Saturday, August 21, 2021

सिंहासन-सप्तपदी के सात बरस बाद

जिन्हें इतिहास की समझ हैवे जानते हैं कि हुक़्मरान जब-जब कलंदरी पर उतारू होते हैंजनता भी तब-तब चीमटा बजाने लगती है। जिन्हें समझ कर भी यह इतिहास नहीं समझनाउनकी समझ को नमन कीजिए। लेकिन एक बात अच्छी तरह समझ लीजिए। जनता जब अपनी पर आती है तो वह किसी गांधी-वांधीपवार-फवारअण्णा-केजरी की मोहताज़ नहीं होती। वह अपने नायक स्वयं निर्मित कर लेती है।

मैं ने पहले भी कहा है और दोबारा कह रहा हूं कि इस साल की दीवाली गुज़रने दीजिएउसके बाद सियासी हालात का ऊंट इतनी तेज़ी से करवट लेगा कि उसकी कुलांचें देख कर अच्छे-अच्छों की घिग्घी बंध जाएगी। जिन्हें लगता है कि नरेंद्र भाई ने अपनी मातृ-संस्था के प्रमुख मोहन भागवत के नीचे की कालीन इस तरह अपनी मुट्ठी में कर ली है कि जिस सुबह चाहेंगेसरका देंगेउनकी खुशफ़हमी अगली वसंत पंचमी आते-आते काफ़ूर हो चुकी होगी

कल नरेंद्र भाई मोदी को दोबारा भारत माता के माथे पर सवार हुए सात साल पूरे हो जाएंगे। अपने हर काम को करतब में तब्दील करने की ललक से सराबोर नरेंद्र भाई ने 2014 में दक्षेस देशों के शासन-प्रमुखों की मौजूदगी में भारत के पंद्रहवें प्रधानमंत्री के तौर पर सिंहासन-सप्तपदी की थी और 2019 में जब वे सोलहवें प्रधानमंत्री पद के लिए फेरे ले रहे थे तो उनके सामने बिमस्टेक देशों के राष्ट्र-प्रमुख बैठे हुए थे।

भारत के अलावा दक्षेस के बाकी सदस्य-देश हैं पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, भूटान, मालदीव और अफ़गानिस्तान। 2014 की गर्मियों में सरकारी दिशाओं से बहने वाली लू में यह संदेश था कि गोया दुनिया की आबादी के 21 प्रतिशत लोग, वैश्विक अर्थव्यवस्था में से 30 खरब रुपए का हिस्सा और पृथ्वी की 3 फ़ीसदी भूमि नरेंद्र भाई के सीधे समर्थन में खड़ी है। वैसे तो ऐसा था नहीं, मगर अगर था भी तो इतनी पिद्दी-सी बात पर भारत के प्रधानमंत्री को इतना इतराने की कोई दरकार नहीं थी।

2019 की गर्मियों में संदेश देने की कोशिश हुई कि बंगाल की खाड़ी से उठने वाली लहरों की बहुक्षेत्रीय तकनीकी-आर्थिक पहलकदमी के नायक भी हमारे हिंदू हृदय सम्राट नरेंद्र भाई ही हैं। बिमस्टेक के सदस्य-देशों में भारत के अलावा बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका और थाइलैंड हैं। क्या आप को लगता है कि उनके राष्ट्र-प्रमुखों की शपथ समारोह में उपस्थिति से भी भारत के प्रधानमंत्री को इतना गदगद हो कर तान छड़ने की ज़रूरत थी?

लेकिन अब सात बरस बाद कोई तो यह सोचे कि अमेरिका, चीन, रूस, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, वगै़रह-वगै़रह के मन में नरेंद्र भाई के लिए उछालें मार रही स्नेह-फुहारों की तो बात ही मत कीजिए और पाकिस्तान को तो जाने दीजिए चूल्हे में; मगर बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव, अफ़गानिस्तान और थाइलैंड से भी आज नरेंद्र भाई के संबंध सचमुच कैसे हैं? शेख मुज़ीबुर्रहमान की बेटी होने के नाते बांग्लादेश की शेख हसीना के भारत से जुड़े भाव-बंधन को छोड़ दें तो क्या कोई और आप को हमारे प्रधानमंत्री से आज सीधे मुंह बात करता दिखाई दे रहा है?

नेपाल के के. पी. शर्मा ओली, भूटान के जिग्मे वांग्चुक, श्रीलंका के गोतबाया राजपक्ष, मालदीव के इब्राहीम मुहम्मद सोलिह, अफ़गानिस्तान के अशरफ़ घानी और थाइलैंड के महा वजीरलोंग्कोर्न में से किस की धड़कनों में नरेंद्र भाई बसे हुए हैं? एक वक़्त जाफ़ना की मुश्क़िलों से निपटने के लिए भारतीय शांति सेना बुलाने वाला श्रीलंका इन दिनों चीन को ’प्रांत’ बसाने के लिए ज़मीन दे रहा है। म्यांमार में तीन महीने पहले काबिज़ हुए सैन्य-प्रमुख मिन आंग ह्लाइंग को भारत से भले प्रेम न हो, मगर जब आंग सान सू भी थीं तो भारत से दशकों पुराने स्नेह-बंधन के बावजूद नरेंद्र भाई से छिटक क्यों गई थीं?

इस बात पर हम भले ही ताली बजा लें कि चीन के शी जिन पिंग के साथ साबरमती किनारे झूला झूलने वाले नरेंद्र भाई अब शायद ही कभी उन्हें अपने साथ हिंडोले पर बिठाएंगे, मगर इस बात पर हम थाली कैसे बजाएं कि अमेरिका के जो बाइडन शायद ही अपने कार्यकाल में हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री के साथ झूला झूलने को तैयार होंगे! रूस के व्लादिमिर पुतिन से नरेंद्र भाई की वैचारिक जड़ें भले ही उलट हों, मगर पलटनवाद के मूल-विचार के तो दोनों ही हामी हैं। इसके चलते पुतिन भारत में रूस के कारोबारी अवसरों की ज़मीन थोड़ी व्यापक बनाने की कोशिश करते ज़रूर दिखाई देते हैं, लेकिन नरेंद्र भाई से रहते तो वे बुनियादी तौर पर खिंचे-खिंचे ही हैं।

ऑस्ट्रेलिया के स्कॉट मॉरिसन और ब्राज़ील के जायर बोल्सोनारो को आप ने पिछली बार कब भारत के प्रधानमंत्री की तरफ़ मुस्करा कर देखते देखा था? भारत से ऐतिहासिक ताने-बाने के बावजूद आप दक्षिण अफ्रीका के सिरिल राम्फोसा से ले कर अफ़़्रीकी मुल्क़ों के किस शासनाध्यक्ष को हमारे प्रधानमंत्री से गलबिहयां करते पाते हैं? तमाम गले-पड़ू तस्वीरों के बावजूद क्या आपको यह लगता है कि सऊदी अरब के सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ से ले कर संयुक्त अरब अमीरात के ख़लीफ़ा बिन ज़ायेद हमारे नरेद्र भाई की मन-ही-मन बलैयां लेते होंगे? फ़लस्तीन के महमूद अब्बास को नरेंद्र भाई के भारत से मुहब्बत हो-न-हो, इज़राइल के बेंजामिन नेतन्याहू भी तो अब डगमग-डगमग चलने लगे हैं। उनका क्या?

2020 में ज़रूर नरेंद्र भाई परदेस नहीं जा पाए, वरना विश्व-गुरु बनने के चक्कर में वे पहले कार्यकाल में 49 बार विदेश यात्राएं कर आए थे और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने धड़ाधड़ 7 विदेश यात्राएं और कर डाली थीं। इस साल पश्चिम बंगाल में मतदान के आख़िरी दिन 26 मार्च को वे बांग्लादेश जा पहुंचे। इन 60 यात्राओं में से 51 के विमान भाड़े पर ही 5 अरब 88 करोड़ 62 लाख 88 हज़ार 763 रुपए खर्च हो चुके हैं। 8 यात्राएं वायुसेना के विमान से हुईं, इसलिए उनका अलग से भाड़ा नहीं देना पड़ा और बांग्लादेश की यात्रा भाड़े का बिल अभी सरकार को मिला नहीं है। सात साल में एक साल कोरोना ने हमारे प्रधानमंत्री को विदेश नहीं जाने दिया, मगर बाकी के छह साल में वे सात महीने विदेशों में ही रहे। बाकी खर्चों का पता नहीं, विमान भाड़े पर ही इस हिसाब से औसतन हर रोज़ पौने तीन करोड़ रुपए से ज़्यादा खर्च हुए। लेकिन सतही घुमक्कड़ी से ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मिठास घुल पाती तो फिर बात ही क्या थी?

सात साल पहले नरेंद्र भाई का आराधक-आधार, जैसे भी हुआ था, बेहद मजबूत था। सात बरस बाद उनके अकेले के किए-धरे से वह इतना पिलपिला हो गया है कि, देश तो देश, पूरी भारतीय जनता पार्टी और संघ-कुनबा भी माथा पीट रहे हैं। भाजपा के 300 मौजूदा चेहरों में तीन चौथाई ऐसे हैं, जो अगला कोई भी चुनाव ख़ुद के बूते पर जीतने की कूवत नहीं रखते हैं और जानते हैं कि नरेंद्र भाई का मुखौटा अगर उन्होंने लगाया तो गत और भी बुरी हो जाएगी। तिस पर आधों से ज़्यादा को अगले लोकसभा चुनाव में अपनी उम्मीदवारी पर अमित शाह का खंज़र लटका अभी से दिखाई दे रहा है।

सो, भाजपा-संघ के अंतःपुर में यह नरेंद्र भाई के नेतृत्व पर सब से मोटे सवालिया निशान का दौर है। मोशा-धमक मगर अभी भी इतनी गई-बीती नहीं हुई है कि आप तनी मुट्ठियां खुल कर देख पाएं। इसलिए दिखने को ज़्यादातर सिर झुके दिखाई दे रहे हैं। लेकिन जो सिर उठने लगे हैं, वे ऐसे नहीं है, देख कर भी जिनकी अनदेखी की जा सके। मैं ने पहले भी कहा है और दोबारा कह रहा हूं कि इस साल की दीवाली गुज़रने दीजिए, उसके बाद सियासी हालात का ऊंट इतनी तेज़ी से करवट लेगा कि उसकी कुलांचें देख कर अच्छे-अच्छों की घिग्घी बंध जाएगी। जिन्हें लगता है कि नरेंद्र भाई ने अपनी मातृ-संस्था के प्रमुख मोहन भागवत के नीचे की कालीन इस तरह अपनी मुट्ठी में कर ली है कि जिस सुबह चाहेंगे, सरका देंगे, उनकी खुशफ़हमी अगली वसंत पंचमी आते-आते काफ़ूर हो चुकी होगी।

जिन्हें इतिहास की समझ है, वे जानते हैं कि हुक़्मरान जब-जब कलंदरी पर उतारू होते हैं, जनता भी तब-तब चीमटा बजाने लगती है। जिन्हें समझ कर भी यह इतिहास नहीं समझना, उनकी समझ को नमन कीजिए। लेकिन एक बात अच्छी तरह समझ लीजिए। जनता जब अपनी पर आती है तो वह किसी गांधी-वांधी, पवार-फवार, अण्णा-केजरी की मोहताज़ नहीं होती। वह अपने नायक स्वयं निर्मित कर लेती है। और, कोई ज़रूरी नहीं कि छप्पन इंच की छाती वाले या चिकने-चुपड़े चेहरे वाले ही लोक-नायक बनते हों। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

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