मैं इस हफ्ते भोपाल में था। भोपाल का ताल पंद्रह बरस बाद हिलोरें ले रही नई सियासी-तालों से ताल मिलाने के लिए पांव थिरका रहा है। जिन्हें लगता था कि अपने राजनीतिक जीवन के चार दशक रायसीना की पहाड़ियों पर तफ़रीह में गुज़ार देने वाले कमलनाथ भोपाल के टीलों पर शायद ही ठीक से चढ़ पाएं, वे उनके कदमों की जुंबिश देख कर अवाक हैं। मैं ने कमलनाथ के चार दशक के सफ़र को पहले पत्रकारिता में रह कर और बाद में राजनीति में आ कर संजीदगी से समझा है। अपने कुलीन-कोने से पल्लू झटक कर जिस तरह वे दीवाने-आम में आ कर जम गए हैं, अगर उससे उकताए बिना वे अपने बरामदे का दायरा बढ़ाते रहे तो मध्यप्रदेश विकास के एक नए मुहावरे को जन्म देगा।
भोपाल के नए निज़ाम पर दिग्विजय सिंह की गहरी छाप देखने के लिए आपको किसी दूरबीन की ज़रूरत नहीं है। वे कुछ भी नहीं हैं, मगर सब-कुछ हैं। मध्यप्रदेश में इस बार कांग्रेस की बढ़त उनके समन्वय-कौशल का नतीजा है। अपनी समन्वय-कला को उन्होंने लचीलेपन और दृढ़ता के ऐसे मिश्रण में डुबो रखा है, जिसका गुण-सूत्र राजनीति के बड़े-बड़े रसायनशास्त्रियों को भी नहीं मालूम। नर्मदा प्रसाद प्रजापति को विधानसभा-अध्यक्ष निर्वाचित कराते वक़्त दिग्विजय की दुंदुभी बजते सभी ने खुलेआम सुनी। प्रजापति इंदौर में क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ाई के दिनों से हम में से बहुतों के अनवरत-साथी रहे हैं और अपने मध्यममार्गी स्वभाव ने उन्हें यहां तक पहुंचाया है। बावजूद इसके कि भारतीय जनता पार्टी के बेवजह आक्रामक रवैये की वजह से पांच दशक में पहली बार विधानसभा-अध्यक्ष सर्वानुमति से नहीं चुना गया, मैं जानता हूं कि प्रजापति सदन की कार्यवाही पर इस मलाल की छांह नहीं पड़ने देंगे।
जिन्हें रखना है, रखें, लेकिन मैं तो इतना छोटा दिल नहीं रख सकता कि मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनवाने के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया की भाग-दौड़ और खुद सिंहासन पर बैठने को ले कर उनकी अनाग्रही गरिमा को श्रेय न दूं। उन्होंने अपने को सचिनीकरण से बचाया। इसके बाद इतना हक़ तो उन्हें बनता ही था कि अपने सात-आठ समर्थकों को मंत्रिमंडल में जगह दिलाएं। सो, उन्होंने इतना करने के बाद खुद को रोज़मर्रा की प्रादेशिक सियासत से फ़िलवक़्त तो दूर-सा कर लिया है। यह भी कमलनाथ-सरकार का शक्ति-बीज है।
अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह और सियासी-दस्तरखान पर रखी तश्तरियों का व्यंजन-मर्म समझने वाले सुरेश पचौरी अगर चुनाव जीत जाते तो कांग्रेसी सरकार का और भला होता। लोग मानते हैं कि दोनों भाजपा के ईवीएम-प्रबंधन की भेंट चढ़ गए। पचौरी तो फिर भी रोज़-ब-रोज़ की उठापटक में नज़र दिखाई दे रहे हैं, लेकिन अजय सिंह ने अपनी राजनीतिक-देगची धीमी आंच पर रख दी है। आगे-पीछे दोनों को हम-आप फिर मैदान में देखेंगे ही। इसलिए कि इतनी-सी ऊंच-नीच के चलते हथियार फेंक देने वालों में दोनों ही नहीं हैं।
कुछ तो सचमुच हैं, लेकिन उनके अलावा भी खुद को कांग्रेस की जीत का शिल्पकार समझने वालों से भोपाल का ताल मैं ने लबालब भरा देखा। नई सरकार के पहले विधानसभा सत्र के बाहरी गलियारे इन स्वयंभू-शिल्पकारों के बोझ से चरमरा रहे थे। निजी आकांक्षाओं की इस मूसलाधार के थपेड़ों से निबटना कमलनाथ नहीं जानते, ऐसा नहीं है, मगर लोकसभा के चुनाव होने तक उनकी आंख-मिचौली देखना दिलचस्प होगा। इसलिए कि अपनी शिल्पकारी पर स्वयं रीझे बैठे लोगों की फ़ौज राजनीतिकों की ही नहीं, अफ़सरों की भी है। ऐसे बहुत-से हैं, जिन्हें लगता है कि अगर वे नहीं होते तो कमलनाथ-दिग्विजय-सिंधिया त्रिमूर्ति भी भाजपा से सत्ता नहीं छीन पाती।
भोपाल के मीना-बाज़ार में इस वक़्त पाजामा-कुर्ताधारी और सूट-बूटधारी जो प्राणी विचर रहे हैं उनकी दो श्रेणियां हैं। एक वे राजनीतिक हैं, जो भाजपा से पंद्रह बरस जूझते रहे और अब अपनों का ध्यान चाहते हैं। दूसरे वे राजनीतिक हैं, जो भाजपा की नृत्य-शाला में भी बैठे रहे और अब कांग्रेसी अंतःपुर में प्रवेश की खिड़कियां तलाश रहे हैं। इसी तरह वे अफ़सर हैं, जो भाजपा-राज में किनारे पड़े रहे और अब दीवाने-ख़ास में जगह चाहते हैं और वे अफ़सर भी हैं, जो भाजपा के हरम का हिस्सा थे और अब कांग्रेसी शैया पर लोट लगाना चाहते हैं। मैं तो यही दुआ कर सकता हूं कि ईश्वर कमलनाथ की दिव्य-दृष्टि बरकरार रखे! कलियुग में दुआएं चूंकि आसानी से नहीं फलती हैं, इसलिए मैं आप से भी गुज़ारिश करता हूं कि मेरे साथ ज़ोर-ज़ोर से यह दुआ करें।
नरेंद्र भाई मोदी के पराक्रम तले हांफ रही मौजूदा लोकसभा के अब महज सवा सौ दिन बचे हैं। कमलनाथ, दिग्विजय और सिंधिया को मिल कर यह वर्जिश भी करनी है कि इन सवा सौ सीढ़ियों पर चढ़ते समय कांग्रेस का दम न फूले। विधानसभा चुनाव के वक़्त की तेल-मालिश के भरोसे लोकसभा का समंदर पार नहीं होगा। अभी की तीन सीटों को बीस के पार कुदाना खाला का खेल नहीं है। और, अगर कांग्रेस इस बार मध्यप्रदेश से अपने बीस सांसद भी लोकसभा की देहरी तक नहीं पहुंचा पाए तो फिर मुल्क़ की रंगत कैसे बदलेगी? तीन प्रदेशों से भाजपा की विदाई ने कांग्रेस को सुस्ताने का मौक़ा तो दे दिया है, मगर लोकसभा का ज़ीना चढ़ने के लिए उसे दुगना दम लगाना है।
जब केंद्रीय संस्थाओं के चप्पे-चप्पे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने साढ़े चार बरस में ही अपने स्वयंसेवक तैनात कर डाले तो सोचिए कि पंद्रह साल में मध्यप्रदेश का क्या हाल हुआ होगा? पूरे राज्य की प्रशासनिक गलियों में लहरा रहे संघ-ध्वज को नर्मदा में तिरोहित करना मामूली काम नहीं है। सिर्फ़ हो-हल्ला करने से ये बलाएं नहीं टलने वाली। सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और प्रशासनिक परिसरों से इस गाजर-घास को जड़ तक खुरचने का ज़िम्मा देने के लिए खुरपियां चुनने का काम भी कमलनाथ को इन्हीं सवा सौ दिनों में पूरी संजीदगी से करना होगा। इसमें एक-एक दिन की देरी लोकसभा के लिए कांग्रेस की राह में कंटक बढ़ाएगी।
मध्यप्रदेश की शिल्प-त्रिमूर्ति को मैं महाभारत का सभा-पर्व पढ़ने की बिन-मांगी सलाह देना चाहता हूं, जिसमें इंद्रप्रस्थ की स्थापना के बाद महर्षि नारद द्वारा युवराज युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्नों का ज़िक्र है। इसमें उन 14 दोषों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें त्यागे बिना कोई भी राजा लंबा राज कर ही नहीं सकता है। विधानसभा के चुनावों में मतदाताओं ने भाजपा को उसके पाप की सजा दी है। ये चुनाव-परिणाम कांग्रेस की पुरानी पुण्याई के छींटे हैं। ज़रूरी नहीं कि पुण्य-पाप की ये स्मृतियां अगले सवा सौ दिन अपने प्रवाह का वेग वैसा ही बनाए रख पाएं।
इसलिए कांग्रेस के लिए यह समय भोपाल के ताल में लगातार तरंगे उठाते रहने का है। पानी की तरह आकारहीन रहने से कुछ नहीं होगा। जिस सुबह की ख़तिर मर-मर कर हम सब जुग-जुग से जी रहे थे, वह मध्यप्रदेश में तो जैसे-तैसे आ गई है। लेकिन उसका सूरज उगाए रख कर उसकी धूप लोकसभा के आंगन में पहुंचाना अभी बाकी है। तभी जा कर इन गर्मियों में देश में शीतल बयार बहेगी। भाजपा-संघ के दावानल से निकलने वाली भावी लपटों के बीच से गुज़रना ऐसा भी आसान नहीं होगा। इसके लिए कमलनाथ-दिग्विजय-सिंधिया की संयुक्त दमकलों के अलावा पैदल-टुकड़ियों का शंखनादी-कूच भी ज़रूरी होगा। आप करें-न-करें, मैं तो विश्वास करता हूं कि कांग्रेस अपने आत्म-बोध से नहीं भटकेगी। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)
No comments:
Post a Comment