Thursday, August 2, 2018

अविश्वास प्रस्ताव की ऊर्जा के बाद राहुल गांधी




पंकज शर्मा

 21.07.2018

            भारतीय जनता पार्टी को भी महसूस हो गया है कि राहुल गांधी, नरेंद्र भाई मोदी का ठोस विकल्प बन कर सामने गए हैं। अगर ऐसा होता तो लोकसभा में मोदी-सरकार के खिलाफ़ रखे गए अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते राहुल को रोकने के लिए सदन में भाजपा के सांसदों ने इतनी हाय-तौबा की होती। अगर राहुल को इस तरह मोदी का विकल्प बनते देख भाजपा की चूलें हिल रही होतीं तो संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार को नियमों की क़ि़ताब ले कर बार-बार खड़े होने की ज़रूरत नहीं पड़ती। भाजपाई-शोर इतना कान-फाड़ू होता गया कि स्पीकर सुमित्रा महाजन को सदन की कार्यवाही कुछ देर के लिए स्थगित करनी पड़ी और सदन फिर शुरू होने पर भाजपा के रवैए पर उनकी बेचारगी-भरी समझाइश सुन कर मुझे तो इसलिए उन पर दया-सी रही थी कि वे बेतरह निरीह नज़र रही थीं।

            राहुल ने विमान निर्माण का काम सरकारी कंपनी से छीन कर निजी कंपनी को देने, अमीरों के कर्ज़े माफ़ करने और किसानों को कोई भी छूट देने से इनकार करने, महिलाओं और वंचितों पर होने वाले अत्याचारों के मामलों में प्रधानमंत्री के मुह खोलने और मोदी-सरकार के मंत्रियों द्वारा अभियुक्तों का हार पहना कर स्वागत करने जैसे मसले उठाए। उन्होंने सदन में बैठे प्रधानमंत्री को बार-बार यह कह कर छेड़ा कि देखिए वे मुझसे नज़रें भी नहीं मिला पा रहे हैं और कभी इधर देखते हैं, कभी उधर। बोले कि मोदी चौकीदार नहीं, भागीदार हैं।

मगर राहुल ने मोदी और उनकी मंडली पर सबसे ज़ोरदार हमला ख़ासे दार्शनिक अंदाज़ में किया। अपने भाषण के आख़ीर में उन्होंने कहा कि आपके मन में मेरे लिए कितनी ही नफ़रत हो, कितना ही गुस्सा हो और आप चाहे मुझे पप्पू समझते हों, मगर मेरे दिल में आपके लिए कोई गुस्सा नहीं है, कोई नफ़रत नहीं है और देखिएगा कि एक दिन मैं आप सभी के मन से भी एक-एक कर यह गुस्सा-नफ़रत बाहर निकाल दूंगा, आप को भी कांग्रेसी बना दूंगा। राहुल इसके बाद दूारी तरफ़ बैठे प्रधानमंत्री के पास गए, उन्हें गले लगाया, उनसे हाथ मिलाया। नरेंद्र भाई की शक़्ल सचमुच देखने वाली हो गई थी।

            देशवासी तो पिछले दो साल से मुट्ठियां तान-तान कर मोदी-सरकार के खिलाफ़ अविश्वास जाहिर कर ही रहे हैं, मगर आख़िर लोकसभा में भी प्रधानमंत्री को इसकी लपटें झेलनी पड़ गईं। यह तो विपक्ष जानता ही था कि अंकगणित ऐसा है कि उसका अविश्वास प्रस्ताव पारित होने की संभावनाएं दूर-दूर तक नहीं हैं, मगर फिर भी वह इस  प्रतीक-कर्मकांड का पुरोहित इसलिए बना कि देश की 16वीं लोकसभा के पन्नों पर भी जनमानस का मोदी-सरकार के खिलाफ़ अविश्वास दर्ज़ हो।

            अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा में सरकारी पक्ष ने अपनी बात कही और विपक्ष ने अपनी। लेकिन सरकारी उपलब्धियों का बखान विपक्ष के सवालों के सामने भरभरा कर गिरता-पड़ता रहा। जब कोई भी सरकार अपनी साख खो देती है तो उसके सारे किए-कराए पर पानी फिर जाता है। नरेंद्र भाई ने अगर इन चार बरस में कुछ किया भी होगा तो आज उसकी कथा सुनने को इसलिए कोई तैयार नहीं है कि उनके चेहरे की चमक खो गई है। उनके दिखाए सपनों का तिलिस्म पूरी तरह दरक गया है। अगर 2014 के चुनाव अभियान में किए गए वादों में से एकाध ने भी अपनी ज़मीनी उपस्थिति दर्ज़ करा दी होती तो आज भी लोग उम्मीद भरी निग़ाहें लिए उनकी बात मुग्ध-भाव से सुनते रहते।

            लेकिन दुबली गाय की तरह किसी तरह अपना जीवन-यापन कर रही देश की जनता पर नरेंद्र भाई के दो आषाढ़--नोटबंदी और जीएसटी--ऐसे भारी पड़े कि अब भारतीय जनता पार्टी का झंडा देख कर रंभाने वाला उसका मन टूट गया है। कुछ रोज़गार पैदा हो जाते, सचमुच का कुछ विकास हो जाता और हमारे प्रधानमंत्री के ताबड़तोड़ परदेसी दौरे विदेश नीति के बगीचे में कुछ फूल खिला देते तो सारे बांध तोड़ की चार साल पहले दिल्ली पहुंची भाजपा आज इस तरह ऐड़ियां रगड रही होती।

            लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव रखा तो कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों ने था, मगर तकनीकी तौर पर तेलुगु देशम के जैदेव गल्ला का रखा प्रस्ताव इसलिए मंजूर हुआ कि समय के हिसाब से उनका प्रस्ताव लोकसभा सचिवालय को सबसे पहले मिला था। सो, गल्ला को सदन में शुरुआती भाषण देने का मौक़ा मिला। पिछला आम चुनाव भाजपा के साथ मिल कर लड़ने वाली तेलुगु देशम के गल्ला ने बिना कोई हल्ला मचाए मोदी-सरकार की जैसी बखिया उधेड़ी, उसे देख कर मैं तो दंग था। वे पहली बार सांसद बने हैं। सदन में सवाल पूछने, बहस में हिस्सा लेने, निजी विधेयक पेश करने और उपस्थिति के मामले में उनका औसत गिने-चुने सांसदों में है। 22 साल अमेरिका में रह कर 26 साल पहले भारत लौटे हैं। देश के बेहतरीन सीईओ-सूची में उनका स्थान काफी ऊपर है। लोकसभा का चुनाव लड़ते वक़्त उन्होंने अपनी संपत्ति 683 करोड़ रुपए बताई थी। अविश्वास प्रस्ताव पर उन्हें बोलता देखने के बाद संसदीय प्रतिभा पर भरोसा और मज़बूत होता है।

            भारतीय संसद के इतिहास का 27वां अविश्वास प्रस्ताव इस लिहाज से अहम है कि उसने चार साल से घुमड़ रहे मुद्दों पर मोदी को तक़रीबन निरुत्तर-मुद्रा में ला दिया है। 15 साल बाद किसी सरकार के खिलाफ़ शुक्रवार को लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव आया। इसके पहले 2003 में सोनिया गांधी ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के ख्लिाफ़ अविश्वास प्रस्ताव रखा था। संसद में सबसे पहला अविश्वास प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू की सरकार के खिलाफ़ 1963 में आचार्य कृपलानी ने रखा था। इदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ़ 15 बार अविश्वास प्रस्ताव पेश किए गए थे। सिर्फ़ एक बार ऐसा हुआ है कि अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान से कोई सरकार गिरी हो। अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ़ 1999 में रखे गए अविश्वास प्रस्ताव ने एक वोट से उनकी सरकार गिरा दी थी।

            नरेंद्र भाई की सरकार इस अविश्वास प्रस्ताव से तो गिरनी भी नहीं थी, मगर देश के मन से वह अब गिरने लगी है। इस नाते लोकसभा में आए अविश्वास प्रस्ताव ने 2019 की इबारत बहुत गाढ़ी लिख दी है। विपक्ष ने यह साफ कर दिया कि अगले मत-कुरुक्षेत्र में प्रेम और घृणा, एकलाप और वार्तालाप, विभाजन और सद्भाव, कट्टरता और उदारता के बीच युद्ध होगा। जो कहते थे कि राहुल मोदी का विकल्प नहीं हो सकते, शुक्रवार के बाद से हक्केबक्के हैं। भीतर की नफ़रत को समावेशी मुहब्बत में बदलने की गरज़ से नरेंद्र भाई को गले लगाने की राहुल की तस्वीर ने लोकतंत्र की हवा में जो मिठास घोली है, वह अगले चुनाव में नरेंद्र भाई की कडवाहट पर भारी पड़ेगी।

लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।

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