Saturday, August 5, 2017

और भी लोग थे, जो ख़ुद को ख़ुदा कहते थे


कर्नाटक के मंत्री डी.के. शिवकुमार के चौंसठ ठिकानों पर मारे गए छापों का गुजरात के राज्यसभा चुनावों से क्या लेना-देना? अर्द्धसैनिक बलों के साथ आयकर अधिकारी बंगलूर की सैरगाह में कोई कांग्रेसी विधायकों को धमकाने थोड़े ही गए थे। वे तो कर-चोरों का पीछा करते हुए वहां पहुंचे थे। वाह! इस मासूमियत पर कौन न मर जाए ऐ खुदा! अब अगले सप्ताह उस गुजरात में; जो मोहनदास करमचंद गांधी का कम, नरेंद्र भाई दामोदर दास मोदी का ज़्यादा है; राज्यसभा के तीन उम्मीदवार चुने जाने हैं तो क्या आयकर-लोक के देवता अपने यज्ञ बंद कर दें? अगर अमित भाई अनिल चंद्र शाह और स्मृति जु़बिन ईरानी इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के नुमाइंदे न होते तो भी बात और थी। लेकिन जब देश की दरोगाई कर रहे राजनीतिक दल के दशाननी-मुकुट में जड़ा एक से बढ़ कर एक रत्न मैदान में हो तो चोर-सिपाही का खेल खेलने के लिए इससे मौजूं वक़्त भला और क्या होता? और, आप हैं कि फिर भी राई-पर्वत के खेल में लगे हैं!
मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि कांग्रेस के अहमद भाई मुहम्मद इशाक जी पटेल अगले हफ़्ते गुजरात से राज्यसभा में पहुंचते हैं या नहीं। क्योंकि, मेरे हिसाब से तो वे उसी दिन जीत गए, जिस दिन उन्हें नहीं जीतने देने के लिए वस्त्रहीन होने की होड़ ने पहली अंगड़ाई ली थी। तब से चल रही सियासी-कैबरे की नृत्य-मुद्राओं ने अब बाकी छोड़ा ही क्या है? अभी जो इस पर-पीड़क गुदगुदी से छनछना रहे हैं कि अहमद पटेल की हार सोनिया गांधी की पराजय होगी, क्या वे इतना सब कर लेने के बावजूद उनकी जीत का सेहरा सोनिया के सिर बांधने जाएंगे? अहमद भाई के तिलक की रोली बाद में तैयार करूंगा, मगर राज-दुलारे अमित भाई और स्मृति बहन के माथे पर तो मैं जीत का टीका अभी से लगाता हूं। यह टीका जनतांत्रिक आचरण की उस चिता की राख का है, जिसे मुखाग्नि देने वालों की आंखें किसी भी बात पर कभी गीली नहीं होतीं।
लेकिन मैं कहां-कहां अपनी आंखों पर हाथ रखता फिरूं! मेरे जैसे तमाम लोग ज़ुबान खोलने का मतलब अच्छी तरह जानते हैं। लेकिन फिर भी वे उधर नहीं जाते, जिधर सब जाते हैं। भारत-माता की छाती पर मूंग दलती एक भीड़ रातों को दिन कहती घूम रही है। इस भीड़ में बहुत-से शामिल हैं। इस भीड़ में बहुत-से शामिल नहीं हैं। इस भीड़ में जो भी शामिल हैं, उनके कर्म इतिहास का चित्रगुप्त भारी मन से दर्ज़ कर रहा है। अपने मन की बात वह भी एक दिन तो कहेगा ही। नक़ाबों की तहें खोलने के अपने कर्तव्य से इतिहास भला कभी डिगता है? बहुमत के साथ होना एक बात है। मगर भीड़ के उन्माद के साथ होना एकदम दूसरी बात। जिन्हें आज यह फ़र्क करना नहीं आता है, प्रभु उन्हें सद्बुद्धि दे। लेकिन जो जानबूझ कर यह फ़र्क करना नहीं चाहते, वे आख़िर कब तक अपना किया भोगने से बचेंगे?
यह किसी व्यक्ति-विशेष की जीत-हार का नहीं, राजनीतिक-सामाजिक आचरण के बुनियादी शिष्टाचार के शील-हरण का सवाल है। कौन कहता है कि चोरों का पीछा मत करो? लेकिन दिल पर हाथ रख कर यह जवाब भी तो देना होगा कि क्या सचमुच चोरों का पीछा किया जा रहा है? पिछले दरवाज़े से चोरों को परदेस भगाने वालों का पीछा कौन करेगा? गेंद-बल्ले की जुगलबंदी से झर रहे सिक्कों की सट्टेबाज़ी के शंहशाहों का पीछा कौन करेगा? दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेने की हवस में फनफनाते दौड़ने वालों का पीछा कौन करेगा? अपनी कलुषित तंत्र-क्रियाओं के लिए जनतंत्र की देवी की चुटिया काटने वालों का पीछा कौन करेगा? नाहक पराक्रम दिखाने को राजनीति का सबसे बड़ा गुण मानने वाले आख़िर पड़े किसके पीछे हैं? किसी की शक़्ल के? या खुद की अक़्ल के?
सृष्टि की व्यवस्था ही ऐसी है कि वह दब्बूपन के लिए कभी किसी को माफ़ नहीं करती है। आज के भगोड़ों को भी वह कैसे माफ़ करेगी? जब-जब हम साहस नहीं करेंगे, तब-तब इतिहास में धिक्कारे जाएंगे। अपनी क़लम की स्याही की कीमत ले कर नया इतिहास लिखने में रमे हमारे आज के क़लमकारों की संतानें कल अपने जन्मदाताओं के लिखे पर कालिख पोतेंगी। जो आज हमें दिखा रहे हैं कि सब-कुछ ठीक-ठाक है, आने वाली पीढ़ियों की आंखें उनके गढ़े दृश्यों को देख कर अंगारे बन जाएंगी। पतवारें जब नाव को धोखा दे रही हों तो हाथ-पर-हाथ धरे बैठों को क्षमा-दान कौन देगा?
बालू पर आशाएं लिख कर हस्तिनापुर हथियाने वालों को मालूम होना चाहिए कि हिंदुस्तान अहमद पटेल से बड़ा है। हिंदुस्तान अमित शाह और स्मृति ईरानी से तो और भी बहुत बड़ा है। राज्यसभा के लिए इस-उस तरफ़ से इनकी नुमाइंदगी जनतांत्रिक मर्यादाओं से बड़ी नहीं है। इसलिए सब-कुछ हड़पने की होड़ में लुढ़कन की अंतिम हद तक तक गिर पड़ने की ऐसी भी क्या इंतिहा करना? गुजरात से राज्यसभा का फ़ैसला तो अगले हफ्ते हो जाएगा, मगर ये जो नज़ीरें आज क़ायम हो रही हैं, पता नहीं कितनी दूरी तय करें? जो आज डाल-डाल हैं, वे कल दूसरों को पात-पात होने से भला कैसे रोक पाएंगे? यह कल कितना ही दूर सही, आए बिना तो रहेगा नहीं। तो क्या भारतवासी पतन-गान सुनते रहने को ही अभिशप्त रहेंगे?
मोहन भागवत को जवानों की जवानी जाने से पहले हिंदू-राष्ट्र की स्थापना करनी है। पितृ-संगठन की विभिन्न भुजाओं को अगले आम-चुनाव की पूर्व-संध्या तक राम मंदिर की नींव रखनी है। अमित शाह को 2019 आते-आते बाकी के राज्यों पर येन-केन-प्रकारेण कब्ज़ा करना है। इन सबको मिल कर भारत को जल्दी-से-जल्दी विश्व-गुरु बनाना है। ऐसे में बाकी सब करें तो क्या करें? हमारे रोज़ के सिलसिले मध्य-काल से बेहतर नहीं हो पा रहे। मुल्क़ की ज़मीनी असलियत यह है कि कई और राज्यों के बाद अब योगी आदित्यनाथ को भी उत्तर प्रदेश में निशुल्क रसोइयां खोलने की ज़रूरत महसूस हो रही है ताकि बेचारा ग़रीब दिन में कम-से-कम एक वक़्त तो अपना पेट भर सके। देश भर में लाखों महिलाओं को आज भी आयरन की चंद गोलियों के लिए लंबी कतारों में खड़ा रहना पड़ता है। और, ऐसे में हमारी लोकतांत्रिक प्राथमिकताएं क्या हैं? हमारी प्राथमिकता है दूसरों को नीचा दिखाने की दौड़ में नीचे ही नीचे गिरते जाना। गुजरात-प्रसंग ने इसे अंतिम बिंदु तक पहुंचा दिया है। इस प्रसंग का प्रतीकात्मक महत्व समझने से इनकार करना आत्मघाती होगा।

हम इतने बेचारे क्यों होते जा रहे हैं कि जो होता है, सह लेते हैं? अपनी इस बेचारगी पर हमें तरस आना चाहिए। इतना तरस कि या तो हम डूब कर मर जाएं या फिर तैर कर पार जाएं। क्या इस उफनती नदी के पार जाना इतना मुश्क़िल है? क्या लट्ठमारों से पार पाना सचमुच नामुमकिन है? इस उधेड़बुन में मेरे इंदौर के शायर राहत इंदौरी शायद आपको राहत दें। वे कहते हैं: ‘‘लू भी चलती थी तो बाद-ए-सबा कहते थे, पांव फैले अंधेरों को ज़िया कहते थे; उनका अंजाम तुम्हें याद नहीं है शायद, और भी लोग थे जो खुद को खुदा कहते थे’’। राहत की मासूम आस्था पर मैं निसार हूं। लेकिन यह भी जानता हूं कि आबो-हवा बदलने के लिए गीत को अपनी पंक्तियों से बाहर आना पड़ता है। सिर्फ़ तरानों से अगर बात बन जाती तो आदि-कवि वाल्मीकि के बाद ही ज़माना बदल गया होता। यह समय आसानी से नहीं बदलेगा। इसे बदलने के लिए जो ताब चाहिए, उसकी बुआई कोई घर बैठे नहीं हो जाएगी। 

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