Thursday, December 4, 2014

एक थे श्री चाचा

एक थे श्री चाचा। लंबे-चैड़े। सवा छह फुट के। गर्मियों की छुट्टी में मुझे गाॅव भेज दिया जाता था। श्री चाचा ही क्या, गाॅव में सभी सुबह चार-साढ़े चार बजे उठ जाया करते थे। मैं भी उठ जाता था। घर के बाहर ही नीम का पेड़ था। श्री चाचा दो-तीन दिनों की दतौन तोड़ कर पहले ही तैयार रखते थे। सुबह-सुबह एक हाथ में पकड़ा देते और सचमुच आज के ब्रश में वह मज़ा नहीं है, जो उस दतौन में होता था। फिर मंदिर वाले कुएं पर ले जाते। सरसों के तेल की मालिश खुद करनी होती थी, दंड-बैठक लगवाते, मुद्गर घुमवाते और नहाने के बाद पूजा कर हम लौटते थे। तब तक अम्मा यानी दादी कांसे के बेले में दूध में रोटी मसल कर तैयार रखती थी। एक गिलास दूध अलग से भी पीना पड़ता था। तब तक श्री चाचा बापू जी की घोड़ी चुरा लाते थे। बापू जी मेरे ताऊ थे। वे दूर-दूर होने वाली पैंठ-पशु मेले-में घोड़ियों की तलाश में जाया करते थे। घोड़ी ख़रीद लाते, उसे नृत्य करना सिखाते और फिर ज़्यादा कीमत में बेच देते। सो, मेरे बचपन में श्री चाचा ने मुझे घुड़सवारी के सारे गुर बापूजी की घोड़ियां दो-दो-चार-चार घंटे के लिए चुरा कर सिखाए। वे एक ऐड़ लगाते तो, जिसे मुहावरे में कहते हैं कि, घोड़ी हवा से बातें करने लगती थी। दोपहर बाद गाॅव के कई चाचा-ताऊ-बाबा घर के बाहरी दलिहान में आ जुटते। हुक्का गुड़गुड़ाया जाता, भांग घुटती और चिलम की लौ की लंबाई की होड़ होती। जिसे जो पसंद। चिलम की लौ में मैं ने श्री चाचा से जीतते किसी को नहीं देखा। रामेश्वर ताऊ को भी नहीं, जिन्हें इस विद्या का उस्ताद माना जाता था और अक्सर यही होता था कि वे खिसियाते हुए उस दिन अपनी तबीयत नासाज़ होने का बहाना किया करते थे। अंधेरा सिमटने लगता तो श्री चाचा मुझे अपने कंधे पर बैठा कर लंबे-लंबे डग भरते हुए गाॅव के भ्रमण पर निकल जाते थे। तब तक हम रात का भोजन कर चुके होते थे। गाॅव बहुत छोटा था, लेकिन उसका भूगोल मेरे लिए भूल-भुलैया था। मगर श्री चाचा का पांव कभी इधर से उधर नहीं पड़ता था। कोई नाली, कोई पत्थर, उन्हें डगमग नहीं करता था। उनके कंधे पर बैठा मैं उनके इस करिश्मे पर हैरत में रहा करता था। अपनी बंडी की जेब से सिक्के निकाल कर वे चिमनी की रोशनी में टिमटिमाती छोटी-सी दुकान से बुढ़िया के बाल या ऐसी ही कोई मिठाई दिलाया करते थे। रात आठ बजते-बजते सब सोने लगते थे। आज की निशाचरी दुनिया में यह सोच कर अजीब लगता है कि गाॅव में रात को बारह बजे तो भूतों के आने का समय हो जाता था। श्री चाचा अब दूसरे संसार में हैं और इस संसार में मेरी स्मृतियों में उनकी जीवटता, उनके खिलंदड़ेपन, उनके साहस और परिवार के लिए उनके जीवनदानी-भाव की तस्वीरें हैं। 

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