PANKAJ SHARMA
हिमाचल प्रदेश का मैं नहीं जानता, लेकिन गुजरात तो भारतीय जनता पार्टी के हाथ से गया। यह कहने का जोखिम मैं इस तथ्य के बावजूद उठा रहा हूं कि पिछले 27 साल से वहां की 182 सदस्यों वाली विधानसभा में कांग्रेस 33 से 60 सीटों के बीच ही झूल रही है और ऐसे में 92 का राजतिलक-आंकड़ा हासिल करना उसके लिए कोई खाला का खेल नहीं है। मगर दिसंबर के तीसरे सोमवार यह होने जा रहा है।
टेलीविजन के परदों और अख़बारों के पन्नो पर भाजपा गुजरात में भले ही दो तिहाई बहुमत पाती रहे, साबरमती की लहरें उलटी बह रही हैं। उनके भीतर के उफान का जायज़ा लेने से आज कतरा रहे लोग 9 और 14 दिसंबर के मतदान के बाद अपने को हकबकाया पाएंगे। गुजरात जितना धधक रहा है, उसका अंदाज ही किसी को नहीं है। वहां यह मुद्दा ही नहीं है कि कौन जीतेगा। वहां भाजपा--नरेंद्र भाई मोदी और अमित भाई शाह की भाजपा--हार रही है।
गुजरात में कांग्रेस के अच्छे दिन कोई तब थोड़े ही लदे थे, जब 3 अक्टूबर 2001 को नरेंद्र मोदी अपने गुरू केशूभाई पटेल को धक्का दे कर मुख्यमंत्री बने थे। कांग्रेस तो उससे एक दशक पहले आठवीं विधानसभा के लिए हुए चुनावों में ही 33 सीटों पर सिमट गई थी। तब जनता दल के 70 और भाजपा के 67 यानी कुल 137 विधायकों ने मिल कर चिमनभाई पटेल को मुख्यमंत्री बनाया था। 1990 के उस चुनाव से गांधी के गुजरात की सियासत में ऐसी अमावस की शुरुआत हुई कि पूरे दस साल टप्पेबाज़ी होती रही और आठवीं विधानसभा में ही कांग्रेस के छबीलदास मेहता ने मुख्यमंत्री बनने की जादूगरी दिखा दी।
उठापटक के इस दौर में हालत यह हो गई कि 1995 में नौवीं विधानसभा के लिए हुए चुनावों में भाजपा को अकेले 121 सीटें मिल गईं और कांग्रेस 45 पर थम गई। लेकिन भाजपा के ढोल में ऐसी पोल थी कि तीन साल के भीतर ही दोबारा चुनाव कराने पड़ गए और इस बीच भी चार चेहरे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जा बैठे। केशूभाई पटेल, सुरेश मेहता, शंकरसिंह वाघेला और दिलीप पारीख की सोहबत ने प्रादेशिक मुखिया के सिंहासन को कहीं का नहीं छोड़ा।
1998 में दसवीं विधानसभा के लिए चुनाव हुए तो भाजपा की 117 सीटों के साथ केशूभाई पटेल मुख्यमंत्री बने। झरोखे में बैठ कर बेसब्री से इंतज़ार कर रहे नरेंद्र भाई ने ढाई बरस बीतते-बीतते केशूभाई को सियासी-कूचे से विदा कर दिया। तब से तब तक वे जमे रहे, जब तक कि प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी उन्होंने भाजपा में जबरन छीन नहीं ली और फिर भारी बहुमत से चुन कर दिल्ली नहीं पहुंच गए। वे जानबूझ कर अपने पीछें आनंदीबेन पटेल का कमज़ोर चेहरा गांधीनगर में छोड़ कर आए थे। बाद में उनसे भी पांच पायदान नीचे के विजय रूपानी से आनंदीबेन की विदाई करा कर उन्होंने अपनी समझ से तो बहुत बड़ा दांव खेला था, लेकिन यही इस चुनाव में भाजपा की उलटबांसी बन गया है।
नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री बनने के बाद 2002 में गुजरात की ग्यारहवीं विधानसभा के लिए चुनाव हुए तो भाजपा की सीटें दस बढ़ गईं, लेकिन कांग्रेस की सीटें सिर्फ़ दो ही कम हुईं और 51 रह गईं। फिर मोदी की ही अगुआई में जब 2007 का चुनाव हुआ तो भाजपा की सीटें दस घट गईं और कांग्रेस की आठ बढ़ गईं। बारहवीं विधानसभा के लिए यह मतदान जब हुआ तो बहुत-से घाव हरे थे और समाज के दो तबके अपनी-अपनी खुशी और ग़म से बाहर नहीं आ पाए थे। बहुमत के ध्रुवीकरण के बावजूद भाजपा अपनी लुढ़कन नहीं थाम पाई।
2012 में, यानी इस बार हो रहे चुनावों के ऐन पहले तेरहवीं विधानसभा के लिए हुए चुनाव में मोदी-महिमा की वह चढ़ाई शुरू हो चुकी थी, जिसका चरम हमने 2014 में देखा। लेकिन राज्य के चुनावों में भाजपा की एक सीट कम हो गई और कांग्रेस की एक बढ़ गई। भाजपा के 116 विधायक चुन कर आए और कांग्रेस के 60। आज साम-दाम-दंड-भेद की कृपा से भाजपा के पास 120 सीटें हैं और कांग्रेस के पास 43।
कइयों को इस बात में कुछ ख़ास नहीं लगेगा कि मोदी के नेतृत्व में हुए गुजरात के पिछले तीन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत तक़रीबन स्थिर रहा है और भाजपा का नीचे आया है। 2002 में कांग्रेस को 39.45 प्रतिशत वोट मिले थे, 2007 में 39.63 प्रतिशत और 2012 में 38.9 प्रतिशत। भाजपा को इन चुनावों में 49.8, 49.1 और 47.9 प्रतिशत वोट मिले। मोदी-लहर की ज़मीनी सच्चाई यह भी है कि उनके मुख्यमंत्री रहते स्थानीय निकायों के चुनाव में भाजपा हर बार हारी और अब प्रधानमंत्री बनने के बाद भी राजनीति के इस हलके में मतदाताओं ने एक बार भी उनका साथ नहीं दिया है।
साल भर पहले नरेंद्र भाई का नोटबंदी-करतब देखने के बाद से हतप्रभ लोग अब उन्हें हतप्रभ करने का मन बनाए बैठे हैं। जीएसटी से देश कराह रहा है तो गुजरात कौन-सा प्रसन्न-वदन है? सो, भाजपा और कांग्रेस के बीच दस प्रतिशत मतों का फ़र्क पिछले एक साल में इतना कम तो ज़रूर हो गया है कि इन सर्दियों में भाजपा के पसीने छुड़ा दे। रही-सही कसर सामुदायिक समीकरण पूरी कर देंगे।
अगर दृश्य ऐसा नहीं होता तो नरेंद्र भाई हर छटे दिन दौड़ कर गुजरात नहीं जा रहे होते। निर्वाचन आयोग गुजरात चुनाव की तारीख़ों का ऐलान करने के पहले इतने हीले-हवाले नहीं कर रहा होता। प्रधानमंत्री के पिटारे से गुजरात के लिए इतने लुभावने खरगोश नहीं निकल रहे होते। अमित भाई शाह का नाम ले-ले कर अलग-अलग समुदायों के नेताओं को ललचाने की कोशिशें नहीं हो रही होतीं। केंद्रीय और प्रादेशिक गुप्तचर विभागों का दुरुपयोग होटलों के सीसीटीवी फुटेज खंगाल कर टेलीविजन चैनलों तक पहुंचाने के लिए नहीं हो रहा होता। घबराहट से बौखलाहट उपतजी है और बौखलाहट में एक-के-बाद-एक ग़लती तो होती ही है।
नक्षत्रों की चाल पर निग़ाह रखने वाले पंडितों का गुणा-भाग मानता है कि दो दिन पहले वृश्चिक राशि से विदा ले कर धनु में प्रवेश कर गए शनि महाराज दिसंबर के दूसरे शनिवार से शुरू हो रहे गुजरात चुनाव में जन-मानस को उलटने का अपना कर्तव्य पूरा किए बिना नहीं मानेंगे। मैं मानता हूं कि शनिदेव जो करेंगे, सो, करेंगे; गुजरात इस बार अपना अगला-पिछला हिसाब ज़रूर बराबर करेगा। इसलिए कि उसने अपना बेटा गंगा को और केदारनाथ को इसलिए नहीं सौंपा था कि गुजरात के पांच करोड़ स्वाभिमानी नागरिकों को सब-कुछ होते-सोते हाथ फैलाने पर मजबूर होना पड़े। नरेंद्र भाई और अमित भाई को मालूम है या नहीं, मालूम नहीं, लेकिन मुझे मालूम है कि जिंदगी में ऐसे मौक़े भी आते हैं, जब न नज़रें मिलती हैं और न होंठ हिलते हैं और पूरी बात हो जाती है। इसलिए सारे हिंदुस्तान की बिसात पलटने की शुरुआत अब गुजरात से नहीं तो और कहां से होगी! लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक हैं।
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