14.07.2018
पंकज शर्मा
‘हिंदू-पाकिस्तान’ बनने की आशंका ज़ाहिर कर शशि थरूर ने खुद को कम, कांग्रेस को ज़्यादा मुसीबत में डाल दिया। इसलिए कि एक तो हमने ठान लिया है कि मुहावरों की भाषा, हम नहीं समझेंगे, तो नहीं ही समझेंगे। दूसरा इसलिए कि किसी के कहे हुए के पीछे का मर्म समझना हमारे बस का हो भी, तो भी हम नहीं समझेंगे। तीसरा इसलिए कि थरूर की वैश्विक-बुद्धि को इतनी समझ ही नहीं है कि यह भारत है; उस पर भी आजकल यह नरेंद्र भाई मोदी, अमित भाई शाह और मोहन भागवत का भारत है; और, इस भारत से किस भाषा में बात करनी चाहिए।
पिछले
दिनों ऐसा कई बार हुआ है कि कई अंग्रेजीदांॅ कांग्रेसियों ने अपने दिमाग़ों में उपजे विचारों का तर्ज़ुमा हिंदी में कर के जब-जब ज़ुबान चलाई, कांग्रेस को बगलें झांकने पर मजबूर किया। थरूर पहले नहीं हैं। वे आख़िरी भी साबित नहीं होंगे। इसलिए राहुल गांधी को तो अपने इन बुद्धिजीवियों की छलकती अक़्ल को झेलते ही रहना होगा। लेकिन कोई यह भी तो पूछे कि थरूर ने ऐसा क्या ग़लत कह डाला कि कांग्रेस ने अपने को उनकी बात से अलग कर लिया? मुझे तो यह देख कर भी ताज्जुब हुआ कि एक स-जिल्द थरूर के बयान से पल्ला झटकने के लिए कांग्रेस ने एक अ-जिल्द चेहरे को अपना प्रतिनिधि बना कर मीडिया-मैदान में उतारा। बेहतर तो यह होता कि कोई सचमुच पढ़ा-लिखा चेहरा आ कर देश को यह समझाता कि मुहावरों की भाषा का मर्म समझना कितना ज़रूरी होता है।
मैं कहता हूं कि थरूर की बात का मर्म जो न समझे, अनाड़ी है। प्रतीकात्मकता और सांकेतिकता हमारे सामाजिक और भाषाई जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ऐसा नहीं है कि थरूर पर पिल पड़े लोग इतने ठूंठ-दिमाग़ हैं कि ‘हिंदू-पाकिस्तान’ का भाव नहीं समझे, इसलिए हाय-तौबा मचा रहे हैं। वे जानबूझ कर ऐसा कर रहे हैं। कोई भी थरूर जब इस प्रतीक का इस्तेमाल करता है तो भरे मन से करता है। वह कुछ समय से भारतीय हवा में बढ़ती जा रही घुटन से तंग आ कर आप से यह कहना चाहता है कि अगर हिंदूपन के अतिरेक पर अपनी सियासत चलाने वाली शक्तियां नहीं हारीं तो आगे चल कर भारत उस राह पर चला जाएगा, जिस पर चल कर पाकिस्तान बर्बाद हो चुका है।
यह बात क्या अकेले थरूर महसूस करते हैं? यह तो हम-आप भी महसूस करते हैं। जब महसूस करते हैं तो इसे कहने में हर्ज़ क्या है? अगर कोई ‘हिंदू-पाकिस्तान’ बनाने की कोशिशों का विरोध करता है तो वह ग़लत है या वे ग़लत हैं, जिनके हथकंडे ऐसे हालात बना रहे हैं? इसलिए थरूर की बात से अपने को अलग करने की क्या ज़रूरत है? और, वह भी उनके सामने जो हमें खुलेआम बताते हैं कि जो रामजादे नहीं हैं, वे हरामजादे हैं? कांग्रेस के हाथ को खूनी पंजा बताने वालों से क्या हम इतना भी निवेदन न करें कि भारत को उस मार्ग पर मत ठेलिए, जिस पर जा कर पाकिस्तान कहीं का नहीं रहा?
हमारे
‘हृदय-सम्राट’ प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी ने इस महान देश का कामकाज संभालने के कुछ ही महीनों बाद परदेस जा कर दुनिया को सगर्व बताया कि मेरे आने से पहले भारत के लोग अपने को कोसा करते थे कि किस देश में पैदा हो गए? नरेंद्र भाई के अवतरण के चार साल बाद आज भारत के लोग किसे कोसें? दुनिया में मानव विकास सूचकांक में भारत पहले से नीचे आ गया। समाचार माध्यमों की स्वतंत्रता के सूचकांक में बुरी तरह नीचे लुढ़क गया। कारोबार करने की सहूलियत वाले देशों के क्रम में भी नीचे खिसक गया। विदेशी पूंजी निवेश के सूचकांक में भी कई पायदान नीचे पहुंच गया। आम जन-जीवन में प्रसन्नता का सूचकांक भी खाई में गिर गया। अनवरत विकास, आर्थिक स्वतंत्रता और शांति-व्यवस्था के तमाम सूचकांकों में भी भारत आज दुनिया में पहले से पिछड़ गया है।
ऐसा क्यों हुआ? तब भी क्या किसी थरूर को यह हक़ नहीं होना चाहिए कि वह चेतावनी की घंटी बजाए? यह घंटी तो दरअसल हम सब को हर सुबह बजानी चाहिए। आख़िर नरेंद्र भाई की उपासना के कीर्तन ही तो भारत का अंतिम-सत्य नहीं हैं। उनसे परे भी तो कई भजन हैं, जो हमें यथार्थ का बोध करा रहे हैं। क्या उन भजनों को गाने पर हमारी ज़ुबानें खिंचेंगी? अपने भजन में क्या हम यह विनती कर कोई ग़लती कर रहे हैं कि दुखीजन को धीरज मिले, निर्बल की रक्षा हो और उलझनें सुलझें? अगर पालनहार अपने मूल-कर्तव्य से विमुख हो तो उसे चेताना कोई गुनाह तो नहीं है।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र भाई ने लालकिले से अपने पहले भाषण में जब ‘एक लक्ष्य, एक मन, एक मति, एक दिशा’ की बात कही थी तो मैं ने तो उसका मर्म सकारात्मक ही समझा था। मगर चार बरस बाद अब उनकी बात का जो मर्म समझ में आ रहा है, वह मेरे रोंगटे खड़े करता है। हमारे प्रधानमंत्री ने तब व्यथित-भाव से कहा था कि आख़िर सांप्रदायिकता और जातिवाद का पापाचार कब तक चलेगा? आज मैं उतने ही व्यथित-भाव से यही सवाल उनसे पूछना चाहता हूं। जब-जब चुनाव आते हैं, जिन्ना को कौन प्रकट करता है? जब-जब चुनाव आते हैं, रामलला के पालने के आसपास जा कर कौन खड़े हो जाते हैं? पहली बार लालकिले पर चढ़े नरेंद्र भाई ने कहा था कि अब तक के किए पापों को रास्ते में छोड़ें। अब सद्भावना का रास्ता पकड़ें। अगले महीने वे बतौर प्रधानमंत्री, तकनीकी तौर पर, अंतिम बार लालकिले की प्राचीर से हमें अपने मन की बात बताएंगे। देखें वे पापाचार पर क्या कहते हैं?
मैं हिंदू हूं। भले ही मैं ने चारों वेद, 18 महापुराण और सैकड़ों उपनिषद पूरे नहीं पढ़े हैं, मगर अपने हिंदू होने पर मुझे गर्व है। गीता और रामचरित मानस मुझे जीवन की सच्ची राह दिखाते हैं। अपने देवी-देवताओं को मैं हर रोज़ नमन करता हूं। मैं नरेंद्र और अमित भाई जैसा ’पवित्र-हिंदू’ हूं या नहीं, मुझे नहीं मालूम; लेकिन मैं इतना जानता हूं कि मेरे भीतर भी एक पवित्र आत्मा है। इसलिए मुझे भी लगता है कि हिंदुस्तान, हिंदुस्तान ही रहे; ‘हिंदू-पाकिस्तान’ न बने।
शशि थरूर से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। मुझे इससे भी कोई मतलब नहीं कि वे मूलतः किस भाषा में सोचते हैं। मैं इस पर भी ध्यान नहीं देता कि उनकी जीवन-शैली हिंदू आचार-संहिता का कितना पालन करती है। मगर मैं मानता हूं कि थरूर को अपनी चिंताएं ज़ाहिर करने का हक़ है। हम सभी को अपनी-अपनी चिंताएं सार्वजनिक जाजम पर रखने का अधिकार है। जिन्हें थरूर की कही बात का विरोध करना है, करें। मैं तो उनकी चिंता के साथ हूं। जिन्हें उनकी कही बात से अपने को अलग करना हो, करें। मैं तो उनकी चिंता से अपने को अलग नहीं कर सकता। अपनी आप जानें, मैं तो आपसे यही गुज़ारिश करूंगा कि थरूर को छोड़िए, मगर उनकी कही बात को पकड़िए। उनकी बात के मर्म को समझिए। आप अगर आज उसे नहीं समझेंगे तो कल देर हो जाएगी। शिव-भक्तों ने तांडव स्तोत्र का पाठ करना इसलिए कहां छोड़ा कि उसे रावण ने लिखा था! इसलिए किसी के लिए थरूर कुछ भी सही, कहा उन्होंने सही ही है।
No comments:
Post a Comment