मई 2014 में नरेंद्र मोदी के चलते कांग्रेस की जो सियासी-गत बनी, उससे मेरा गाल तो अभी तक झन्ना रहा है। लेकिन तब भी मैं आपको खम ठोक कर यह बताना चाहता हूं कि कांग्रेस के लिए हालात बेहद सुर्ख़रू हैं। जिन्होंने 1977-99 के बीच का कांग्रेसी-दौर देखा है, उनके दिल से पूछिए कि खा़कनशीन होना किसे कहते हैं? 2014 की 44 की तुलना में 34 साल पहल ’77 में, उत्तर भारत में घनघोर पराजय के बावजूद, कांग्रेस को मिल तो 189 सीटें गई थीं, लेकिन पार्टी के लिए संघर्ष आज से कहीं बहुत बड़ा था। आज, बावजूद इसके कि मोदी-सरकार कांग्रेस कांग्रेस, विपक्ष-मुक्त भारत की स्थापना के लिए अपने तरकश का हर तीर कमान पर चढ़ाए बैठी है, कम-से-कम कांग्रेस के शिखर-नेतृत्व को अपने बाल-बच्चों से यह नहीं कहना पड़ रहा है कि घर में रात बिताना उनके लिए महफू़ज़ नहीं है, सो, वे अपने दोस्तों के घर रात गुज़ारें। ’
77 में तो इंदिरा गांधी ने राजीव-सोनिया-प्रियंका-राहुल को 20 मार्च की रात बिताने के लिए इसलिए 12-विलिंगडन क्रीसेंट से बाहर भेजा था कि ख़बरें आ रही थीं कि चुनाव नतीजों के बाद भीड़ भेज कर परिवार को नुक़सान पहुंचाया जा सकता है।
इंदिरा जी अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के साथ 17 साल प्रधानमंत्री-निवास में रहने और खुद 11 साल प्रधानमंत्री की गद्दी पर बैठने के बाद बेदखल हुई थीं। 28 बरस की सत्तानशीनी के बाद एकाएक अपने को पथरीली धरती पर पाना अच्छे-अच्छों के हौसले गुम करने को काफी है। इंदिरा जी अगर स्वाधीनता संग्राम की उपज न होतीं तो कांग्रेस को उस दौर के चक्रवात से बाहर ला पाना उनके लिए पता नहीं कितना संभव होता? कांग्रेस उस अंधी सुरंग से बाहर आ पाई तो इसलिए कि इंदिरा जी ने किसी भी हाल में हार नहीं मानी। शाह आयोग के ज़रिए हो रही अर्द्ध-नग्न बेताल-पच्चीसी से वे जम कर निपटीं।
क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि उस दौर में इंदिरा गांधी पर मणिपुर की अदालत में यह मुकदमा तक चला कि उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए चार मुर्गियां और दो अंडे चुराए थे! मोरारजी भाई ने उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया, मगर वे सिर तान कर खड़ी रहीं।
आज की कांग्रेस के सामने तो एक अदद नरेंद्र मोदी, एक अदद अमित शाह और एक अदद भारतीय जनता पार्टी ही हैं। कांग्रेस का मुक़ाबला आज सिर्फ़ दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों से है। वाम, समाजवादी और सेकुलर शक्तियां मौजूदा शासन और उसके हथकंडों के खि़लाफ़ खुल कर कांग्रेस के साथ मैदान में हैं। इंदिरा गांधी को तो जनसंघ जैसी घोर दक्षिणपंथी ताक़त के साथ-साथ समाजवाद के पुरोधा माने जाने वाले जयप्रकाश नारायण, चरण सिंह, जगजीवन राम, राजनारायण, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडिस और मधु लिमये जैसे दिग्गजों से भी निपटना पड़ा था। उनके सामने अटल बिहारी वाजपेयी जैसे प्रखर लोग थे। आज के मोदी और शाह तेजस्विता और साख में वाजपेयी का पासंग भी नहीं हैं।
आज की कांग्रेस सोनिया-राहुल के पीछे एकजुट खड़ी है। ’77 में बाद इंदिरा गांधी ने तो ऐसे-ऐसे चेहरों को रंग बदलते देखा था, जो उनके कसीदे पढ़ते न अघाते थे। देवकांत बरुआ और सिद्धार्थ शंकर राय जैसों ने अपनी बर्छियां खुल कर निकाल ली थीं। प्रत्यक्ष निशाने पर संजय गांधी थे, लेकिन शंतरंज की ढाई चाल इंदिरा जी की तरफ़ ही जा रही थी। कमलापति त्रिपाठी और यशवंत राव चह्वाण को मन-मन यह सब भा रहा था। उस साल मई की शुरुआत में जब कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ तो ब्रह्मानंद रेड्डी, सिद्धार्थ शंकर राय और डॉ. कर्ण सिंह के भीतर इस कुर्सी के लड्डू फूटते किस ने नहीं देखे थे?
आज तो दो महीने बाद होने वाले पार्टी-संगठन के चुनाव में राहुल गांधी निर्विरोध अजेय हैं। कांग्रेस को भीतर से कोई खतरा है नहीं। बाहरी खतरे का सामना करने के लिए लालू प्रसाद यादव, मायावती, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और शरद यादव से लेकर वाम मोर्चा तक सब उसके साथ हैं।
मोदी-शाह की भाजपा का हाल यह है कि शिवसेना और अकाली दल भी अपना मन मसोस रहे हैं। कुछ दूसरे सहयोगी दल भी संघ-परिवार के साम्राज्य-विस्तार की हवस की मार से छटपटा रहे हैं। आर्थिक मोर्चे पर मोदी-सरकार की नाकामियां खुल कर सामने आ गई हैं। मोदी के अजगरी-ख़्वाबों ने जिन लाखों नौकरियों को लील लिया है, उसकी आंच बेरोज़गार नौजवानों को परेशान करने लगी है। बढ़ती कीमतों का चाबुक ग़रीब और मध्यमवर्ग की पीठ पर सपाक-सपाक बरस रहा है। वे अपने बंधे हाथों को प्रतिकार के लिए खोलने की कशमकश के अंतिम छोर पर खड़े हैं।
’77 से ’79 के बीच का डेढ़ बरस ऐसे तमाम पन्नों का ग़वाह है, जब शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब इंदिरा जी देश में कहीं जाएं और उनकी कार पर जानलेवा पथराव न होता हो। मगर तब भी उन्हें न तो कोई बेलछी जाने से रोक पाया और न गुजरात के आदिवासी इलाक़ों में जाने से। हर प्रदेश में इंदिरा जी के लिए अपनी जान पर खेल जाने वाले कांग्रेसजन की इसलिए कभी कमी नहीं हुई कि खुद इंदिरा जी हर रोज़ अपनी जान से खेलती रहीं। संघ-कुनबे ने राहुल गांधी की कार पर पथराव करने की शुरुआत कर के परीक्षण-गुब्बारा उड़ाया है। यही वक़्त है कि इन पत्थरबाज़ों को राहुल ताल ठोक कर जवाब दें। मरजीवड़ों की एक फ़ौज उनके पीछे खड़ी हो जाएगी।
’77 के बाद एक बरस बीतते-बीतते इंदिरा गांधी की कांग्रेस ने उत्तर-भारत में अपनी वापसी का मज़बूत संकेत दे दिया था। 1978 में उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ से हुए लोकसभा उप-चुनाव में कांग्रेस ने मोहसिना किदवई को उम्मीदवार बनाया और प्रचार के अंतिम तीस घंटों में इंदिरा जी ने 24 जनसभाएं संबोधित कर ऐसा तूफ़ान खड़ा किया कि जनता पार्टी के प्रत्याशी रामबचन यादव को जिताने के लिए हफ़्तों से गांव-गांव घूम-घूम रहे आपातकालीन-सितारे अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडिस और राजनारायण की किस्सागोई के परखच्चे उड़ गए। आज़मगढ़ तब चरण सिंह का गढ़ हुआ करता था। लेकिन उनकी बिछाई बिसात भी मतदाताओं ने नकार दी और नतीजा इंदिरा जी के पल्लू में डाल दिया।
इस एक जीत ने कांग्रेस की कुंडली के खानों में तब ग्रहों को नए सिरे से स्थापित करने की शुरुआत कर दी थी। अपनी फ़जीहत की सबसे निचली पायदान पर पड़ी कांग्रेस ने तो इन साढ़े तीन वर्षों में अलग-अलग राज्यों के पंचायत, नगर-निकाय और विधानसभा के चुनाव-उपचुनावों में ठोस जीत हासिल कर चुकी है। तमाम दुरूहताओं के बावजूद लोकसभा का एक उप-चुनाव भी कांग्रेस ने जीता है। इसलिए कोई वजह नहीं कि वह मोदी-शाह की झोली से बार-बार निकल रहे 2019 के हौवे को अपने पर हावी होने दे। इस जुगल-जोड़ी की हल्ला-बोल शैली मानसिक दबाव बनाने भर की रणनीति है।
अगले आम-चुनाव के पहले होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा के बांस उलटे लदवाने की स्थिति में है। मोदी-शाह के गृह-राज्य गुजरात में भाजपा की धमक को नकारने के दौर की शुरुआत ताज़ा राज्यसभा चुनाव नतीजों ने कर दी है। सुनने-पढ़ने में यह बात आज अजीब लग सकती है कि देश के घर-गलियां कांग्रेस के बिना बेतरह सूनापन-सा महसूस करने लगे हैं। लेकिन आप-हम देखेंगे की इस साल की सर्दियां शुरू होते-होते विपक्षी-अलाव के आसपास जमा होने वाली भीड़ सत्तासीनों को ठिठुराने लगेगी।
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