पिछले हफ़्ते मैं चीन की राजधानी बीजिंग में था। मेरे पहुंचने के दो दिन पहले ही चीन की संसद ने अपने मुल्क़ के संविधान में उस संशोधन को सर्व-सम्मति से मंजूरी दी थी, जिसके बाद किसी भी व्यक्ति के राष्ट्रपति पद पर अधिकतम दो बार बने रहने की सीमा ख़त्म हो गई है। चीन के मौजूदा राष्ट्रपति शी जिनपिंग के आजीवन अपने पद पर बने रहने की संभावनाओं-आशंकाओं के बीच भारत में हम कुछ महीनों से डूब-उतरा रहे हैं। तब से, जब इस साल की शुरुआत में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के क़रीब दो सौ शिखर नेताओं ने ज़रा गुपचुप तरीके से चीन का संविधान बदलने की जुगत बिठाई थी। हमें लग रहा है कि अब जिनपिंग तानाशाह हो जाएंगे और चीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को ऐसे पंख लग जाएंगे कि भारत तो भारत, अमेरिका तक को उसकी उड़ान पर काबू पाना दिक्क़त भरा होता जाएगा।
हो सकता है, भारतीय जन-मानस में पैठी यह आशंका आने वाले बरसों में सही साबित हो। हो सकता है, यह आशंका इतनी खोखली साबित हो जाए कि बाद में हमें अपने सोचे पर हंसी-सी आए। बीजिंग के जिस शोध-विचार संस्थान ने मुझे व्याख्यान देने बुलाया था, उसका दुनिया में, और ख़ासकर एशिया में, बड़ा नाम है। माना जाता है कि चीन-सरकार की अंतरराष्ट्रीय नीतियों को दिशा देने में यह संस्थान ख़ासी अहम भूमिका निभाता है। सो, मैं ने ज़रा बेबाकी से अपनी बातें रखने से पहले ही वहां मौजूद विचारकों और शोधार्थियों को बता दिया कि न तो मैं कोई राजनयिक हूं कि घुमा-फिरा कर अपनी बातें कहूं और न कोई चिंतक कि ठोड़ी पर हाथ रख कर उनके सामने ऐसी वैचारिक-जलेबी पेश करूं, जिसका ओर-छोर ही सब ढूंढते रह जाएं। मैं ने उन्हें बताया कि भले ही आजकल मैं एक सक्रिय राजनीतिकर्मी भी हूं, मगर हूं मूलतः पत्रकार, सो, खरी-खरी सुनिए।
मैं ने उनसे कहा कि भारत-चीन संबंधों के शास्त्रीय संगीत की धुन तो जवाहरलाल नेहरू ने इतने मन से तैयार की थी कि सारे भारतवासी “हिंदी-चीनी भाई-भाई” गाते थिरक रहे थे। लेकिन आप ने 1962 में जो किया, उसके बाद 56 बरस से हम तो अपनी पीठ का ज़ख़्म ही सहलाते घूम रहे हैं। उसके बाद राजीव गांधी ने 1988 में चीन से नए रिश्तों की शुरुआत करने का ठोस काम किया, मगर उनकी कोशिशों पर पानी फेरने में भी आप ने कोई कसर नहीं रखी। मनमोहन सिंह की सरकार की पहलक़दमी को भी चीन ने अपने रणनीतिक पन्नों के हाशिए पर धकेला। आपसी विश्वास की कमी के ऐसे माहौल को सुधारने के बजाय आज भी डोकलाम में आप की फ़ौज ख़ुराफ़ात करती है। हिंद महासागर में आप की खुफ़ि़या पनडुब्बियां विचर रही हैं। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा बनाने के पीछे की आप की नीयत पर हम कैसे भरोसा करें? मैं ने उन से पूछा कि आप ही बताइए कि ऐसे में हम क्या करें, जब आप हमारे प्रधानमंत्री तक को यह बताने की कोशिश करते हैं कि वे अपने ही देश के किस प्रदेश में जाएं और किस में नहीं? अरुणाचल प्रदेश को ले कर चीन के बयान अगर भारत की सार्वभौमता को चुनौती देते हों तो क्या हम ख़ामोश बैठे रहें?
मैं ने दक्षिण चीन महासागर से ले कर भूटान, नेपाल, मालदीव और म्यांमार तक के मसलों पर ठोस तरीक़े से अपनी राय रखी और साफ़-साफ़ कहा कि एशिया में चीन के विस्तारवादी क़दमों पर काबू पाने की नैतिक ज़िम्मेदारी अगर भारत नहीं तो कौन निभाएगा? आख़िर हम अपने क्षेत्रीय और वैश्विक सामाजिक कर्तव्यों से विमुख कैसे हो सकते हैं? इसलिए जब तक चीन अपने रवैए को उदार और नरम नहीं बनाता, उसे भारत से भी किसी उदारता और नरमी की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
मैं ने चीन के संविधान में संशोधन के बाद भारतवासियों के मन में और गहरी हो गई आशंकाओं का भी खुल कर ज़िक्र किया। बताया कि किस तरह भारतवासी महसूस करते हैं कि जिनपिंग के तानाशाही की तरफ़ बढ़ने की राह खुल गई है और यह भारत के हित में नहीं है; कि जिनपिंग जैसे शक्तिशाली नेता के सामने भारत के पास भी उतना ही शक्तिशाली नेतृत्व होना चाहिए; कि चीन अगर भारत के पड़ोस में हर जगह अपने पैर पसारने के लिए दंद-फंद कर रहा है तो भारत को भी अपनी चादर का दायरा बढ़ाना चाहिए; और, अगर चीन के बने सामान से एशिया और दुनिया तो छोड़िए, भारत तक के बाज़ार भरे पड़े हैं तो भारत को सबसे पहले तो खुद के बाज़ार से चीन को बाहर का रारस्ता दिखाना चाहिए। मैं ने कहा कि आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-भौगोलिक समायोजन के बिना दोनों मुल्क़ों के रिश्तों में बेहतरी की लच्छेदार बातें विचारकों-शोधार्थियों के बीच गोल-मेज़ पर तो हो सकती हैं, मगर असली ज़मीन इतनी पथरीली है कि हम-आप कुछ भी हांकें, सब तब तक फ़िजूल है, जब तक असली मुद्दों पर तालमेल बिठाने की ठोस कोशिशें नहीं होतीं।
मैं दाद देता हूं कि संगोष्ठी में मौजूद चीनी-पक्ष के विद्वतजन ने, बावजूद इसके, पूरे धैर्य से मेरी बातें सुनीं-गुनीं कि मैं उनकी तरह न तो कोई शोधार्थी हूं और न भारत-चीन संबंधों का विशेषज्ञ। मेरा नज़रिया एक आम भारतीय का नज़रिया था और उसे बताने का तरीका भी राजनयिक कुलीनता से परे पत्रकारीय अक्खड़पन से सराबोर था। मगर मैं ने पाया कि जब संगोष्ठी में मौजूद लोगों ने पौन घंटे तक मुझ पर अपने सवाल दागे तो उनमें से किसी के मन में मेरी, यानी भारत की, अवमानना का कोई भाव नहीं था। असलियत और ग़लतियों का अहसास उन्हें भी था। उनके भी अपने मसले थे। वे उन्होंने ज़ोर दे कर उठाए। मगर मुझे वे दुराग्रही नहीं लगे। वे भारत के प्रति शत्रु-भाव से भरे हुए नहीं थे। वे भारत से ताल-मेल के लिए कई मील चलने को तैयार लगते थे।
नरेंद्र भाई मोदी के प्रधानमंत्री बनने के तीन महीने बाद ही साबरमती में जब हम ने शी जिनपिंग को उनके साथ झूले पर झूलता देखा था तो लगा था कि अब भारत-चीन रिश्ते कुछ-कुछ झूमने लगेंगे। आख़िर पूरे साठ साल बाद हमने किसी चीनी राजनेता को तब ऐसा सार्वजनिक सम्मान दिया था। राजनयिक आचरण संहिता की तमाम जंज़ीरें तोड़ कर हमारे प्रधानमंत्री जिनपिंग को बाहों में भरने दौड़े थे। लेकिन मुझे नहीं पता कि इन साढ़े तीन साल में ऐसा क्या हुआ कि दोनों की तलवारें म्यान से थोड़ी-थोड़ी बाहर आती गईं। बहुतों की तरह मेरी भी समझ में नहीं आता है कि क्यों हमें अपना राष्ट्रवाद जगाए रखने के लिए लगातार एक पाकिस्तान और एक चीन की ज़रूरत है?
इसलिए मैं ने बीजिंग के नीति-सलाहकारों से भी कहा कि सरकारों को जो करना है, करें, मगर जब तक दोनों मुल्क़ों के देशवासियों को एक-दूसरे से मिलने-जुलने की अधिकतम सहूलियत नहीं मिलेगी, मन की दरारें नहीं पटेंगी। सो, चीन के नेतृत्व को यह तय करना होगा कि भारत से संबंधों को ले कर आख़िर वह सचमुच चाहता क्या है? संबंध सुधारना चाहता है तो कुछ करता क्यों नहीं? अपने निजी-सिंहासन के पाए मज़बूत रखने के लिए किसी देश को हौआ बना कर पेश करने की बाज़ीगरी कोई भी करे, ग़लत है। और, जो ग़लत है, सो, ग़लत है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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