एक थीं गिज़ीमामा। हंगरी की राजधानी बुदापेष्त में महीनों गिज़ीमामा ने एक से बढ़ कर एक लजीज़ चीजे़ बना कर खिलाईं। 32 साल पहले की बात है। दुनिया भर के कई हिस्सों से अपने-अपने देषों के पत्राकार संगठनों का प्रतिनिधित्व करते हम क़रीब डेढ़ दर्जन लोग छह महीने पूर्वी यूरोप में रहे। सब 23-24 बरस की उम्र के थे। सब खाने-पीने के षौकीन। अपने कमरों से लगी गैलरी में बीयर की बोतल रख देते थे तो घंटे भर से भी कम वक़्त में वह चिल्ड हो जाती थी। बाहर पड़ती बर्फ़ और भीतर कमरों में चलती गर्म बहसों के बीच एक नई विष्व-व्यवस्था के निर्माण में अपनी गिलहरी-भूमिका का सपना लेकर हम सब अपने-अपने देष लौट गए। गिज़ीमामा से विदाई लेते समय लड़कियां तो बाक़ायदा ऐसे रोईं कि मायके से जा रही हों और हम सब, जो तब लड़के थे, भी भीगा मन लेकर वापस आए। आने वाले कुछ बरस आपस में सबकी ख़तो-क़िताबत चलती रही। मैं संसद मार्ग के डाकघर से रंग-बिरंगे संग्रहणीय डाक-टिकट लाता और सबको चिट्ठियां भेजता। गिज़ीमामा के भी जवाब आते। फिर ज़िंदगी की आपा-धापी में सब कब छूट गया, पता ही नहीं चला। अब कौन कहां है, कौन जाने! तीन दषक में दुनिया घूमी। कहां-कहां नहीं गया, लेकिन जो यादें हंगरी ने दी हैं, उन जैसी भीनी ख़ुषबू किसी और देष की यादों में नहीं।
Thursday, December 4, 2014
एक थीं गिज़ीमामा
Posted by Pankaj Sharma at Thursday, December 04, 2014
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