था। 21 मार्च 1977 को इंदिरा जी ने आपातकाल हटाने का ऐलान कर दिया था। मैं नहीं कहता कि इंदिरा जी के इन 633 दिनों को कोई भूले। इतिहास के ये पन्ने याद रखे जाने चाहिए। लेकिन सिर्फ़ इन 21 महीनों के चलते इंदिरा जी की ज़िंदगी के पूरे 67 वर्षों की भद्द पीटने की कारगुज़ारी में अनवरत लिप्त रहने वालों की हां-मे-हां, अपने को जनतंत्र का पहरुआ साबित करने के चक्कर में, मैं तो नहीं मिला सकता। मुझे तो लगता है कि जितना गहरा जनतांत्रिक दायित्वबोध इंदिरा जी में था, बहुत कम राजनीतिकों में होता है। कामकाजी दुनिया में ग़लतियां किस से नहीं होती हैं? लेकिन आज के राजनेताओं से तो यह उम्मीद करना भी फ़िजूल है कि कभी तो वह दिन आएगा, जब वे अपनी ग़लतियां मान लेंगे।

भले ही इंदिरा जी के दामन पर आपातकाल लगाने के दाग़ हैं, लेकिन उनके जैसा जनतांत्रिक होने के लिए भी कई जन्मों के पुण्य लगते हैं। एक बच्ची, जिसके पिता स्वाधीनता आंदोलन की मसरूफ़ि़यत के चलते कभी-कभार ही घर रह पाते हों; एक बच्ची, जिसके बचपन का ज़्यादातर हिस्सा इसलिए अकेलेपन में गुज़रा हो कि पिता 11 साल अंग्रेज़ों की जेलों में रहे; एक बच्ची, जिसका पूरा बचपन अपनी बीमार मां की देखभाल और फिर उसे खो देने की निजी त्रासदी के बीच गुज़रा हो; एक बच्ची, जो खुद भी अपनी नरम सेहत से परेशान रहते हुए अंग्रेज़ो की तानाशाही से लड़ने में अपनी अग्रणी भूमिका निभाती रही हो; वह बच्ची, जब अपने देश की प्रधानमंत्री बन जाए तो, क्या आपको लगता है कि इतनी संवेदशून्य हो सकती है कि तानाशाह बनने की सोच ले?

इंदिरा जी का जीवन तरह-तरह के भावनात्मक अभावों की कथा है। मैं जानता हूं कि अगर मैं कहूंगा कि इनमें आर्थिक अभाव भी शामिल था तो ज़्यादातर लोग अपना पेट पकड़ कर हंसेंगे। लेकिन सच्चाई यह भी है कि इंदिरा जी की मां का इलाज़ कराने तक के पैसे उनके पिता जवाहरलाल नेहरू के पास एक वक़्त नहीं थे। नेहरू की शादी कमला से 8 फरवरी 1916 को हुई थी। उस दिन वसंत पंचमी थी। इंदिरा जी को जन्म देने के बाद से ही कमला नेहरू बीमार रहने लगी थीं। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि इंदिरा जी के जन्म के 7 साल बाद 1924 में उन्होंने एक बेटे को भी जन्म दिया था। वह कुछ ही दिन जीवित रहा। नेहरू जेल में थे। 7 साल की इंदिरा पर अपने भाई की मौत का क्या कोई असर नहीं हुआ होगा?

कमला को टीबी हो गई थी। वे महीनों लखनऊ के अस्पताल में भर्ती रहीं। इंदिरा जी का बचपन इलाहाबाद से लखनऊ के बीच भाग-दौड़ में बीता। डॉक्टरों ने कमला को इलाज़ के लिए स्विट्जरलैंड ले जाने की सलाह दी। यह 1926 की बात है। जवाहरलाल के पास इतने पैसे नहीं थे कि यह खर्च उठा पाते। शादीशुदा थे। बेटी भी हो गई थी। उन्हें अपने पिता से खर्च के लिए पैसे लेना अच्छा नहीं लगता था। मोतीलाल जी को कोई कमी नहीं थी। लेकिन जवाहरलाल के पास खुद के पैसे नहीं थे। उन्होंने नौकरी तलाषनी शुरू की।

इस पर पिता ने उन्हें फटकारा। मोतीलाल का मानना था कि राजनीतिक जीवन में काम करने वाले को संन्यासी की तरह रहना चाहिए। आजीविका कमाने के लिए एक राजनीतिक नौकरी-धंधा नहीं कर सकता। मोतीलाल ने जवाहरलाल से कहा कि नौकरी कर के जितना तुम एक साल में कमाओगे, उतनी तो मेरी एक हफ़्ते की कमाई है। लेकिन बेटे की खुद्दारी का मान रखने के लिए उन्होंने जवाहरलाल को अपने कुछ मुकदमों की याचिकाएं तैयार करने को कहा और दस हज़ार रुपए का मेहनताना दिया। कितने लोग जानते हैं कि तब जा कर नेहरू अपनी पत्नी को ले कर इलाज़ के लिए परदेस गए?

सो, नेहरू-इंदिरा पर बिना सोचे-समझे मुंह उठा कर टिप्पणी करने का चस्का जिन्हें लगा हुआ है, वे पहले ज़रा इतिहास पढ़ें। आपातकाल-आपातकाल का रट्टा लगा कर ख़ुद के लोकतंत्रवादी होने का प्रमाणपत्र गले में लटकाए घूम रहे चेहरों के पीछे का चेहरा कितना कुत्सित है, कौन नहीं जानता? आपातकाल की भूल का अहसास इंदिरा जी को एक बरस बाद ही हो गया था। 1976 के जून-जुलाई में जब वे आनंदमयी मां से मिलने गई थीं, तभी। बाद में जब अक्टूबर के महीने में वे दर्शनवेत्ता जड्डू कृष्णमूर्ति से मिलीं तो उन्होंने तय कर लिया था कि आपातकाल हटा लेंगी।

अपने विश्वस्तों से इंदिरा जी ने जब कहा कि वे चुनाव कराना चाहती हैं तो उनके बेटे संजय समेत सब ने उन्हें रोका। रॉ के प्रमुख आर. एन. काव ने इंदिरा जी को बताया कि कांग्रेस बुरी तरह हार जाएगी। संजय गांधी ने इंदिरा जी से कहा कि वे आपातकाल हटा कर जिंदगी की सबसे बड़ी ग़लती करेंगी। कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने भी इंदिरा जी को ऐसा न करने की सलाह दी। मगर इंदिरा जी को इनमें से कोई नहीं रोक पाया। 18 जनवरी 1977 को उन्होंने ऐलान कर दिया कि चुनाव होंगे। उसी दिन सभी विपक्षी नेता जेलों से रिहा कर दिए गए।

तब जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि इंदिरा जी ने जो हिम्मत दिखाई है, बिरले ही दिखा सकते हैं। स्वाधीनता आंदोलन के दिनों में इंदिरा जी को अपने पिता से जो संस्कार मिले थे, वे उन्हें ज़िंदगी भर अपने पल्लू से बांधे रहीं। लोकतंत्र में नेहरू और इंदिरा की कितनी गहरी आस्था थी, इसका वे तो बित्ता भर भी अंदाज़ नहीं लगा सकते, जिनके राज में जन-स्वतंत्रता के विश्व मानक पर भारत लगातार नीचे लुढ़कता जा रहा है। यह आस्था ही थी कि अगर संजय गांधी की मां ने भारत को आपातकाल के हवाले कर दिया था तो जवाहरलाल की बेटी ने मुल्क़ को अंधेरी कोठरी से मुक्त कर फिर लोकतंत्र की बगिया में खेलने भेज दिया। अपने दिल पर हाथ रख कर बताइए कि आज कितने लोग हैं, जो ऐसा प्रायश्चित कर सकते हैं? इसलिए आपातकाल के मस्से के बावजूद इंदिरा गांधी बहुतों से ज़्यादा ख़ूबसूरत हैं।  (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

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