Thursday, November 9, 2017

मशगूल सुल्तान और दीवाली की भस्म-आरती

PANKAJ SHARMA
मुल्क की मरी खाल की हाय त्योहारी दिनों में इस बार जिस तरह सुनाई दी, मुझे नहीं लगता कि किसी ने पहले कभी सुनी हो। पता नहीं, आने वाले दिनों में यह हाय क्या-क्या भस्म करेगी। पिछला एक साल भस्म-वर्ष रहा है। यह जन-भावना भस्म हुई कि हमारा जनतंत्र सर्व-समावेशी है। यह मान्यता भस्म हुई कि हमारा अर्थतंत्र हमें अपने कमाए धन पर अधिकार देता है। अच्छे दिनों की कामना भस्म हुई। यह भरोसा भस्म हुआ कि निराशा के चरम क्षणों में अपने रहनुमा को चुनते वक़्त हम सही ही होते हैं।
जब 11 महीनों में इतना कुछ एक साथ भस्म हो जाए तो आह तो निकलेगी ही। इस आह से हाय भी उपजेगी। हाय जब लगती है तो बलशाली-से-बलशाली भी तबाह हो जाते हैं। अपने जन-बल पर, अपने धन-बल पर, अपने बाहु-बल पर और अपने चतुराई-बल पर इतराने वाले मानव-सभ्यता के हज़ारों साल के इतिहास में बहुत-से आए-गए। उनके किस्सों से सबक सीखने से इनकार करते हुए अभी और भी आएंगे-जाएंगे। 
लेकिन प्रकृति अपने नियमों से चलती है। वह किसी व्यक्ति के बनाए नियमों से नहीं बंधी है। वह किसी विचारधारा के नियमों से भी नहीं बंधी है। हर तरह से लाइलाज़ हो चुके प्राणियों और परिस्थितियों की प्राकृतिक-चिकित्सा का विधान पृथ्वी के सौर-मंडल की बुनियादी संरचना में अंतर्निहित है। जब व्यवस्था-संशोधन के बाकी तमाम उपाय नाकाम होने लगते हैं तो प्रकृति यह ज़िम्मा अपने आप संभाल लेती है।
देश की सियासी-सोच में पिछले एकाध महीने से आया बदलाव देख मुझे लगता है कि अब कुदरत ने खुद अपना काम संभाल लिया है। साढ़े तीन साल से दुबके बैठे लोग एकाएक अपने दालानों से बाहर आ कर खड़े हो गए हैं। उनके चेहरों पर ‘बहुत हो चुका’ का भाव है। उनका दिल ठगा-सा महसूस कर रहा है। अब तक वे क्षुब्ध थे। अब वे गुस्से में हैं। अब तक वे मन मसोस रहे थे। अब वे खुल कर खुद को कोस रहे हैं। यह राजसत्ता के बेआबरू होने का अंतिम अध्याय है। बारह-पंद्रह सौ दिनों में दुआओं के सर्वोच्च शिखर से फिसल कर बद्दुआओं की खंदक में इस तरह गिरते पहले कभी आपने किसी को देखा था! 
ऐसा तब होता है, जब पाप सिर चढ़ कर बोलने लगता है। अपने बारे में कोई भी और फ़ैसला भले ही आप करने का हक़ रखते हों, मगर आपके पाप-पुण्य का फ़ैसला तो वह समाज ही करता है, जिसका आप हिस्सा हैं। यह फ़ैसला करने वाले न्यायमूर्ति-मंडल के संविधान पर कोई भौगोलिक सरहद लागू नहीं होती। यह संविधान तो चिरंतन है। उसकी रचना अमूर्त-शक्ति ने की है। इसलिए उसके नियम शाश्वत हैं। ज़रा-सा भला काम करते वक़्त खुद के पुण्यवान होने की ख़ामख़्याली पाल लेना आम स्वभाव है। लेकिन अपने हाथों जाने-अनजाने हुए पाप आसानी से कहां दिखाई देते हैं? उन्हें तो आपकी आंख में उंगली डाल कर ही दिखाना पड़ता है। इतने पर भी वे अगर आपको दिख जाएं तो बड़ी बात है। और, इसके बाद भी अगर आप उन्हें मान लें तो और बड़ी बात है। लेकिन छोटी बातों में पड़े रहने वाले बड़ी बात क्या जानें? 
भारतीय समाज वास्तविकता में कम, सपने में ज़्यादा जीता है। इसलिए उसे सपने दिखाना आसान है। इन सपनों के पीछे वह कुछ वक़्त दौड़ता भी है। लेकिन वह यह भी जानता है कि जो है, वह सच्चाई है और जो चाहिए, वह सपना है। इसलिए आज जो है, उसकी सच्चाई भारत के जन-मानस की समझ में आ गई है। अपने हुक्मरान के वादों का खोखलापन देश समझ गया है। लोग इतने भी मूर्ख नहीं हैं कि यह न समझें कि जीवन सिर्फ़ सपना ही नहीं होता है। इसलिए आज के सच ने उसे झिंझोड़ कर रख दिया है। खुद का चालीसा सुनने में मशगूल सुल्तान को अब मुल्क़ सच का नगाड़ा सुना रहा है। सियाचिन में सैनिकों के साथ दीवाली मनाने वाले नरेंद्र भाई मोदी को देख कर थिरकना अब लोगों ने बंद कर दिया है। वे इन प्रतीक-आयोजनों से उकता गए हैं। वे समझ गए हैं कि फ़रिश्ता बन कर घूमने वाले कितने फ़रिश्ते हैं। समाज, संस्कृति, राज-काज, अमन-चैन और कारोबार को रौंदने का काम फ़रिश्ते नहीं करते। 
पिछले बरस की सर्दियों के घनघोर दुर्दिनों में भी भारतवासियों के एक वर्ग के मन में कहीं यह भरोसा दबा हुआ था कि उनका राजा जो कर रहा है, अपनी प्रजा के भले के लिए ही कर रहा है। मगर इस बार की दीवाली आते-आते यह विश्वास स्वाहा हो गया। वे भी, जो आज नरेंद्र भाई के किए-कराए को उनकी बदनीयती नहीं मानते हैं, उनके कर्मों को भूल तो बताने ही लगे हैं। इसलिए एक बौखलाहट है। इसलिए राजा के अंतःपुर में एक घबराहट है। इस बौखलाहट और घबराहट का मैं स्वागत करता हूं। भारतीय समाज मूलतः लिहाज़दार है और अपने बड़ों की ग़लतियों को मूर्खता करार देने की चूंकि हमारी परंपरा नहीं है, इसलिए एक पर्दादारी है। देखें, इसे अपनी पगड़ी का तुर्रा समझने वालों की पगड़ी कब तक क़ायम रहती है?
मुझे किसी ने एक छोटी-सी कहानी भेजी। अफ़ी्रकी आदिवासियों के एक गांव में कोई मनोवैज्ञानिक अध्ययन के लिए पहुंचा। उसने एक टोकरी भर कर मिठाइयां और फल एक पेड़ के नीचे रख दिए। आदिवासी बच्चों को सौ मीटर दूर खड़ा कर दिया। कहा कि उसके इशारा करने पर दौड़ कर टोकरी तक पहुंचना है और जो बच्चा सबसे पहले पहुंचेगा, पूरी टोकरी उसकी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने इशारा किया, जानते हैं, बच्चों ने क्या किया? उन्होंने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा और दौड़ कर एक साथ पेड तक पहुंच गए। टोकरी ली और सारी मिठाइयां-फल आपस में बांट लिए। बहुत मर्म-भरी कहानी है। बच्चे तक जानते हैं कि जब दूसरे सब दुःखी हों, कोई एक कैसे खुश रह सकता है? वे जानते हैं कि मैं हूं, क्योंकि हम हैं।

जिन्हें इन बच्चों लायक समझ भी नहीं है, उन पर तरस खाने के सिवा क्या करें? साढ़े तीन साल में हमारे देश की सियासत में ‘मैं’ जितना हावी हुआ, क्या पहले कभी हुआ था? आज देश ‘मुझसे सवाल करते हो?’ की दहाड़ से दहल रहा है। मुझसे? सवाल? यह दर्प क्या आपने पहले कभी देखा था? इस दर्प के भस्म हुए बिना अब कुछ नहीं होगा। इसलिए मुझे यक़ीन है कि दीवाली के त्योहार पर निकली आह अपने असर की राह खुद निकालने चल पड़ी है। यह हाय और कुछ भस्म करे, न करे, सत्ता के इस दर्प को ज़रूर भस्म करके रहेगी। आख़िर दीवाली असत्य पर सत्य के साथ अहंकार पर मर्यादा और शालीनता की विजय का भी तो उत्सव है। इस बार, जैसी रही, सो, रही, अगले साल की दीवाली तक देश का प्रादेशिक भूगोल अपना उजास फैला चुका होगा। आइए, हम वरदान मांगें कि इस बार की दीवाली कोई कभी न भूले ताकि 2019 की दीवाली पर हमारे घर की मुंडेर का दीया फिर हमेशा की तरह मुस्कराए!      (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।)

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