Saturday, January 5, 2019

कमलनाथ, गहलोत और बघेल का कर्मयोग



पंकज शर्मा

    मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें अगर इस बार न बनतीं और तेलंगाना और मिजोरम में लोगों ने भारतीय जनता पार्टी को दूर से ही प्रणाम न कर दिया होता तो और जो भी होता, सो, होता, हमारे हरफ़नमौला प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी और भाजपा के कंपनी-बहादुर अमित भाई शाह का भारतीय मतदाता के भेड़-पन पर भरोसा और पुख़्ता हो जाता। इसलिए पांच राज्यों में टूटी भेड़-चाल ने सब से बड़ा काम यह किया है कि सियासी-हेकड़ी के बांस उलटे लाद दिए हैं।
    लेकिन देश के हृदय-प्रदेशों में अपने सिर पर बंध गई पगड़ियों को ले कर कमलनाथ, अशोक गहलोत और भूपेश बघेल के लिए यह समय फूले-फूले फिरने का नहीं है। मतदाता कांग्रेस के माथे पर साफा बांधने के लिए नहीं, भाजपा के सिर से साफा उतारने के लिए अपने घरों से निकले थे। इसलिए यह वोट कमलनाथ, गहलोत या बघेल के लिए नहीं था। नरेंद्र भाई की धमकाऊ-मुद्रा से गुस्साए मतदाता का यह वोट उन राहुल गांधी की तरफ मुड़ा है, जो तमाम मखौल, अवहेलना और अपमान झेल कर भी नीलकंठी-मुद्रा में पिछले एक-दो बरस से सियासी-पानीपत में अविचल डटे रहे। 
    कमलनाथ, गहलोत और बघेल की ताजपोशी तो उनकी भाग्य-कुंडलियों में लिखे राज-योग का नतीजा है। तीनों के असली कर्म-योग के आकलन की अंतरदशाएं तो अब शुरू हुई हैं।
    मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की 520 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस को 281 मिल गई हैं। पांच साल पहले हुए चुनावों में कांग्रेस को सिर्फ़ 117 सीटें मिली थीं। यानी इस बार 164 सीटों का इजाफ़ा हुआ है। जिस दौर में राजनीतिक विश्लेषकों की ‘चेतन भगतीय मंडली’ राहुल गांधी की कांग्रेस का मर्सिया पढ़़ने में कोई कसर बाकी नहीं रख रही थी, उस दौर में मतदाताओं के थप्पड़ ने सियासी-आसमान गुंजा दिया है। देश की सवा 18 करोड़ की आबादी वाले तीन प्रदेशों में कांग्रेस के हाथ की छाप ने भाजपा के छक्के छुड़ा दिए हैं। भारत के 14 फ़ीसदी लोग मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में रहते हैं और देश के कुल मतदाताओं का भी 14 प्रतिशत इन राज्यों में है। इसलिए कांग्रेस के पुनर्जीवन का यह आरंभ मामूली नहीं है। 
    मगर एक तथ्य और भी है। इन तीन प्रदेशों में मौजूद लोकसभा की 65 सीटों में से अभी सिर्फ़ 6 कांग्रेस के पास हैं। बाकी 59 भाजपा की मुट्ठी में हैं। चार महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में अगर कमलनाथ, गहलोत और बघेल मिल कर कांग्रेसी सीटों का आंकड़ा अगर 50 तक नहीं छुआ पाए तो उनके कर्मयोगी होने पर सवाल खड़े होंगे। तीनों प्रदेशों में विधानसभा चुनावों के नतीजों का लोकसभा में सीधा अंकगणतीय अनुवाद कांग्रेस को 35 सीटें तो अपने आप दिला रहा है। बाकी तीनों मुख्यमंत्रियों की निजी कार्यशैली, उनके प्रशासनिक अमले के तौर-तरीकों और सरकारी सिंहासनों पर अब जमने वाले लोगों का कांग्रेस की पैदल-सेना के साथ व्यवहार से तय होगा। सत्ता की जन्म-घुट्टी में अपनों की अवहेलना का मूल-सत्व मौजूद रहता है। इस सत्व की वंश-वृद्धि पर नियंत्रण रखने वाला ही सियासी लहरों पर लंबे समय राज करता है। कमलनाथ और गहलोत के राजनीतिक-प्रशासनिक प्रबंधन को दशकों से देखने के बाद मैं तो आश्वस्त हूं कि मध्यप्रदेश और राजस्थाऩ में चुस्ती और स्फूर्ति के नए अध्याय लिखे जाएंगे। छत्तीसगढ़ में भारी जीत की खुमारी से अपनों को बचाए रखना फ़िलहाल बघेल की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी होगी। 
    आने वाली गर्मियों की तैयारी करते वक़्त तीनों प्रदेशों को ताजा विधानसभा चुनावों से टपके कुछ और तथ्यों को अपने गले उतारना होगा। मध्यप्रदेश में विधानसभा की 25 सीटें कांग्रेस बहुजन समाज पार्टी की वजह से हारी है। 6 सीटें कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के कारण गंवाई हैं। 6 सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों की मौजूदगी ने कांग्रेस को पीछे किया है। 8 विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे, जहां अगर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी न होती तो कांग्रेस और अच्छे मतों से जीतती। इन 45 सीटों के समीकरण पांच-छह लोकसभा सीटों के लिए मायने रखेंगे।
    राजस्थान में कांग्रेस 14 सीटें तो निर्दलीय प्रत्याशियों के कारण ही हार गई। बसपा की वजह से भी उसे 9 सीटें खोनी पड़ीं। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी ने भी 16 सीटों पर जीत का अंतर प्रभावित किया। 39 सीटों का यह गणित अगले साल अप्रैल-मई में पांच लोकसभा सीटों को प्रभावित करेगा। छत्तीसगढ़ में जोगी-बसपा की जुगलबंदी ने हालांकि भाजपा को ज़्यादा नुकसान पहुंचाया है, मगर 9 सीटों पर कांग्रेस की हार में भी उसकी भूमिका रही है। ऐसे में बघेल को अभी से दिन-रात एक करने होंगे।
    मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ग़रीब मतदाता कांग्रेस की तरफ तेज़ी से मुड़ा है। दलितों ने भाजपा को सिरे से नकारा है। भाजपा का आदिवासी आधार भी भरभरा कर गिर गया है। बावजूद इसके कांग्रेस को अभी बहुत पसीना बहाना है। 2019 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी एक-एक सीट पर जीत के लिए अपना सब-कुछ दांव पर लगा रहे होंगे तो कांग्रेस को भी उनकी विदाई के लिए सब-कुछ झोंक देना होगा। लोकसभा के चुनावों तक कांग्रेस को अपनी स्थिति इन तीन प्रदेशों में अभी बहुत मजबूत करनी होगी। अगर आज की स्थिति ही बनी रही तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा को मतों का बराबर-बराबर प्रतिशत ही मिलेगा। राजस्थान में उसे मिलने वाले मतों का प्रतिशत भाजपा से कम रहेगा। छत्तीसगढ़ में ज़रूर कांग्रेस का मत-प्रतिशत भाजपा से ज़्यादा रहेगा।
    विधानसभा चुनावों के नतीजों ने कांग्रेस की शिराओं को नए सिरे से तरंगित तो कर दिया है, लेकिन यह तरंग लोकसभा चुनाव तक, न सिर्फ़ बनी रहनी ज़रूरी है, बल्कि बढ़ती रहनी ज़रूरी है। यह आसान नहीं है। ठीक है कि लोग नरेंद्र मोदी के खोखले ज़ुमलों से ऊब गए हैं, ठीक है कि बेरोज़गारी, नोटबंदी और चौपट अर्थव्यवस्था को ले कर लोगों में गुस्सा है; मगर कांग्रेस को भी अभी उस दहलीज़ तक पहुंचना है, जहां से उसके घुड़सवार संसद की तरफ कूच करें। मतदाताओं में सरकार बदलने की चाहत तो है, लेकिन इसे जुनून में बदल कर ही दिल्ली की दूरी कम की जा सकती है।
    कमलनाथ, गहलोत और बघेल के सामने असली चुनौती अपने राजनीतिक और प्रशासनिक सहयोगी चुनने की है। राजनीतिक हमजोलियों का चयन तो कई स्तर की संतुलन-चक्की से हो कर गुजरता है, इसलिए उसमें ग़लतियां होने की गुंज़ाइश कम हो जाती है। मगर अफ़सरशाही के जाल-बट्टे और घेरेबंदी से बचना राजनीतिक खलीफ़ाओं के लिए भी आसान नहीं होता है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पंद्रह-पंद्रह बरस से जड़ें जमा चुकी प्रशासनिक-धड़ेबाज़ी की सुरंग से कमलनाथ और बघेल को गुजरता देखना दिलचस्प होगा। राजस्थान में हर पांचवे बरस वेशभूषा बदल कर सामने आ जाने वाले नौकरशाहों से खो-खो खेलते गहलोत को देखना भी उतना ही मजे़दार रहेगा। अगर अपने शुरुआती चयन में तीनों राज्यों के सूबेदार गच्चा खा गए तो उनके राज्यों पर तो साढ़े साती लगेगी ही, कांग्रेस की भावी संभावनाएं भी अपने पैरों में काले घोड़े की नाल ठुकवाए बिना बेहतर नहीं हो पाएंगी। मैं मानता हूं कि तीनों प्रदेशों के सूबेदार इतने घुटे हुए तो हैं ही कि नौकरशाही की रासमंडली का नृत्य-संयोजन करते वक़्त झपकी लेने का जोखिम नहीं उठाएंगे। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)

    No comments: