Thursday, December 4, 2014

नहीं क्या?

मेरे बच्चे बेर तलाशते कभी झाड़ियों में नहीं घूमे। तितलियों को पकड़ने के लिए उनके पीछे नहीं भागे। जुगनू भी उन्होंने बहुत बाद में देखे। खेत से उखाड़ कर मेड़ पर बैठ कर गन्ना उन्होंने नहीं खाया। रस पका कर गर्मा-गर्म बनते गुड का स्वाद वे नहीं जानते। खेत से होले तोड़ कर वहीं आग पर भून कर उन्होंने नहीं खाए। बथुआ बीनने का तो सवाल ही कहां पैदा होता? भाड़ पर गर्म रेत में चने और मक्का भुनाने वे कभी नहीं गए। आम के बगीचे में घुस कर पेड़ पर चढ़ कर आम तोड़ कर खाने का मौक़ा उन्हें नहीं मिला। बैलगाड़ी में वे नहीं बैठे। गाय-भैंस के लिए नांद में सानी तैयार करना उन्होंने नहीं देखा। पोखर से मिट्टी ला कर घर की दीवारें लेपना और छत पर फूस बिछाना वे क्या जानें! उनका बचपन भारी बस्ता पीठ पर लादे स्कूल जाने-आने में, होम वर्क करने में और बाबा ब्लैक शीप गाने में गुज़र गया। उनकी किशोर वय काॅलेजों की होड़-दौड़ में बीत गई। अब वे कारोबारी जगत के दंद-फंद के अनुभव ले रहे हैं। व्हाट्स ऐप और इंस्टाग्राम की दुनिया के बाशिंदे हैं। डोंट बी सेंटी उनका मंत्र वाक्य है। खुद में ख़ुश हैं। उन्हें देख-देख कर हम भी ख़ुश है कि वे आज की दुनिया के क़ाबिल बन रहे हैं। उनकी मुट्ठी में बहुत कुछ है। लेकिन बहुत कुछ उनकी मुट्ठी से सरक भी गया है। नहीं क्या?

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