पूरा प्रचार माध्यम चार दिनों से ‘रूप की रानी’ की अलविदाई से ग़मज़दा था। और, मेरी छोटी बेटी सीरिया की नन्ही रूपरानियों के मासूम चेहरों पर बिखरे रक्त के छींटों-थक्कों को लेकर, इस बीच लगता है कि, इतनी व्यथित थी कि आखि़रकार उससे रहा नहीं गया और बुधवार की दोपहर उसने मुझे व्हाट्सऐप संदेश भेज कर अचानक पूछा कि पापा, सीरिया में यूएन इंटरवीन क्यों नहीं कर रहा? चंद लमहे तो मैं सुन्न था।
बेटी, छोटी सिर्फ़ इसलिए है कि उससे बड़ी भी एक है। वैसे दोनों ख़ासी बड़ी हैं। अपनी रोज़ी-रोटी ख़ुद चलाती हैं। मगर इस छोटी से, जिसे मैं उसकी नाराज़गी के बावजूद सबके सामने छुटकू ही कहता हूं, मुझे सीरिया और यूएन जैसे मसलों पर जिज्ञासा ज़ाहिर करने की उम्मीद अब तक तो नहीं थी। सो, जब उसके मैसेज में रूस और अमेरिका के रवैए पर सवाल मैं ने देखें तो, मैं सच कहता हूं कि, इस बात पर मेरा मन, पता नहीं क्यों, गर्व से भीग गया कि वह श्रीदेवी के बजाय सीरिया की बात कर रही है।
मैं श्रीदेवी की अंतिम विदाई में भावनामय लोगों का सम्मान करता हूं। मैं श्रीदेवी को राजकीय सम्मान देने वालों के जज़्बे का भी आदर करता हूं। मैं मानता हूं कि हमारे लोकनायक-नायिकाएं सिर्फ़ सियासत की दुनिया से ही नहीं होने चाहिए। अगर दांडी यात्रा करने वाले को महात्मा बनाने का हक़ हमें हैं तो बाक़ियों को यह अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए कि वे अपने देवी-देवता अपने हिसाब से तय कर सकें? आख़िर, पता नहीं कहां-कहां से आकर, मुंबई की सड़कों पर घंटों बैठ, अपनी चांदनी के दुबई से आने का इंतज़ार करने वाले भी हैं तो उसी समाज का हिस्सा, जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की वर्दी पहन कर, चंद्रशेखर आज़ाद की तरह मूंछों पर ताव देता हुआ, चाय की केतली से सत्ता की सर्वोच्च टेकरी पर पहुंचे अपने आराध्य पर रीझता है, भारत माता की जय बोलता है, नृत्य करता है, और अपना सब-कुछ उस पर वारता है।
सो, मैं उनके सामने नतमस्तक हूं, जो एक हादसे की रूमानियत में अपने को डुबा कर बाक़ी हादसों की किल्लत से मुक्त होने लायक़ मासूमियत रखते हैं। साथ ही, मैं इस नासपीटी दुनिया की धूप-बारिश के बीच चौथाई सदी से गुज़र रही अपनी छोटी बेटी के सामने भी नतमस्तक हूं, जिसे वैश्विक राजनीति की बर्छियों का उतना अंदाज़ नहीं है और जो जानना चाहती है कि आखि़र यूएन के होते सीरिया में यह सब हो कैसे रहा है? मैं उसके भोलेपन का क्या जवाब देता? सो, बुधवार की पूरी दोपहर बीच-बीच में उसके व्हाट्सऐप संदेशों का जवाब देते बीती।
मेरी बेटी जानना चाहती थी कि दूसरे देश क्यों कुछ नहीं बोल रहे? यह असद कैसा आदमी है कि अपने ही देशवासियों को मार रहा है? इस सबके बाद तो इनका देश बहुत पिछड़ जाएगा? कोई कुछ करता क्यों नहीं? जब मैं ने उसे संयुक्त राष्ट्रसंघ में इस मसले पर रूस और चीन के दोहरे वीटो के बारे में बताया और समझाने की कोशिश की कि ऐसे मौक़े पर भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने एब्स्टेन क्यों किया तो उसने जवाब में ‘स्पाइनलैस’ लिखने में एक क्षण भी नहीं लगाया। मैं ने बेटी को तफ़सील से बताया कि छह साल से ज़्यादा पुराने गृह-युद्ध के दौरान हुआ क्या-क्या है और क्यों इस मसले की संवेदनशीलता बेहद नाज़ुक है तो उसने फिर तपाक से जवाब दिया कि दुनिया के सब देशों को इस मामले में अपना पक्ष तय करना चाहिए, फिर भले ही विश्व-युद्ध हो जाए। उसने लिखा कि किसी का पक्ष न लेना भी दरअसल किसी का पक्ष लेना है। मेरी बेटी बेहद नाराज़ थी और उसने मुझे संदेश भेजा कि जब ज़रूरत के वक़्त ही काम नहीं आए तो ऐसे यूएन का फ़ायदा ही क्या है? बाक़ी देशों में पीस मिशन भेजते रहने से क्या हो जाएगा? उसका कहना था कि जहां प्रॉब्लम है, वहां तो कुछ कर नहीं रहा है यूएन।
छुटकू रूस से भी नाराज़ थी और अमेरिका से भी। मैं ने उसे दोनों का नज़रिया समझाने के लिए लंबा संदेश लिखा। उसका जवाब आया कि तो रूस अमेरिका पर अटैक करे ना और अमेरिका रूस पर कर दे। ये सीरिया में क्यों लड़ रहे हैं? और, यह सीरिया का रूलर भी अपने ही लोगों को मार रहा है। ऐसा रूलर बनने में भी क्या मज़ा है कि रूल ही नहीं कर पा रहा? उसकी जनता ही उससे इतनी दुःखी है।
मैंने बेटी को अरब-विश्व के सियासी पहलू बताए। ईरान, चीन, उत्तर-कोरिया, वगैरह के सीरिया से अच्छे संबंधों का जिक्र किया। इराक, मिसª, लेबनान, यमन, वगैरह की सीरिया से सहानुभूति के बारे उसे बताया। भारत, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, इंडोनेशिया जैसे देशों की तटस्थता के कारण गिनाए। अमेरिका, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी और इज़राइल द्वारा सीरिया के घनघोर विरोध की जानकारी उसे दी। यह पहला मौक़ा था कि मेरे लंबे-लंबे संदेश पढ़ने के बाद भी वह उकता नहीं रही थी। पूरा पढ़ने के बाद उसने पहले तो सिर्फ़ एक पंक्ति का जवाब दिया: ‘‘बुरे लोग हैं सब। तो ग़लत ही तो है यह सब।’’ चंद लमहों बाद ऊहापोह-भरा एक संदेश आया: ‘‘मुझे बुरा लगा वहां के लोगों के लिए... कितनी सेड फोटों हैं उनकी इंटरनेट पर... इतने छोटे-छोटे बच्चे, इतनी ख़राब हालत में... रो रहे हैं... डरे हुए हैं... कैसे घटिया लोग हैं ये रूलर, जो यह सब कर रहे हैं ... यह सब होने दे रहे हैं ... इतने बड़े-बड़े देश हैं, उनकी इतनी बड़ी-बड़ी फौज है, वे कुछ कर सकते हैं, करते क्यों नहीं...’’।
मैं जानता हूं, यह लिखते समय मेरी बेटी का मन कितना विचलति रहा होगा। वह बड़ी है। उन नन्हे बच्चों से इतनी बड़ी कि उसकी संतान भी उतनी बड़ी हो सकती थी, जिनकी तस्वीरों से इंटरनेट का संसार इन दिनों पटा पड़ा है। लेकिन वह भीतर-ही-भीतर बिलकुल उन्हीं की तरह रुआंसी थी। मेरी आंखें ख़ुद पिछले कुछ दिनों में ये तस्वीरें देख कर कई बार गीली हो चुकी हैं। विश्व-राजनय के जो पेंच मैं ने अपनी बेटी को समझाने की कोशिश की, वे उसे कितना समझ आए होंगे? मैं उनमें से कुछ समझता हूं तो क्या अपने मन को भीगने से रोक पाता हूं? क्या मेरे मन में सचमुच वे ही सवाल नहीं उपजते, जो मेरी बेटी को कचोट रहे हैं? मन जब भीगता है तो क्या अंतरराष्ट्रीय सियासत के नफ़े-नुक़्सान का हिसाब-क़िताब लगा कर भीगता है?
ईश्वर से मेरी प्रार्थना है कि विश्व-राजनय की डोरियों के बारे में मेरी समझाइश कभी मेरी बेटी न समझ पाए। चार हज़ार किलोमीटर दूर दिल्ली में बैठ कर दमिश्क के नन्हे-मुन्नो के दर्द से उपजा आंसुओं का यह तोहफ़ा दुनिया भर की समझदारी से लाख दर्ज़ा बेहतर है। आज के सारे बच्चों को दे तो और अच्छा, मगर मेरे बच्चों को तो यही नादानी दे, मौला, कि कि वे रीढ़हीनो को तपाक से रीढ़हीन कह सकें; कि वे इस संसार में जिन नित नई व्यथाओं से रू-ब-रू होंगे, अपनी मासूमियत से उन्हें ऐसी ग़ज़लों में तब्दील कर सकें, जिन्हें एक दिन पूरी मानवता गुनगुनाए; और, वे कभी वह गुणा-भाग न सीख पाएं, जिसे सुलझाने की जुगत सीखने के बाद बच्चों का बचपन दूर चला जाता है और बड़प्पन पास नहीं आता है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
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