अब श्रीश्री के मन में अयोध्या विवाद सुलझाने की हुड़क जगी है। वे भले ही 1008 श्री नहीं हैं। भले ही 108 श्री भी नहीं हैं। मगर अपने नाम के आगे एक बार श्री लगाने से भी उनका काम नहीं चलता है, सो, दो बार श्री लगाते हैं। पिछले 22 साल से अयोध्या की सरयू में जब इतने संत-महात्मा और राजनीतिक अपने हाथ धो चुके तो श्रीश्री रविशंकर ही क्यों पीछे रहें? फिर गुजरात में चुनावों का मौसम भी है। ऐसे में रामलला की याद उन्हें भी बेतरह सताने लगी और अपना सारा कामकाज छोड़ कर वे अयोध्या जा पहुंचे।
ऐसी यात्राओं से कुछ निकलता होता तो अब तक निकल नहीं जाता? ये यात्राएं सिर्फ़ सीमित और तात्कालिक मक़सद पूरा करती हैं। वही श्रीश्री की अयोध्या यात्रा ने किया। दो-तीन दिन प्रचार माध्यमों में चर्चा रही। तसवीरें छपीं। कुछ लोगों को उम्मीद जगी कि राम मंदिर बस अब बना कि तब बना। बाकी ने यह सोच कर मन मसोसे कि जब-जब चुनाव आते हैं, तब-तब ही रामलला की याद कुछ लोगों को क्यों परेशान करती है? दो दशकों में अयोध्या विवाद का समाधान निकालने की आठ-नौ बार संजीदा कोशिशें हो लीं। नतीजे में ढाक के वही तीन पत्ते हमारे सामने हैं।
1991 में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो उन्हें लगा कि अयोध्या विवाद को आपसी सुलह से वे सुलझा सकते हैं। वे पूरी साफ़गोई से अपनी बात कहने का ऐसा साहस रखते भी थे कि दूध को दूध और पानी को पानी कर दें। मगर सरयू के पानी का हिसाब वे भी नहीं कर पाए। उनके बाद पामुलपर्ति वेंकट नरसिंहराव आए तो उनके वे गुरु जिन्हें दुनिया गुरुघंटाल मानती थी, अयोध्या में कूद-फांद करने लगे। नरसिंहराव ने इस मसले को सुलझाने के लिए न्यायमूर्ति एम.एस. लिब्रहान की अगुआई में दिसंबर-92 में एक आयोग बना दिया। नरसिंहराव सियासी तौर पर और फिर भौतिक तौर पर भी जाते रहे, लेकिन आयोग चलता रहा। राव ने कहा था कि आयोग अपनी रपट तीन महीने में दे दे। मगर उसका कार्यकाल बजरंगबली की पूंछ की तरह बढ़ता ही रहा। 48 बार कार्यकाल-विस्तार की कीर्तिमान स्थापित करने के बाद 2009 में इस आयोग ने तब के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को अपनी रपट सौंपी। उसे इस काम में 17 साल लगे। नतीजा जो है, सो, आपके सामने है।
इस बीच, अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने तो अपने कार्यालय में एक अयोध्या-प्रकोष्ठ ही बना दिया था। वे अयोध्या-मसले का समाधान करने की गंभीर समझ भी रखते थे और उनकी नीयत पर देश को उस तरह शक़ नहीं हुआ करता था, जैसा आज के प्रधानमंत्री की नीयत को ले कर लोग करते हैं। मगर अपनी इस साख के बावजूद वाजपेयी अयोध्या का राह का खुरदुरापन ज़रा भी कम नहीं कर पाए थे। इसलिए जब श्रीश्री अयोध्या पहुंचे तो मेरी तो हंसी छूट रही थी। मेरी समझ में ही नहीं आया कि उनके खुद के अलावा दूसरा कौन था, जो उनकी इस भूमिका को इतनी गंभीरता से ले रहा था?
मुझे नहीं पता कि श्रीश्री को यह पता है कि नहीं कि निर्मोही अखाड़ा कहता है कि चूंकि गर्भ-गृह में बैठे रामलला की पूजा-अर्चना वह करता है, इसलिए इस जगह पर पहला हक़ उसका है। मुझे यह भी नहीं मालूम कि श्रीश्री को यह मालूम है कि नहीं कि रामलला-विराजमान धड़े का कहना है कि चूंकि रामलला अभी बाल-अवस्था में हैं, इसलिए उनकी देखभाल का ज़िम्मा उसका है। मैं यह भी नहीं जानता कि श्रीश्री यह जानते हैं कि नहीं कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड मानता है कि यहां तो बाबरी मस्जिद थी और वही रहेगी। अगर श्रीश्री को इसका ज़रा भी अहसास था कि विश्व हिंदू परिषद् सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड से किसी भी तरह की बातचीत को ही तैयार नहीं है तो वे सबसे पहले उसे तैयार करने की बजाय अयोध्या तफ़रीह करने क्यों जा पहुंचे?
अयोध्या-मसला कोई श्रीश्री की ज़ुल्फ़ों का पेचो-ख़म नहीं है कि इस तरह टहलते हुए सुलझ जाए। निर्मोही अखाड़ा अरसे से सवाल उठाता रहा है कि विश्व हिंदू परिषद के लोग जब मंदिर निर्माण के लिए गांव-गांव ईंटें इकट्ठी करते घूम रहे थे तो उस दौरान इकट्ठे किए गए अरबों रुपए कहां गए? अखाड़े के कई संतों को लगता है कि यह रकम 14-15 अरब रुपए है। मंदिर के नाम पर हुई आर्थिक हेराफेरी के किस्से इतने बरसों से हवा में तैर रहे हैं कि जब श्रीश्री अयोध्या में घूम रहे थे तो हवा उड़ गई कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को गुपचुप बीस करोड़ रुपए दे कर मस्जिद कहीं और बनाने पर राजी किया जा रहा है। लोग पूछने लगे कि श्रीश्री समाधान करने आए हैं या सौदा करने?
तमिलनाडु के पापनाशम में जन्मे रविशंकर के श्रीश्रीकरण के बाद देश-दुनिया ने उन्हें बहुत-कुछ दिया है। उन्होंने देश-दुनिया को क्या दिया, मैं खोज रहा हूं। पाकिस्तान से ले कर इराक तक और कोलंबिया से ले कर कश्मीर तक श्रीश्री के चरण जहां-जहां पड़े हैं, वहां-वहां कितनी हरियाली आई, आप जानें। मैं तो इतना जानता हूं कि दिल्ली में यमुना का ज़ख़्मी किनारा अब भी उनके दिए अपने घाव सहला रहा है और श्रीश्री हैं कि हरित न्यायाधिकरण को पहले तो ज़ुर्माना चुकाने से ठेंगा दिखाते रहे और फिर न्यायाधिकरण को कुछ ऐसा आत्म-ज्ञान हुआ कि उसने श्रीश्री को खुद ही ज़ुर्माना-मुक्त कर दिया। मुझे ऐसे सभी मौक़ों पर उस देश का वासी होने में गर्व अनुभव होता है, जिसकी सरकारें बड़े-बड़े महात्माओं और धन्ना सेठों को करोड़ों-अरबों के जु़र्माने से राहत दे देती हैं। सज़ाएं तो उनके लिए हैं, जिनके आगे-पीछे कोई नहीं है।
दूसरों को जीने की कला सिखाने वाले श्रीश्री को खुद जीवन में इस तरह उलझते देख मुझे उन पर बड़ा तरस आ रहा है। पता नहीं उन्हें इस उम्र में क्या हो गया है कि वे सोचने लगे हैं कि नारे बिछा कर और जुमले ओढ़ कर अयोध्या जैसे मसलों का भी हल निकाला जा सकता है। अयोध्या अब धर्म का मसला रह ही कहां गया है? वह तो सियासत का मसला है। जिन्हें लगता है कि इस मसले की पीठ पर सवार हो कर उन्हें फिर कुछ राजनीतिक फ़ायदा हो जाएगा, वे नहीं जानते कि दो और दो का जोड़ हमेशा चार नहीं होता है। हर हिंदू के दिल में अयोध्या में राम मंदिर के बनने की इच्छा दबी होने की धारणा पर आंख मूंद कर विश्वास करने वाले भूल रहे हैं कि मंदिर आंदोलन के दो दशक बाद भी मताधिकार प्राप्त हर सात हिंदुओं में से छह भारतीय जनता पार्टी को खारिज कर रहे हैं। 1998 से आज तक हर तीसरे मतदाता ने भाजपा को वोट देना बंद कर दिया है।
2014 का झक्कू-दौर छोड़ दे तो मंदिर आंदोलन के युग में एक भी चुनाव ऐसा नहीं रहा जिसमें भाजपा को कांग्रेस से ज़्यादा वोट मिले हों। 2009 के चुनाव में क़रीब साढ़े 71 करोड़ मतदाता थे। उनमें से साढ़े 39 करोड़ मतदान करने गए थे। इनमें 32 करोड़ हिंदू थे। लेकिन भाजपा को कुल वोट मिले थे 8 करोड़ और कांग्रेस को मिले थे 12 करोड़। झांसेबाज़ी की उफ़नती लहरों के चरम दौर में 2014 में भी दो तिहाई मतदाता भाजपा के खिलाफ़ अपना वोट दे कर आए थे। श्रीश्री को यह श्रीमंत्र समझ में नहीं आ रहा तो कोई क्या करे!
( लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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