Saturday, August 21, 2021

भारत के सिंहकर्मा नमो और रोम का चूं-चूं नीरो

 

पिछले सात बरस में राजधर्म का एक नया व्याकरण रच-बस रहा है। हम देख रहे हैं कि सत्तासीन होने और सिंहासन पर बने रहने के लिए अनसुनी-योग का जो जितना गहन अभ्यास कर लेगा, वह अपनी कामयाबी का उतना ही ऊंचा परचम लहराएगा। साढ़े चार साल से भारत में आर्थिक-हाहाकार हो रहा है। पिछले एक साल से महामारी-त्राहिमाम मचा हुआ है। लेकिन हमारे नीरो का मन झूले पर झूलने को मचल रहा है। उनका मन मोर से खेलने को फुदक रहा है। उनका मन ‘ओए, ओए’ की तान लगाने को ललक रहा है।

बढ़ती बेरोज़गारी से हमारे नीरो की पेशानी पर सिलवटें नहीं पड़ीं। बढ़ती महंगाई से हमारे नीरो ने अपनी ठोड़ी नहीं खुजलाई। सरहदी आपदाओं को हमारा नीरो अवसर में बदलने की नाकाम जुगत भिड़ाता रहा। विश्व-राजनय में भारत के मखौल को वह लाल कालीन के नीचे खिसकाता रहा। कोरोना महामारी के पहले चरण में हमारे नीरो ने देष के के गले में ताली-थाली-दीये-मोमबत्ती की माला डाल दी। महामारी के दूसरे चरण में वे हम से श्मशान में उत्सव मनाने को कह रहे हैं। सरकार ने हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया है। और, हमारा धैर्य धन्य है कि हम ने ख़ुद को अपने नसीब पर छोड़ दिया है।

सरकारी आंकड़ों को ही मान लें, हालांकि वे बहुत कम कर के बताए जा रहे हैं, तो भी भारत में कोरोना की दूसरी लहर आने के बाद से, चंद रोज़ में ही, बीस लाख से ज़्यादा मामले सामने आ चुके हैं। 11 हज़ार लोगों की मौत हो चुकी है। पिछले चौबीस घंटों में ही सवा दो लाख लोग कोरोनाग्रस्त हुए हैं। रोज़ एक हज़ार से ज़्यादा मौतें इस वज़ह से हो रही हैं। लेकिन क्या आपने ‘हृदय सम्राट’ के हृदय की कोई धड़कन इस बीच सुनी? वे तो बंगाल में आज हो रहे चौथे चरण की शतरंज बिछाने में मग्न हैं। वे अब चुनाव के बाकी बचे तीन और चरणों के ‘लाठी-मार्च’ में मशगूल रहेंगे। उन्हें आपकी नहीं, ख़ुद की फ़िक़्र है।

हमारे नीरो के बांसुरी-वादन में इससे कोई ख़लल नहीं पड़ रहा कि आप अपने मरीज़ के लिए अस्पतालों में एक-एक बिस्तर के लिए भटक रहे हैं, कि आप रेमडेसिविर के एक-एक इंजेक्शन के लिए कहां-कहां हाथ-पैर मार रहे हैं, कि आप ऑक्सीजन के एक-एक क़तरे के लिए किस क़दर तरस रहे हैं, कि आप एक-एक वेंटिलेटर के लिए किस-किस से गुहार कर रहे हैं और आप अपने प्रियजन के अंतिम संस्कार तक के लिए कितने-कितने घंटे कतारों में खड़े हैं। अपने रहनुमा की संवेदनहीनता की यह पराकाष्ठा भी अगर आपको नहीं झकझोर रही तो मैं आपके संतत्व को प्रणाम करने के बजाय उसे धिक्कारता हूं। हद हो जाने पर भी जो संत श्राप न दे, वह सह-अपराधी है। जो सज़ा अपराधी की है, वही सज़ा उसकी है।

इक्कीसवीं सदी की इस महामारी के दौर में भी नोच-खसोट में लगी व्यवस्थाओं ने अगर आपकी आंखों के जाले साफ़ नहीं किए हैं तो आप जानें! अगर इस दौर ने भी आपको अच्छे-बुरे का फ़र्क़ करना नहीं सिखाया है तो आपकी बदक़िस्मती पर दूसरे आंसू क्यों बहाएं? इतने पर भी अगर आप तटस्थ-भाव से सराबोर हैं तो समय का कर्तव्य है कि अपने बहीखाते में आपका यह अपराध मोटे-मोटे अक्षरों में दर्ज़ करे। आप अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ते रहें, समय अपने कर्तव्य से मुंह क्यों मोड़े? सो, अगर आपको इस बीहड़ समय में भी निरपेक्ष बने रहना है तो बने रहिए, लेकिन अपने बच्चों को बता जाइए कि उन्हें एक दिन आपके इस उधार का चुकारा करना है। उन बेचारों को गफ़लत में छोड़ कर मत चले जाइएगा। अपने ख़ामोश पापों का पुलिंदा उनके हवाले करिए और उनसे पूछिए कि वे यह वसीयतनामा स्वीकार करने को तैयार हैं या नहीं?

हम आज तक रोम के नीरो का नाम जप रहे हैं, लेकिन भारत के नमो के सामने वह तो चूं-चूं का मुरब्बा तक नहीं है। कहां हमारे नमो, कहां रोम का नीरो? कोई तुलना है? भारत को दुनिया में हर तरह की मिसाल कायम करनी है। नीरो को पछाड़ने का काम भी हमने कर दिखाया है। महामारी-प्रबंधन के नाम पर करदाताओं के लाखों करोड़, खरबों-खरब, रुपए हमारी सरकार ने किन के हवाले कर दिए, किसे मालूम? अगर चिकित्सा-माफ़िया से केंद्र और राज्यों की सरकारें मिली हुई नहीं हैं तो कोरोना के बहाने निजी अस्पतालों, परीक्षण केंद्रों और दवा-वैक्सीन निर्माताओं को किए गए सरकारी भुगतान पर श्वेत पत्र जारी क्यों नहीं हो रहा? स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े निजी क्षेत्र की पिछले एक बरस की कमाई के आंकड़े सार्वजनिक करने के कदम केंद्र की सरकार क्यों नहीं उठा रही?

डेढ़ अरब की आबादी का आंकड़ा छू रहे भारत में सिर्फ़ 70 हज़ार अस्पताल हैं। इनमें से 44 हज़ार निजी हैं। उनमें 12 लाख बिस्तर हैं, 59 हज़ार आईसीयू इकाइयां हैं और 30 हज़ार वेंटिलेटर हैं। सरकारी अस्पतालों की संख्या क़रीब 26 हज़ार है। उनमें साढ़े सात लाख बिस्तर हैं, 35 हज़ार आईसीयू इकाइयां हैं और 18 हज़ार वेंटिलेटर हैं। देश भर के सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से 60 प्रतिशत में सिर्फ़ एक डॉक्टर है। भारत में साढ़े बारह लाख एलोपैथी डॉक्टर हैं और आठ लाख डॉक्टर आयुर्वेद, होम्योपैथी और यूनानी पद्धति से इलाज़ करते हैं। इन बीस लाख के आसपास डॉक्टरों में से तक़रीबन 16 लाख ही सक्रिय हैं। यानी तकनीकी तौर पर डेढ़ हज़ार की आबादी के लिए एक डॉक्टर है और पौने बीस हज़ार की आबादी पर एक अस्पतालनुमा इकाई। आठ सौ की आबादी पर एक बिस्तर है और 29 हज़ार के लिए एक वेंटिलेटर। अब यह मत कहिए कि 67 बरस में क्या हुआ? क्योंकि इसका 99 फ़ीसदी 67 साल में ही हुआ है। इन सात साल के तो आंकड़े अगर बताऊंगा तो आप छाती पीट-पीट कर प्राण दे देंगे।

नरेंद्र भाई मोदी देश को यह क्यों नहीं बताते कि उन्होंने ढोल-मजीरे बजा कर विश्व की जिस सबसे बड़ी आयुष्मान-भारत योजना का ऐलान ‘मोदी केयर’ कह कर किया था, उसका क्या हाल है? वे हमें बताएं कि निजी अस्पताल इसे क्यों नहीं लागू कर रहे हैं? मैक्स, फोर्टिस और मेदांता जैसी निजी स्वास्थ्य सेवा श्रंखलाओं से इस पर अमल कराने के लिए सरकार ने क्या किया? अब तक सिर्फ़ 23 हज़ार अस्पतालों ने ही अपने को आयुष्मान में क्यों पंजीकृत किया है? इनमें से भी आधे से ज़्यादा तो सरकारी हैं। दो हज़ार से ज़्यादा निजी मल्टीस्पेशलिटी अस्पतालों में से सिर्फ़ बीस ही इसमें क्यों हिस्सा ले रहे हैं, सो भी अनमने होकर। 85 प्रतिशत भारतीय तो अब भी अपने इलाज़ का खर्च निजी तौर पर उठाते हैं। सरकार उनके लिए है ही कहां?

निजी अस्पताल तो मेडिकल टूरिज़्म के धंधे में लगे हैं। यह अकेला ही साढ़े चार अरब रुपए सालाना का कारोबार है। एशिया, खाड़ी और अफ़्रीका के धनाढ्य मरीज़ों से ये अस्पताल भरे रहते हैं। ख़ास-ख़ास अस्पतालों को सिर्फ़ मशहूर हस्तियों का इलाज़ करना पसंद है। मनचाहे पैसे और अस्पताल को शोहरत अलग से। कोरोना की वज़ह से इस धंधे पर जो चोट लगी है, उसकी भरपाई महामारी से त्रस्त मरीज़ों की लूट से हो रही है। मोशा-दल के अलावा किसे नहीं मालूम कि निजी मेडिकल-माफ़िया किस तरह के गिद्ध-कर्म में लगा हुआ है? इस सबसे भी जो प्रधानमंत्री आंखें फेर ले, उसे जिन्हें देवता मानना हो मानें। मैं तो मनुष्य होने का परिभाषा भी शब्दकोष में दोबारा ढूंढ रहा हूं। (लेखक न्यूज़-व्यूज इंडिया के संपादक हैं।)

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