Saturday, March 10, 2018

धड़ाम से तो आपकी मूर्ति गिर रही जनाबेआली!



पंकज शर्मा

    ‘भारत माता की जय’ बोल कर उन्होंने लेनिन की मूर्ति गिरा दी, पेरियार की मूर्ति गिरा दी, आंबेडकर की मूर्ति पर कालिख पोत दी और गांधी की मूर्ति का चश्मा तोड़ दिया। विधानसभा के इस चुनाव में पूरे त्रिपुरा में मार्क्सवादी पार्टी से महज 6518 वोट ज़्यादा पाने से अगर भारतीय जनता पार्टी के मरजीवड़ों का उन्माद यह है तो मुझे उनके इस मांसपेशी-प्रदर्शन पर उबकाई आती है। और, संघ-गिरोह की इस लठैती पर जो अब भी ख़ामोश बैठे हैं, उन सब का मालिक अब भगवान ही है। मुझे ख़ुशी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने मूर्ति-तोड़कों को लताड़ा है। लेकिन मुझे नहीं मालूम कि वे प्रधानमंत्री होने के नाते अपने औपचारिक कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं या उन्होंने भाजपा-अध्यक्ष अमित शाह को भी सचमुच यह ताईद की है कि ऐसे तत्वों को पार्टी से निकाल बाहर करें।
    मैं ने कई भाजपाई-विचारकों को छोटे परदे पर यह दलील देते सुना कि उत्तर-पूर्व के चुनाव नतीजों से उपजे भावनात्मक प्रवाह में ये मूर्तियां ढह गई हैं। वे कह रहे थे कि यह प्रवाह इतना वेगवान है कि इसे रोकने को कोई कुछ नहीं कर सकता। अपनी मीनार में बैठे ये विचारक धन्य हैं। उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों में आए इस प्रवाह की सच्चाई मैं उन्हें बताता हूं। त्रिपुरा में भाजपा को कुल मिला कर 9 लाख 99 हजार 93 वोट मिले हैं और मार्क्सवादी पार्टी को 9 लाख 92 हजार 575 वोट। यानी भाजपा इस अश्वमेध में 6518 वोट से आगे रही। मार्क्सवादी पार्टी से मिलते-जुलते वैचारिक मार्ग पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टी, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक को 50 हजार वोट अलग से मिले हैं। इस लिहाज़ से वैचारिक प्रवाह का झरना तो अब भी अलग ही दिशा में बह रहा है।
    नगालैंड में भाजपा तीसरे क्रम पर रही। उसे 1 लाख 53 हजार 864 वोट मिले। मेघालय में भाजपा पांचवें क्रम पर रही। वहां उसे 1 लाख 51 हजार 217 वोट मिले। कांग्रेस को मेघालय में 4 लाख 47 हजार 472 वोट मिले। लेकिन कांग्रेस से क़रीब तीन लाख वोट कम पाने के बावजूद भाजपा ने वहां सरकार बनाने के लिए लुभावना ‘पोल-डांस’ करने में कोई हिचक नहीं दिखाई। तीनों राज्यों की 180 सीटों में से भाजपा सिर्फ़ 49 सीटें जीती है। उत्तर-पूर्व के इन तीन प्रदेशों की कुल आबादी है साढ़े 91 लाख। वहां महज़ 27 प्रतिशत सीटें जीत कर जो लेनिन, पेरियार, आंबेडकर और गांधी की मूर्तियों पर पिल पड़े हों, वे अपना वश चलने पर सवा सौ करोड़ की आबादी का क्या हाल करेंगे, यह सोच कर आपके रोंगटे खड़े नहीं होते?
    जिन भगत सिंह को आज भाजपा अपने प्रतीक-पुरुषों की अग्रिम कतार में शामिल करने के लिए दिन-रात एक कर रही है, वे भगत सिंह लेनिन के प्रति श्रद्धा से सदा सराबोर रहे। 87 साल पहले, 23 मार्च 1931 को फांसी पर लटकाए जाने से पहले तक वे लेनिन का वैचारिक-दर्शन पढ़ते रहे। क्या आप अमित भाई शाह और उनकी भाजपा को भगत सिंह से बड़ा राष्ट्रवादी मानते हैं? भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह भारत माता समिति से संबद्ध थे। उनके दोनों चाचा अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह भी भारत माता समिति के सक्रिय सदस्यों में थे। अब से सौ साल पहले जो भारत माता की जय बोलते थे, उनकी मुट्ठियां अपनी जान हथेली पर रख कर तना करती थीं। क्या आज भारत माता की जय बोलने का दिखावा करने वालों की उनसे कोई तुलना हो सकती है? अमित भाई ने भगत सिंह के साथ दिन बिताने वाले अजय घोष, शौकत उस्मानी और बिजोय कुमार सिन्हा का लिखा कुछ भी पढ़ा होता तो वे अपने हुल्लड़-समूह को कभी लेनिन की मूर्ति की तरफ़ नहीं बढ़ने देते। उन्हें मालूम होता कि लेनिन की मूर्ति तोड़ने में और भगत सिंह की प्रतिमा का अनादर करने में कोई ज़्यादा फ़र्क नहीं है। वंचितों और शोषितों के लिए संघर्ष दुनिया भर में कहीं भी हो और कोई भी करे, अगर वह पूजनीय है, तो है। पूजनीय भौगोलिक सरहदों के पार होते हैं। गांधी की मूर्तियां दुनिया भर के देशों में यूं ही नहीं लगी हैं। भारत की धरती पर उनकी प्रतिमा पर कालिख पोतने वाले, उनका चश्मा तोड़ने वाले, लंदन जा कर देखें कि गांधी की मूर्ति किस अदा से ब्रिटेन की संसद के सामने तन कर खड़ी है।
    पता नहीं, मोहन भागवत और उनके शिष्यों को यह मालूम है या नहीं कि बाल गंगाधर तिलक महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु थे। 30 अप्रैल 1908 को प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस ने मुजफ्फरपुर में एक काफ़िले को अपने बमों का निशाना बनाया। वे मजिस्टेªट डगलस किंग्सफोर्ड को मारना चाहते थे। तिलक ने क्रांतिकारियों की बमबारी का समर्थन किया। अंग्रेजों़ ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया और अदालत ने तिलक को छह साल की सज़ा सुना कर बर्मा (अब म्यामांर) की जेल में भेज दिया। जब तिलक पर मुक़दमा चल रहा था तो लेनिन ने एक लेख लिखा--‘विश्व राजनीति के ज्वलंत मुद्दे’। उन्होंने लिखा: ‘ब्रिटिश गीदड़ों द्वारा भारत के लोकतंत्र-प्रेमी तिलक को दी गई सज़ा के बाद अब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अंत होना तय है। अब भारत के लोग राजनीतिक जन-संघर्ष का महत्व अच्छी तरह समझ चुके हैं।’ 1905 की पहल रूसी क्रांति को महात्मा गांधी ने ‘वर्तमान सदी की सबसे महान घटना’ बताया था। उन्होंने कहा था कि ‘यह हमारे लिए भी एक प्रेरणा है और अब हमें भी उत्पीड़न से निपटने का रूसी तरीका अपनाने की तरफ़ बढ़ना है।’
    जो गांधी की मूर्ति तोड़ कर गोडसे की प्रतिमा लगाते हों, पेरियार और आंबेडकर की मूर्तियों तक पर कालिख पोतते हों, उनसे लेनिन की मूर्ति बख्श देने की उम्मीद करना मूर्खता है। लेकिन उन्हें यह अहसास तो हम-आप ही कराएंगे कि लेनिन की बुनियादी वैचारिक राह में और तिलक, गांधी, भगत सिंह के वैचारिक प्रवाह में कोई फ़र्क तो है नहीं। इसलिए जब आप लेनिन की प्रतिमा गिराते हैं तो आप तिलक, गांधी और भगत सिंह के ही हाथ-पैर तोड़ते हैं। यह अफ़गानिस्तान के बामियान प्रांत में चौथी-पांचवी सदी की बुद्ध प्रतिमाओं को बमों से उड़ा देने से कौन-सा अलग है? 
    लेकिन अगर इस सब के बावजूद बुद्ध के विचार नहीं मरते, गांधी के विचार नहीं मरते, तिलक और भगत सिंह के विचार क़ायम रहते हैं तो त्रिपुरा के बेलोनिया और साबरूम में लेनिन की मूर्तियां ढहा देने से एक ऐसे समाज की स्थापना का विचार कैसे मर जाएगा, जिसमें सब को बराबरी देने की बात हो? समतामूलक समाज ‘सब का साथ, सब का विकास’ के थोथे नारों से क़ायम नहीं हुआ करता। नथुने फुला कर भारत माता की जय बोलने से अगर असली राष्ट्रवाद हिलोरें ले सकता तो चार साल में पूरे मुल्क़ का जन-गण-मन हर चौराहे पर नरेंद्र भाई और अमित भाई की जुगल-प्रतिमाएं लगा कर उनकी आरती उतार रहा होता। मूर्तियों को गिराने वालों को यह मालूम ही नहीं है कि हिंदू हृदय सम्राट के विकास का घोड़ा लड़खड़ा कर कब का गिर चुका है। वे यह जानते ही नहीं हैं कि उनके प्यारे सवा सौ करोड़ देशवासियों की आकांक्षाएं धड़ाम से ज़मीन पर गिरी पड़ी हैं। ऐसे में, पता नहीं किस तरक़ीब से हासिल किए गए, चंद हज़ार ज़्यादा वोटों पर सवार हो कर इतना भी क्या गुरूर! 
    (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

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