Saturday, August 19, 2017

जय(श्री)राम रमेश और भारत का लोक-गीत


पहले मैं सोचा करता था कि अगर आप बचपन में किसी सेंट ज़ेवियर्स स्कूल में पढ़े हों और आपकी तरुणाई किसी आई. आई. टी. में, पेन्सिलवानिया के कार्नेगी मेलॉन विश्वविद्यालय और मैसाच्यूट्स इंस्टीटृयूट ऑफ टेक्नालॉजी में पढ़ाई करते बीती हो, तो यह तो हो सकता है कि आप ज़मीन से ज़रा कटे हुए हों, मगर आमतौर पर समझदार ही होंगे। लेकिन इस हफ़्ते की शुरुआत में जब ‘लोक-नायक’ जय(श्री)राम रमेश ने देश को बताया कि कांग्रेस पार्टी का अस्तित्व अपनी क़ब्र में पैर लटकाए पड़ा है तो मेरी यह सोच चूर-चूर हो गई। इतना तो मैं भी जानता हूं कि कांग्रेस एक मुश्क़िल दौर से गुज़र रही है, इतना भी मैं जानता हूं कि मुझ जैसे लोग जय(श्री)राम की अक़्ल, दख़ल, प्रतिभा और योग्यता के मामले में दूर-दूर तक कहीं नहीं टिकते हैं, लेकिन फिर भी उनकी बुद्धि की ताज़ा छलकाहट मेरे गले से नीचे नहीं उतर पा रही।
जय(श्री)राम कोई मामूली कांग्रेसी नहीं हैं। 13 साल से वे राज्यसभा में हैं और अभी कम-से-कम पांच साल और रहेंगे। 2004 में पहली बार राज्यसभा में जयराम रमेश आए तो देश में आठ बरस के अंतराल के बाद कांग्रेस की अगुआई में यूपीए की पहली सरकार भी बन रही थी। जयराम को तब सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में अहम ज़िम्मेदारी दी गई। दो साल बाद उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल में ले लिया गया और क़रीब आठ साल तक वे वाणिज्य, उद्योग, ऊर्जा, पर्यावरण, वन, ग्रामीण विकास और पेयजल जैसे बड़े-बड़े मंत्रालय देखते रहे। इस बीच लोकसभा और विधानसभाओं के जितने भी चुनाव हुए, वे प्रमुख रणनीतिकारों में से एक रहे।
2004 से 2014 के बीच मुझे एक भी दिन ऐसा याद नहीं है, जब हमारे जय(श्री)राम को सरकार और संगठन की ऐसी तमाम शाखों पर फुदकने का भरपूर मौक़ा न मिला हो, जो बेहद मायने रखती थीं। केंद्र से सरकार की विदाई के बाद भी कांग्रेस जयराम को, आंध्रप्रदेश से नहीं, तो कर्नाटक से ही सही, पिछले साल की गर्मियों में, तीसरी बार राज्यसभा में ले आई। जून-2016 तक जयराम को शायद ही कभी कांग्रेस का अस्तित्व इस तरह खतरे में नज़र आया हो। लेकिन अब कांग्रेस की फक्र में वे इतने व्याकुल हो गए हैं कि खुलेआम बिगुल लिए घूम रहे हैं। जय(श्री)राम को लग रहा है कि कांग्रेस में उनका योगदान इतना ज़्यादा हो गया है कि उन्हें सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह, ए़. के. एंटोनी, अहमद पटेल, मोतीलाल वोरा, कमलनाथ, गुलाम नबी आज़ाद, शीला दीक्षित, मोहसिना किदवई, अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह और ऐसे ही तमाम चेहरों से भी ज़्यादा चिंतित होने का हक़ है।
 अपने राजनीतिक-प्राणों की कीमत पर क्या जयराम से मैं यह पूछने का दुस्साहस करूं कि 13 साल में उन्होंने ऐसा कुछ क्यों नहीं किया कि आज उन्हें अपनी ही पार्टी की तेरहवीं के आसार इस तरह न डरा रहे होते? जयराम को कांग्रेस के सामने का संकट चुनावी-संकट नहीं, अस्तित्व का संकट लग रहा है। उन्हें कांग्रेस के मूल्यों और परंपराओं में पुरानेपन की बू आने लगी है। जय(श्री)राम चाहते हैं कि कांग्रेस अपनी प्रतिबद्धता के प्राचीन मंत्रों को भूले और लचीली हो जाए। उनका कहना है कि अगर कांग्रेस ऐसा नहीं करेगी तो उसका अस्तित्व मिट जाएगा।
मैं इसमें जयराम को इसलिए दोषी नहीं मानता हूं कि मैं जानता हूं कि एक ज़माने में वे महात्मा गांधी को आधुनिकता-विरोधी और विज्ञान-विरोधी मानते रहे हैं। उन्हें यह बात भीतर तक सालती थी कि गांधी पश्चिम-विरोधी थे। सो, गांधी की कांग्रेस का बीज-मंत्र अगर आज जय(श्री)राम बदलने की सलाह दे रहे हैं तो कम-से-कम मुझे तो कोई हैरत नहीं है। कांग्रेस की वैचारिक-राह को लचीला कर आखि़र उसे वह किस दिशा में मोड़ना चाहते हैं?
पढ़ाई पूरी करते ही जयराम रमेश ने जिस पहली घुट्टी का पान किया था, वह वर्ल्ड बैंक की बोतल से निकली थी। इसके फ़ौरन बाद, अब से 38 साल पहले वे भारत लौटे। तब अर्थशास्त्री लवराज कुमार औद्योगिक लागत एवं मूल्य ब्यूरो में थे। जयराम उनके सहायक बन गए। फिर जब आबिद हुसैन योजना आयोग में थे तो जयराम उनके सलाहकार हो गए। राजीव गांधी की आस्तीन से छिटक कर अलग होने के बाद जब बाईं तरफ़ से वाम दलों और दाईं तरफ़ से भारतीय जनता पार्टी की मदद ले कर विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बन गए तो जय(श्री)राम रमेश प्रधानमंत्री कार्यालय में विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी (ओएसडी) बन कर बैठ गए।
राजीव गांधी की श्रीपेरुंबुदूर में हुई त्रासद-अलविदाई के बाद पामुलपर्ति वेंकट नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने तो शुरुआती दिनों में जयराम फिर ओएसडी के तौर पर प्रधानमंत्री के दफ़्तर में बैठते थे। लेकिन कुछ ही हफ़्तों बाद वे वहां से विदा हो गए और मनमोहन सिंह का वित मंत्रालय उनका अगला ठिकाना बना। बीच-बीच में जयराम आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की राज्य-सरकारों की सेवा भी करते रहे। राज्यसभा में पहली बार भेजे जाने के कोई चार साल पहले वे कांग्रेस पार्टी के राष्टीªय सचिव बनाए गए थे। जयराम की यह राजनीतिक जीवन-गाथा पढ़ कर अगर आप भी यह सोच कर अपना सिर खुजा रहे हैं कि उनके जैसे मूर्धन्य व्यक्तित्वों की बरस-दर-बरस मौजूदगी के बावजूद कांग्रेस के अस्तित्व पर आज इतना भारी संकट कैसे आन पड़ा तो मैं भी आपके साथ हूं।
सल्तनत चली जाने के बाद भी सुल्तान की तरह व्यवहार करने वाले जयराम की आंखों में चुभ रहे हैं। लेकिन मेरी आंखों में तो सल्तनत रहते हुए सुल्तान की तरह ऐंठे रहने वाले भी इतना ही चुभते थे। उस दौर के शह-सवार तब अपने घोड़ों से कभी-कभी नीचे उतरे होते तो 2014 में कांग्रेस 44 पर क्यों पहुंचती? सोनिया-राहुल तो तब भी गांव-गांव घूम रहे थे। फिर वे कौन थे, जो इसलिए अपने पैर ज़मीन पर नहीं रखते थे कि कहीं वे मैले न हो जाएं! दस साल में दस बार भी जिन्होंने आम-जन के लिए, अपने घर तो छोड़िए, दफ़्तर तक के, दरवाज़े नहीं खोले, वे आज भोंपू ले कर कांग्रेस के तिरोहित होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। ये वे लोग हैं, जो दसियों बरस अपनी-अपनी मीडिया-मंडलियों में बैठ कर कांग्रेस संगठन के नेतृत्व और उप-नेतृत्व को तरह-तरह के मज़ाकिया-खि़ताब देते रहे। ये वे ही लोग हैं, जिनके दरवाज़े आज भी अपने-अपने महफ़िलबाज़ों के अलावा बाकी सबके लिए बंद हैं। इनका वश चलता तो ये कांग्रेस का फ़ातिहा 2009 के चुनाव में ही पढ़ देते।

 जय(श्री)राम थोड़ा गच्चा खा गए। अगर अपना छलकना वे एकाध दिन थाम लेते तो गुजरात राज्यसभा चुनावों के नतीजे उनका संबल बन जाते। तब नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह के ‘कांग्रेस-मुक्त भारत‘ की गड़गड़ाहट से जन्मी उनकी घबराहट इस हाय-तौबा से उन्हें बचा लेती। कांग्रेस के अस्तित्व पर कोई संकट न था, न है। जो यह कहते हैं, उन्हें कभी इतनी फु़र्सत ही नहीं मिली कि देश के हर गांव की मेड़ पर उगे कांग्रेसी पेड़ों को देख पाते। जो जीवन भर पौधों की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करते रहे, उनके हाथ अब कुछ नया कैसे रचेंगे? अपने डिस्को का तेज़ संगीत कइयों को यह एहसास ही नहीं होने दे रहा है कि कांग्रेस तो भारत का चिरंतन लोक-गीत है। उसकी पारंपरिक रचना ही ऐसी है कि उसका अस्तित्व कभी ख़त्म नहीं होगा। 

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