Saturday, January 5, 2019

सिंहासन का दायित्व-बोध उनके ठेंगे पर



पंकज शर्मा

    भारत के अच्छे दिन लाने की शपथ ले कर सत्ता में आए और साढ़े चार बरस में देश को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संस्कारों के पाषाण-काल में खींच ले गए हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने और कुछ चुराया है या नहीं, मालूम नहीं, मगर कुछ चीजें तो ज़रूर चुराई हैं। अपने पूरे कार्यकाल भर उन्होंने मीडिया से नज़रें चुराई हैं। देशवासियों का विश्वास चुराया है। राष्ट्रीय इतिहास का गौरव चुराया है। परंपराओं का सम्मान चुराया है। समाज का सद्भाव चुराया है। अर्थव्यवस्था की नींव से ईंटें चुराई हैं। राजनीतिक आचार-संहिता के बुनियादी पन्ने चुराए हैं।
    सो, अपने कार्यकाल के डेढ़ सौ दिन पहले अगर नरेंद्र भाई ने मीडिया की पैनी निगाहों का सामना करने के बजाय मिमियाते सवालों के जवाब में अपना छवि-निर्माण प्रायोजित किया है तो आप उन्हें माफ़ कर दीजिए। वे पराक्रमी हैं, उनके पास छप्पन इंच की छाती है, वे बातें बनाने की कला जानते हैं और उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली है। लेकिन इसका मतलब यह कहां से हो गया कि वे हर तरह के सवालों का सामना करने को तैयार हो जाएं! वे जवाबदेह हैं, मगर सिर्फ़ उन सवालों के जवाब देंगे, जिनका वे देना चाहते हैं। वो भी तब, जब वे सवाल उस तरह पूछे जाएं, जिस तरह वे चाहते हैं।
    नरेंद्र भाई जानते हैं कि पत्रकार बिरादरी में गोस्वामियों, चावलाओं और जोशियों की कमी नहीं है। लेकिन वे यह भी जानते हैं कि सवाल उठाते पत्रकारों के किसी सामूहिक बाड़े में कूद पड़ने में कितना बड़ा जोखि़म है। इसलिए उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद एक बार भी यह साहस नहीं दिखाया कि किसी को दुस्साहस दिखाने का मौक़ा मिल जाए। सो, नए साल का इंटरव्यू उन्होंने बहुत सोच-समझ कर बड़े सादे माहौल में पूरी मासूमियत ओढ़ कर देने का काम किया।
    प्रधानमंत्री के इस इंटरव्यू से जिन्हें ‘वाह-वाह’ की गूंज बिखरने की उम्मीद थी, वे सब मुंह लटकाए बैठे हैं। मेरे पास देश-विदेश से पचासों फोन आए और उनमें से एक भी ऐसा नहीं था, जिसने माशाअल्लाह कहा हो। सबने इंटरव्यू को ढाक के तीन पात बताया। इनमें वे लोग भी थे, जिन्होंने नरेंद्र भाई की हर अदा पर मर मिटने के लिए ही जन्म लिया है। उनका तालठोकू अंदाज़ भी तिरोहित-सा जान पड़ा। इस इंटरव्यू ने एक पराक्रमी प्रधानमंत्री की बेचारगी जग-ज़ाहिर करने के अलावा और कुछ नहीं किया। बेचारग़ी इस बात की कि कहें तो क्या कहें और बताएं तो क्या बताएं?
    क्या आप सोच भी सकते हैं कि व्लादिमीर पुतिन अपना इंटरव्यू रूस के किसी कपिल शर्मा से करवाएंगे? क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि शी जिन पिंग अपना इंटरव्यू चीन की किसी भारती सिंह से करवाएंगे? और-तो-और, क्या डोनाल्ड ट्रंप तक अपना इंटरव्यू अमेरिका के किसी राजू श्रीवास्तव से करवा लेंगे? लेकिन ये हमारे नरेंद्र भाई हैं, जिन्हें इस बात से फ़र्क़ पड़ता है कि कहीं वे अपना इंटरव्यू किसी धीर-गंभीर प्रश्नकर्ता को न दे बैठें! इसलिए वे जब से प्रधानमंत्री बने हैं, उन्होंने फूंक-फूंक कर यह सावधानी बरती है कि सिर्फ़ उन्हीं के पूछे सवालों के जवाब दें, जिन्हें सवाल पूछने का सलीका आता हो। क्योंकि प्रधानमंत्री बनने से पहले कई बार उन्हें बेसलीकेदार सवालियों के सामने से बीच में ही उठ कर चले जाने का पराक्रम दिखाना पड़ गया था। अब भारत का प्रधानमंत्री रोज़-रोज़ ऐसा करता फिरे, यह भी तो शोभा नहीं देता। सो, फ़जीहत से ऐहतियात भली!
    मीडिया-प्रबंधन के लिए बंद समाजों वाले मुल्क़ों के हुक़्मरानों द्वारा अपनाए जाने वाले तौर-तरीक़ों और लोकतंत्र में निर्वाचित किसी प्रधानमंत्री के प्रयोजनों में कुछ तो फ़र्क़ होना चाहिए। पहले के किसी प्रधानमंत्री ने पत्रकारों को अपने से दूर रखने के लिए इस तरह दिन-रात एक नहीं किए। नरेंद्र भाई ने आते ही अपने दरवाज़े तो उन पत्रकारों के लिए पूरी तरह बंद कर ही लिए, जो उनकी तरह सोचने से इनकार करते हों, अपनी पूरी सरकार के गलियारों में भी उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। हो सकता है, पत्रकारिता के नाम पर फैल गई खर-पतवार को नियंत्रित करना हमारे प्रधानमंत्री को खुद की प्राथमिक ज़िम्मेदारी लगती हो, मगर इस प्रक्रिया में सारा धान ढाई पसेरी परोस देना कौन-सी बुद्धिमानी है?
    नरेंद्र भाई को मालूम है या नहीं, किसी को नहीं मालूम, लेकिन देश को यह मालूम है कि लोकतंत्र एक व्यवस्था भर नहीं है, जिसे नाम के लिए बनाए रखा जाए। जनतंत्र एक संपूर्ण सभ्यता है। सभ्यताओं का विकास एक दिन में नहीं होता है। वे सदियों के परिश्रम और एकाग्रता का नतीजा हैं। लोकतंत्र की एक-एक ईंट जमाने में लाखों-करोड़ों लोगों की मनसा-वाचा-कर्मणा ने भूमिका निभाई है। इन ईंटों को खिसकाने का अधिकार किसी को नहीं है। हमारे प्रधानमंत्री जन-प्रतिनिधि हैं। जन-प्रतिनिधि केवल मतदान से उपजे विश्वास का प्रतिनिधि नहीं होता है। वह भाषा, संस्कृति और समाज का प्रतिनिधि भी होता है। वह पूरे लोकाचार का प्रतिनिधि होता है। प्रश्नों का उत्तर देना-न-देना उसकी मर्ज़ी पर नहीं है। प्रश्नों का उत्तर देने के लिए वह बाध्य है।
    सिंहासन के दायित्व-बोध को समझने से इनकार करने वाले ज़्यादा दिनों तक सिंहासन पर आसीन नहीं रह पाते हैं। नरेंद्र भाई की विचार-काठी उन्हें कभी लचीला नहीं होने देगी। वे अपने को बदलें, इसमें अब बहुत देर हो गई है। इसलिए अब उन्हें बदलने का समय आ गया है। अब तक हम वास्तविकता में कम, सपनों में ज़्यादा जीते रहे। देश कैसा बनना चाहता था, हमारे प्रधानमंत्री समझ ही नहीं पाए। वे अपनी तरह का देश बनाने की ज़िद पर अड़ गए। देश ने उनके सपनों का स्वर्ग बनने से अब तक अपने को हर दिन किसी-न-किसी तरह बचाया। 
    नरेंद्र भाई दोबारा आए तो फिर नहीं मानेंगे। तब हमारी उम्मीदों का चांद नरेंद्र-निर्मित बादलों में खो जाएगा। जिन्हें यह दृश्य डरावना लगता है, वे अगर अगले डेढ़ सौ दिन उनींदे रहे तो अपना खेल ख़त्म कर लेंगे। सो, यह समय हाथ पसारे घूमने का नहीं, बाज़ुओं को आज़माने का है। यह अपनी आंखों में अपने ख़्वाब ज़िंदा रखने का समय है। अगर आज इन ख़्वाबों ने दम तोड़ दिया तो आने वाली पीढ़ियां हमारी आंखों में झांक कर कैसी ज़िंदगी देखेंगी? सवाल यह नहीं है कि भारत के प्रधानमंत्री भारत के सवालों के जवाब देते हैं या नहीं। सवाल यह है कि भारत अपने प्रधानमंत्री से अब एक-के-बाद-एक सवाल पूछता रहेगा या नहीं। जवाब आएं, आएं, न आएं; सवाल पूछते रहिए। इसलिए कि सवाल रुके तो जनतंत्र ठहर जाएगा। और, कुछ लोग हैं, जो यही तो चाहते हैं। यह लड़ाई इस बार सवाल पूछने वालों और जवाब न देने वालों के बीच है। इस लड़ाई का नतीजा तय करेगा कि सवाल उठाने की शाश्वत परंपरा मजबूत होगी या हम अनसुनी के रेगिस्तान में भटकेंगे। लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।

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